तुलसी कहते हैं कि नदी के किनारे उगने वाली घास कितनी ही निर्बल हो, लेकिन अगर कोई डूबता हुआ व्यक्ति उसे पकड़ने का प्रयास करता है तो वह घास भी उसे बचाने का भरसक प्रयास करती है और अंत में या तो बचाती है या टूट कर उसके साथ ही चली जाती है। यहीं से शुरू होती है परमार्थ की सरिता। जब गंगा की पावन धारा यमुना के गहरे नीले रंग से गले लगती है, तो वह केवल नदियों का संगम नहीं, बल्कि एक सूफियाना राग पसरता है। जिस तहजीब में मखमली आंचल समाया हो, जिसमें मनुष्यता की खुशबू बसी हो, ऐसा काव्य जो भारत की मिट्टी में प्रेम और करुणा के बीज बोता है, वह है समन्वय की धारा।

यह तहजीब न संस्कृतियों का मेल है, न धर्मों का गठजोड़। यह तो वह चांदनी है, जो हर दिल को रोशन करती है और जिसका अंतिम मुकाम है परमार्थ। इसका ऐसा रंग है, जो आत्मा को स्वार्थ की नींद से जगाता है, उसे प्रेम की राह पर ले चलता है। इस तहजीब और परमार्थ के काव्य को सुनें, जहां चुनौतियां मायावी साये की तरह हैं, लेकिन इसकी कविता, शायरी मन को भिगोते हैं। साझा चूल्हे के धुएं से निकली सौंधी रोटी की खुशबू की कोई बंधी-बंधाई परिभाषा होती नहीं है। इसमें जहां भगवा रंगों का सैलाब है तो धरती की हरीतिमा है। इसमें श्वेत हंसों के पंखों से निकलती पावन पवन है। यह तो हवा है, जो बनारस के घाटों पर मंत्रों संग नाचती है, लखनऊ की गलियों में शायरी बन कर गूंजती है।

उदारता हर सीमा को मिटा देती है

यह वह दीपक है, जो अयोध्या की रातों में टिमटिमाता है और दिल्ली की दरगाहों में सूफी समां बांधता है। गोवा के गिरजाघरों में शांति का पाठ करता है। यह तहजीब हिंदी की सरलता और उर्दू की नजाकत का वह संगम है, वैदिक संस्कृति की ऋचाओं का पावन नाद है, जहां कबीर की साखियां और रूमी की शायरी और तुलसी की चौपाइयां एक ही बांसुरी के सरगम से उपजती हैं। यह तहजीब मनुष्यता की मोहनी राग है। यह सिखाती है कि इंसान का असल मजहब उसकी करुणा है, उसका प्रेम है। उसकी वह उदारता है, जो हर सीमा को मिटा देती है। यह तहजीब अकीदतमंदों पर गुलाब और केवड़े के फूलों की बरसात है, भूखों को निवाले और प्यासों को छबील के नीचे सोंधी मटकियों से निकले ठंडे पानी से कंठ तर करती है। इसीलिए सूफी संत बुल्ले शाह कह उठते हैं: ‘न मैं मजहब का, न मैं मुल्क का/ मैं तो बस इश्क का, इश्क का।’

यह इश्क ही परमार्थ का मूल है। गंगा-जमुना का यही संगम हर मन में बसी मानवता है। यह वह नृत्य है, जहां हर कदम प्रेम की ताल पर थिरकता है, जहां किसी अनजान के लिए रोटी का कौर तोड़ कर देना ही इबादत है। इस तहजीब में परमार्थ कोई बाहरी कर्म नहीं। यह तो वह आग है, जो अपने दिल में जलकर दूसरों के ताप हरती है। वह दरिया है, जो अपनी लहरों में सबको समेट कर निर्मल बनाती है। गंगा के तट पर साधु की तपस्या हो या दरगाह में लंगर बांटते हाथ, गुरुद्वारों में सजदा में झुकते शीश हैं।

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परमार्थ हर जगह एक ही रंग में रंगा है- वह है मनुष्यता। यह वह राग जो बिना साज के गाया जाता है। परमार्थ की राह आसान नहीं। यह वह पथ है, जहां स्वार्थ की माया मन को भटका है, जहां दुनिया की चकाचौंध आत्मा को थका देती है। फिर भी, परमार्थ की कहानियां सितारों-सी चमकती हैं। वह लखनवी बुजुर्ग, जो अपनी छोटी-सी दुकान से भूखे को रोटी देता है, वह बनारसी पंडित, जो गंगा-तट पर तुलसी का पौधा बांटता है, वह सूफी शायर, जो अपनी शायरी से टूटे दिलों को जोड़ता है। ये सब परमार्थ की ऋचाओं का सूफी नृत्य है। यही वजह है कि रूमी गा उठे- ‘बाहर की तलाश छोड़ दे, ऐ मुसाफिर/ तुझ में ही बसता है वह नूर-ए-इलाही।’

परमार्थ का पहला कदम मनुष्य की अपने भीतर की तलाश से शुरू होता है और फिर जो हमें अपने से बाहर ले जाता है, दूसरों की पीड़ा को अपनी समझने की हिम्मत देता है। यह वह भक्ति का नृत्य है, जो हर कदम पर प्रेम की मस्ती में झूमता है। लेकिन मायावी साये भी कम नहीं झुलसाते इस परमार्थ को। इसका काव्य बिना चुनौतियों के रचा ही नहीं जा सकता। आधुनिकता की आड़ में संकुचित होती छोटी सोच की ठंडी हवाएं इसको धुंधला रही हैं।

आज बाजारवाद ने इंसान को इंसान से दूर कर दिया और तकनीक ने दिलों के बीच सन्नाटे बुन दिए हैं। सामाजिक असमानता इस तहजीब का सबसे गहरा दर्द है। जब तक हर इंसान को बराबरी का हक न मिले, यह समता का राग अधूरा ही रहेगा। गरीबी, भुखमरी और अज्ञानता आज भी लाखों आत्माओं को इस तहजीब की मिठास से वंचित रखती हैं। परमार्थ का दीप तभी जल सकता है, जब हम दूसरों की पीड़ा को अनदेखा करना छोड़ दें। सांस्कृतिक संकीर्णता इस काव्य को मलिन करती है। परमार्थ का राग तभी साकार होगा, जब हम अपनी सीमाओं को तोड़कर हर आत्मा को गले लगाएंगे। परमार्थ का यह वह बगीचा है, जहां रसखान की भक्ति और अमीर खुसरो की शायरी एक ही फूल की पंखुड़ियां बनके खिलती हैं। यह वह आकाश है, जहां कबीर के दोहे और मीर के शेर तारों-से टिमटिमाते हैं जो मनुष्यता और परमार्थ को सबसे कोमल शब्दों में गूंथता है।

आज जब यह दुनिया टकरावों के साए में भटक रही है, यही परमार्थ हमें जीने की राह दिखाता है। यह हमें सिखाता है कि मनुष्यता ही वह राग है, जो हर संकुचित बंधन को तोड़ कर नया रच सकता है। परमार्थ का यह भाव हमें अपने भीतर की तलाश में ले जाता है, हमें याद दिलाता है कि धर्म से बड़ी दौलत हमारी मानवता है। इस तहजीब को केवल शायरी और गीतों तक सीमित न रख कर, इसे अपनी सांसों में उतारना वक्त का तकाजा है। इस सफर में एक-दूसरे का हाथ थामें और एक ऐसी सुबह रचें, जहां हर दिल में इश्क और हर हाथ में परमार्थ का दीप जले।