अनिल हासानी 

एक पर्यटक की हैसियत से मैं पहले भी दिल्ली घूम चुका था, लेकिन चार साल पहले देश की राजधानी में रह कर नौकरी करने का वह मेरा पहला अनुभव था। एक अस्सी फीसद दृष्टि-बाधित व्यक्ति के लिए अकेले आकर दिल्ली में नौकरी करना बड़ी चुनौती थी। इसे मैंने अगले दो वर्षों के दौरान खूब महसूस किया। बाहर से आने वालों के लिए दिल्ली आगे बढ़ने के असंख्य अवसर प्रदान करती है। छोटे शहरों में रहने वालों के लिए दिल्ली कई मामलों में एक नया अनुभव देती है। मसलन, दिल्ली मेट्रो या फ्लाईओवर। यहां पर सस्ती से सस्ती और महंगी से महंगी वस्तुएं मिल सकती हैं, बशर्ते आपको पता होना चाहिए कि कहां क्या मिलेगा!

भारत सरकार के सभी मंत्रालय और मुख्यालय यहीं होने के कारण स्वाभाविक है कि दिल्ली में सरकारी बाबुओं की कोई कमी नहीं है। सरकारी नौकरी का जो रुतबा अपने खयालों में लिए जब छोटे शहरों से युवा आकर यहां विभिन्न कार्यालयों में योगदान शुरू करते हैं, तब उनका सामना वास्तविकता से होता है। कोई कठिन परीक्षा पास करने के बाद जब आॅफिस में आकर उच्च अधिकारियों की जी-हुजूरी करनी पड़ती है तो किसी की भी रचनात्मकता और आत्मसम्मान को थोड़ी ठेस जरूर पहुंचती है। निचले स्तर के कर्मचारी यह सोच कर बड़े अधिकारियों की डांट खा लेते हैं कि बेचारे अधिकारियों को भी कहीं से फटकार सुनने को मिलती होगी! कहा जा सकता है कि तंत्र में काम आने वाले दफ्तरों में हर ऊपर वाला अपने से नीचे वालों पर अपना अधिकार समझता है।

जहां तक दिल्ली की आम जनता का सवाल है, यह मानना पड़ेगा कि किसी भी दूसरे शहर की तुलना में दिल्ली की जनता सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर अधिक सजग दिखती है। भ्रष्टाचार के मसले पर आंदोलन से लेकर निर्भया बलात्कार के मामले पर जो जनाक्रोश उभरा था और दिल्ली की जनता जिस प्रकार सड़कों पर आकर न्याय के लिए सक्रिय दिखी थी, वैसा कम ही देखने को मिलता है। दिसंबर 2012 में मैं दिल्ली में ही था और व्यक्तिगत अनुभव से कह सकता हूं कि यही जनभागीदारी भारत की राजधानी की कुछ सकारात्मक बातों में से एक है। लेकिन जब सड़कों पर किसी वीआइपी, नेता या विदेशी मेहमान के गुजरने के वक्त रास्ते बंद कर दिए जाते थे, तो ऐसे नजारे एक लोकतांत्रिक देश में मुझे सामंतवाद का आभास कराते थे। सोचता हूं कि भ्रष्टाचार पर आक्रोशित लोग पता नहीं कब इस वीआइपी संस्कृति के खिलाफ एकजुटता दिखाएंगे।देश के किसी भी महानगर की तरह दिल्ली में भी दो भारत बसते हैं। किसी उच्चाधिकारी को जहां लटयंस जोन के भीतर दफ्तरों के आसपास आबंटित मकान मिल जा सकते थे, वहीं हमारे जैसों को बीस किलोमीटर दूर किसी इलाके में। इसके अलावा, दफ्तरों में पानी की बोतल, चाय की गुणवत्ता और कुर्सी के आकार हर तरीके से निचले पदों पर काम करने वाले लोगों को यह अहसास कराया जाता था कि वे कितने छोटे हैं। एक तरफ ठसाठस भरी हुई डीटीसी की बसें और दिल्ली मेट्रो होती हैं, जहां खड़े होने के लिए भी लोगों को संघर्ष करना पड़ता है, तो दूसरी ओर सड़कों पर दौड़ रही अधिकतर कारों में एक ही व्यक्ति बैठा होता है। शायद कार-पूलिंग या एक कार में आसपास के कुछ और लोगों के साथ सफर करना दिल्ली वालों की शान के खिलाफ है।

एक बात जिसने मुझे सबसे ज्यादा निराश किया, वह था दिल्ली के लोगों की हर बात का गालियों से शुरू होकर गालियों पर खत्म होना और महिलाओं या लड़कियों के प्रति दृष्टिकोण। हालांकि भोपाल से आने के कारण आम बोलचाल में गालियों का प्रयोग करते लोगों को देखना मेरे लिए नई बात नहीं थी, लेकिन दिल्ली वाले इस मामले में भोपाल से भी दो कदम आगे निकले। उनको पता ही नहीं चलता कि किस बात के साथ वे कैसे मां-बहन की गाली दे रहे हैं। व्यक्तिगत रूप से मैं किसी भी स्थिति में गालियां देने को गलत मानता हूं। आखिर आपसी बातों में मां-बहन की बेइज्जती क्यों करना! इसके अलावा, देश की राजधानी होने के बाद भी मानसिक रूप से लोग यह मानने को तैयार नहीं हैं कि लड़का और लड़की एक समान हैं। कुछ हद तक दिल्ली में लड़कियों के खिलाफ बढ़ते हुए अपराधों, खासतौर पर बलात्कार के पीछे अवचेतन में स्थापित यही पिछड़ी मानसिकता जिम्मेदार है।
बहरहाल, दिल्ली में सभी अच्छी-बुरी बातों के बावजूद यह मानना पड़ेगा कि मैंने दिल्ली आकर कुछ बहुत अच्छे दोस्त बनाए हैं और बहुत कुछ नया सीखा है। चार साल पहले जब मैं दिल्ली आया था और 2015 में जब यहां से गया, तो इस दौरान पहले से अधिक परिपक्व, आत्मविश्वासी और मजबूत इंसान बना। मेरे साथ अच्छा संयोग यह था कि आॅफिस में और बाहर मुझे अधिकतर सच्चे सहयोगी और मिलनसार लोग मिले और उनमें से अनेक आज मेरे बहुत अच्छे मित्र हैं।