रागिनी नायक

पहली बार जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अपने ही नाम की पट्टी के साथ ‘मेड इन यूके’ वाले कई लाख के सूट के बारे में सुना तो अनायास ‘सगीना’ फिल्म का एक गाना याद आ गया- ‘…मैं तो साहब बन गया… ये सूट मेरा देखो, ये बूट मेरा देखो, जैसे छोरा कोई लंदन का…!’ यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि परिधान से विचार, व्यक्तित्व या परिपक्वता का आकलन किया जा सकता है। पैरहन कागजी नहीं होते, उनके पीछे एक संदर्भ होता है, एक भूमिका होती है और एक कहानी भी। प्रधानमंत्रीजी का सूट क्या कहानी कहता है, यह जानना भी कम दिलचस्प नहीं। ऐसे मौके पर हैंस क्रिश्चियन ऐंडरसन की सुप्रसिद्ध कहानी ‘ऐंम्प्रर्स न्यू क्लॉथ्स’ को कैसे भूला जा सकता है! सत्ता के मद में चूर राजा, यथार्थ से मुंह मोड़ कर अपनी प्रभुता स्थापित करने के लिए जो कपड़े बनवा कर पहनता है, वही उसकी फजीहत का कारण बनते हैं। यह कहानी दुनिया भर में मिथ्याभिमानी, अहंकारी, शोबाज शासकों के छद्म और पाखंड के खुलासे का रूपक है। कहानी के अंत में चाटुकारों के बीच से एक मासूम निष्पाप बच्चा बादशाह को उसकी असलियत से अवगत कराता है कि इस सारे आडंबर के नीचे राजा निर्वस्त्र है और उसकी नग्नता जगजाहिर है। सच्चाई से विमुख सत्ताधारियों की पोल खोलना जनता का फर्ज है और देश की सेवा भी!

राजनीतिक व्यक्तित्वों के कपड़े हमेशा चर्चा के विषय रहे। गांधी की बात करें तो उनकी वेशभूषा और खादी के साथ उनके प्रयोग ने भारतीय जनमानस पर एक अमिट छाप छोड़ी। खादी को गांधी ने केवल वस्त्र नहीं, विचार माना और जनता को संदेश देने का एक माध्यम भी बनाया। खादी उनके लिए भारतीयों की एकरूपता का, लालच के बजाय जरूरत पर आधारित जीवन शैली का, गरीब और अमीर के बीच सादगी के एक अटूट बंधन का प्रतीक थी। गांधी की वेशभूषा उनके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दर्शन का अभिन्न अंग भी थी। गांधी का जंतर भी सबसे गरीब और सबसे दबे-कुचले व्यक्ति की भलाई की प्रेरणा से काम करने की नसीहत देता है। इस परिप्रेक्ष्य में हमारे प्रधानमंत्रीजी को यह सूट रूपी भेंट स्वीकार करने और उसे धारण करने की प्रेरणा कम से कम गांधी के जंतर से तो नहीं मिली! हर सार्वजनिक अवसर पर गांधी का नाम जपने वाले हमारे प्रधानमंत्रीजी गांधी से ज्यादा मिस्र के शासक हुस्नी मुबारक से प्रभावित लगते हैं, जो अपने परिधानों पर अपना ही नाम लिखवाने के लिए प्रख्यात या फिर कहें कि कुख्यात रहे।

असल में बात यह है कि नुमाइश के शौकीनों के लिए पब्लिसिटी और तमाशा ही सबसे बड़ा दर्शन है। जो लोग सैकड़ों मीडियाकर्मी बुला कर, गलियारे में बैठ कर अपनी मां से आशीर्वाद लेते हैं, मां के प्रति अपनी भावनाओं की प्रदर्शनी लगाते हैं, उनसे तो नाम, ओहदे और ताकत की नुमाइश अपेक्षित है ही। हम नाहक ही आश्चर्यचकित हो रहे हैं। ऐसे लोगों के लिए आत्ममुग्धता और बड़ाई की खब्त कोई विकार नहीं, बल्कि जीवन का मूलभूत सिद्धांत है।

यों तो ‘कंडक्ट ऑफ मिनिस्टर्स’ का नियम यह है कि पांच हजार रुपए से ज्यादा मूल्य की औपचारिक भेंट करीबी रिश्तेदार के अलावा अगर कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री को देता है तो उनका दायित्व है कि वे उस तोहफे को या तो तोशाखाने में जमा करवाएं या बकाया राशि का भुगतान कर उसे खरीद लें। लेकिन यह सब तो दूर, हमारे प्रधानमंत्रीजी ने विवादित सूट का मूल्यांकन भी नहीं होने दिया! अपनी छवि को नीलाम होने से बचाने के लिए सूट की नीलामी करवा दी और वह भी गुजरात सरकार से! गौरतलब यह भी है कि आरटीआइ के जरिए पूछे गए एक सवाल के जवाब में भारत सरकार ने बताया कि दिल्ली के विज्ञान भवन में हुई ‘क्लीन गंगा मिशन’ की एक मीटिंग में तिरेपन लाख पचासी हजार रुपए खर्च हुए। एक तरफ भारत सरकार गंगा की सफाई के लिए आबंटित जनता का पैसा नृशंसता से बर्बाद कर रही है और दूसरी तरफ प्रधानमंत्रीजी सूट समेत तमाम उपहारों की नीलामी से एकत्रित धनराशि को गंगा की सफाई में इस्तेमाल करने की घोषणा करके अपनी दरियादिली का प्रमाण देना चाहते हैं।

कहा यह भी जा रहा है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा की करारी हार में इस सूट ने भी बड़ी भूमिका निभाई! यानी हमारे ‘नसीब वाले’ प्रधानमंत्रीजी के लिए यह सूट ‘अशुभ’ निकला! जी के जंजाल से पीछा छुड़ाने और अपनी आत्ममुग्धता को उदारता के रूप में प्रस्तुत करने के लिए प्रधानमंत्रीजी ने सभी कायदे-कानूनों की अवमानना करते हुए विवादित सूट की नीलामी का दांव चल दिया। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि ‘ये जो पब्लिक है, सब जानती है…!’ माफी मांगने पर भूल-सुधार का मौका देती है तो आंखों में धूल झोंकने पर पलटवार भी करती है।

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