ओड़िशा के कालाहांडी जिले में अपनी पत्नी का शव कंधे पर उठाए दाना माझी और उनके साथ उनकी रोती हुई बेटी की तस्वीर जब सोशल मीडिया पर वायरल हुई तो पहले लोगों ने केंद्र और राज्य सरकारों पर इसके लिए अपना गुस्सा जाहिर किया। लेकिन जब माझी से सहानुभूति की लहर बैठने लगी तो सोशल मीडिया पर कुछ लोग घटना की तस्वीर दुनिया के सामने लाने वाले पत्रकार की लानत-मलानत करने लगे। इन आलोचकों का आरोप था कि सरकारी अस्पताल और जिला प्रशासन ने अमानवीयता दिखाई तो उनकी तस्वीर उतारने वाले वाले पत्रकार ने भी इंसानियत नहीं दिखाई, वो भी बस उनकी तस्वीर लेता रहा। ऐसी आलोचनाओं को मद्देनजर ओड़िशा टीवी (ओटीवी) ने अपने पत्रकार के पक्ष में पूरे मामले का ब्योरा साझा किया है। ओटीवी के ब्योरे से साफ पता चलता है कि दाना माझी की तस्वीर सामने लाने वाला पत्रकार अजित सिंह हीरो हैं, न कि विलन।

ओटीवी के अनुसार उसके भवानीपटना के संवाददाता अजित सिंह के प्रयासों के चलते दाना माझी को आखिरकार ऐम्बुलेंस मिल सकी और उनकी पत्नी के शव को माझी के गांव पहुंचाया गया। माझी की 42 साल की पत्नी अमंगादेई की मौत भवानीपटना के सदर अस्पताल में टीबी के कारण हो गई थी। ऐम्बुलेंस की व्यवस्था न होने के माझी शव को अपने कंधे पर लेकर अपने गांव जाने लगे। माझी ने करीब 12 किलोमीटर दूरी तय करी ली थी उसके बाद उन्हें मदद मिल पाई।

आलोचकों की जानकारी के लिए ओटीवी ने पूरी घटना का विवरण पेश करते हुए ये भी बताया है कि पत्रकार ने माझी की मदद के लिए किन-किन अधिकारियों और नेताओं से मदद मांगी थी। ओटीवी ने बताया है कि सिंह को बुधवार सुबह अपने सूत्र से सूचना मिली तो वो अपनी बाइक से शगड़ा गांव गए जहां उन्हें माझी उनके गांव की तरफ जाते दिखे। माझी के कंधे पर उनकी पत्नी का शव था और उनकी बेटी उनके पीछे-पीछे रोते हुए चल रही थी। सिंह ने दो घंटे से पैदल चल रहे माझी और उनकी बेटी को सांत्वना दी और ढांढस बधाया। चैनल के अनुसार स्थानीय लोगों ने सिंह की मदद की जबकि जिलाधिकारी समेत तमाम सरकारी अधिकारी मामले को एक-दूसरे पर टाल रहे थे।

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पत्नी का शव कंधे पर ले जाते दाना माझी की तस्वीर सामने लाने वाले पत्रकार अजित सिंह (तस्वीर ओड़िशा टीवी से साभार)

ओटीवी के अनुसार जब सिंह ने कालाहांडी के जिलाधिकारी डी ब्रंदा को फोन किया तो उन्होंने सीडीएमओ को ऐम्बुलेंस की व्यस्था करने के लिए कहा। जब उन्होंने सीडीएमओ से संपर्क किया तो उन्होंने कहा, “मेरा फ़ोन नॉट-रीचेबल था। इसलिए मुझे कॉल नहीं आई होगी।” हालांकि उन्होंने सिंह की सारी बात सुनी और कहा कि वो एडीएमओ से जरूरी कार्रवाई करने के लिए कहेंगे। सिंह ने जब लांजीगढ़ के विधायक बालाभद्र माझी को फोन करके मामले की जानकारी दी तो उन्होंने अपने सहायक गोबिंद पधानी को वहीं भेजा लेकिन फिर ऐम्बुलेंस नहीं पहुंची। आखिरकार पत्रकार ने बालाजी मंदिर सुरक्षा समिति के एक पदाधिकारी को फोन किया तो उन्होंने ऐम्बुलेंस भेजी। एक स्थानीय कारोबारी प्रमोद कुमार खमारी ने ऐम्बुलेंस में पेट्रोल भराने के लिए पैसे दिए थे। ऐंबुलेंस आने के बाद माझी को राहत मिली। उनका गांव मेलघर वहां से 50 किलोमीटर दूर था।

जिस पत्रकार को अपना दायित्व निभाने और घटना को दुनिया के सामने लाने के लिए तारीफ मिलनी चाहिए थी उसे ही लोगों ने बगैर जाने-समझे निंदा का पात्र बना दिया। पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है लेकिन आजकल इस स्तम्भ में दीमक लगने के मामले अक्सर सामने आते हैं। ओड़िया पत्रकार ने न केवल पत्रकारिता का धर्म निभाया बल्कि वो इंसानियत के पैमानों पर भी खरा उतरा। अपने रोजमर्रा के पेशे में कितने लोग ऐसा कर पाते हैं?

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