हाल ही में अमेरिका के फ्लोरिडा में ‘मिल्टन’ नाम के तूफान ने बवंडर और बाढ़ से विनाश की लीला रच दी। मौसम वैज्ञानिकों ने इस विनाश-लीला को देखकर अनुमान लगाया कि आमतौर पर वर्षा के मौसम के तीन महीने में जितनी वर्षा किसी एक स्थान पर होती है, उतनी ही मात्र तीन घंटों में फ्लोरिडा में हुई। वर्षाजनित बाढ़ और जलभराव के कारण बीस लाख से अधिक लोग प्रभावित हुए। इस विनाशचक्र में कई लोगों की मृत्यु हो गई। कई सौ घर, भवन, सड़कें और अन्य सार्वजनिक सुविधागृह नष्ट हो गए। करीब बत्तीस लाख घरों, भवनों, सड़कों और सुविधागृहों में कुछ दिनों तक विद्युत की आपूर्ति नहीं हुई। बाढ़ग्रस्त लोग अंधेरे में रहने को विवश थे। हर तरह के काम रुक गए। ‘मिल्टन’ तूफान के साथ हुई वर्षा की वजह से जनजीवन चहुंमुखी रूप से संकट में पड़ गया।

फ्लोरिडा अमेरिकी महानगर है और अमेरिका विश्व का सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्र है, इसलिए स्वाभाविक है कि तूफान, आंधी, वर्षा और बाढ़ से प्रभावित इस महानगर के बारे में सूचनाएं और जानकारियां बहुत तेजी से प्रसारित हुईं। मगर मिल्टन जैसे तूफान से सुरक्षित विश्व के बाकी देशों में इसकी विनाशलीला की खबर सिर्फ एकदिवसीय शुष्क और उपेक्षित घटना बनकर भुलावे की भेंट चढ़ गई। शक्तिशाली राष्ट्र के एक महानगर में प्राकृतिक विनाशचक्र की उपेक्षा से ऐसा लगता है कि विश्व के लोग किस मानसिक अभिघात से गुजर रहे हैं।

उन्हें यहां-वहां उत्पन्न होनेवाली प्राकृतिक, सामाजिक, राजनीतिक, आतंकजनित या अन्य प्रकार की गंभीर समस्या से तब तक कोई सरोकार नहीं होता है, जब तक वे खुद सीधे ऐसी समस्या की भयंकर परिधि में न हों। जब फ्लोरिडा के प्राकृतिक संकट ने विश्व के लोगों को अचंभित, आश्चर्यचकित या भयभीत नहीं किया तो भला वे एक लघु, नगण्य एवं उपेक्षित देश नेपाल में कुछ समय पहले हुई वर्षा, बाढ़ और भूस्खलन से नष्ट जनजीवन की सुध क्यों लेते!

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इस ऋतु के समाप्त होते-होते वर्षाजनित विनाश की इन घटनाओं पर दुनिया के सुरक्षित देशों और लोगों का ध्यान या तो स्थिर ही नहीं हुआ या मानवता की भावना के अभाव में ये घटनाएं सहजतापूर्वक वैश्विक विस्मृतियों में चली गईं। इन घटनाओं से पहले वर्षा ऋतु में इधर-उधर भारत और संसार के अन्य देशों में जो विनाश लीलाएं हुईं और उनमें जन-धन-संसाधन की जो हानि हुई, वे तो विस्मृतियों से भी आगे भूलभुलैया के अंधेरे में पहुंच चुकी हैं। प्रकृति हमें क्या संकेत दे रही है और हम इस संकेत को किस प्रकार समझ रहे हैं या समझ ही नहीं रहे, इस पर न तो देश-दुनिया के शासकों और न ही लोगों का ध्यान है।

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दुनिया में प्रतिदिन सैकड़ों लोगों की मृत्यु किसी न किसी कारण से हो ही रही है। इन कारणों में दो देशों के पारस्परिक युद्ध, आतंकजन्य घात-प्रतिघात, रोग, हत्या, वृद्धावस्था आदि प्रमुख कारण हैं ही, सर्वाधिक व्यापक कारण है प्रकृति की अस्थिरता। गत पंद्रह-बीस वर्षों से अस्थिर पृथ्वी का ऋतु चक्र अब वर्तमान में अत्यंत विकृत और विषाक्त हो चुका है। फ्लोरिडा, नेपाल सहित दुनिया के भिन्न-भिन्न भूभागों में तूफान, बाढ़, बवंडर, भूस्खलन, आपदा जैसी घटनाएं इसी की प्रतिक्रिया है।

मनुष्य विषैले और रासायनिक पेय और खाद्य पदार्थों का कर रहा भोग

इतना प्राकृतिक विचलन होने पर भी जीवित बचे हुए लोग विगत में घटी सभी घटनाओं को भूल कर आगे बढ़ने के अभ्यास में लगे हुए हैं। सभी लोग प्रगति, आधुनिकता, करियर बनाने और सोशल मीडिया की अवास्तविक दुनिया में स्वयं को सिद्ध-प्रसिद्ध करने के अंध-अभियान में लगे हुए हैं। सुबह उठने से लेकर रात्रि निद्रालीन होने तक मनुष्य विषैले और रासायनिक पेय और खाद्य पदार्थों का भोग कर रहा है। इससे उसके शरीर के आंतरिक अंग-प्रत्यंग धीरे-धीरे क्षतिग्रस्त हो रहे हैं।

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आशंका यह भी जताई जा रही है कि मोबाइल फोन संचालित करने के लिए स्थापित टावरों से प्रसारित अदृश्य आवृत्तियों के कारण मनुष्यों के मन-मस्तिष्क प्राकृतिक सहजता और मौलिकता से विहीन हो रहे हैं! यह केवल आशंका भी है तो इसके निवारण के लिए इसकी गहन पड़ताल की जानी चाहिए। हर व्यक्ति मन और मस्तिष्क के रोगों से ग्रसित है। कोई भी व्यक्ति शांत, संतुलित और स्वस्थ नहीं है। ऐसे में आधुनिकता, प्रगति और विकास की क्या सार्थकता बाकी है, इस पर विचार करना होगा।

हमारे प्राणों, शरीर और जीवन के मुख्य आधार प्राकृतिक घटकों की स्थिति ही जब अत्यधिक प्रतिकूल हो चुकी हो तो फिर हमारी प्रगति-यात्रा का अर्थ क्या रह जाता है! क्या इसके बाद देश और दुनिया के शासकों को मिलजुल कर विनाशक आधुनिक यात्रा को थामने की दिशा में नहीं सोचना-विचारना चाहिए? क्या इस दिशा में त्वरित और ठोस कार्यक्रम तैयार नहीं किए जाने चाहिए? निश्चित ही विद्वान, शक्तिसंपन्न और धन-संसाधन से युक्त विश्व के अग्रणी लोगों को इस ओर एकाग्र होने की बेहद जरूरत है। ऐसे लोगों को इस संबंध में भावनात्मक और वैचारिक उत्तरदायित्व का निर्वाह करना करना होगा। इस संबंध में अपने विचारों, भावनाओं और वेदनाओं को स्थिर करके उनके आधार पर विश्व के सार्वजनिक जनजीवन की नवदिशा निर्धारित करनी होगी। इस बारे में अब साधारण लोगों के हाथ में कोई शक्ति नहीं बची है। जो कुछ करना है अग्रणी शक्तिशाली वैश्विक नेतृत्व को ही करना होगा।