सिनेमा हाल में फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजाया जाना किस उद्देश्य की पूर्ति करता है, इस पर विचार होना चाहिए। राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान करना हमारे मौलिक कर्तव्यों में शामिल है और इसमें कोई संदेह नहीं कि राष्ट्रगान और अन्य राष्ट्रीय प्रतीक हमेशा ही हमें देशभक्ति की भावना से सराबोर करते हैं। यह और बात है कि यह भावना 52 सेकंड तक ही रहती है। उसके बाद सब कुछ पहले जैसा चलता रहता है। वही निजी स्वार्थ, वही जुगाड़ू प्रवृत्ति और वही दान-दक्षिणा और चाय-पानी की आड़ में भ्रष्टाचार! ऐसे ही एक सिनेमा हाल में फिल्म शुरू होने ही वाली थी। लोग अपनी सीट तक पहुंचने की जद्दोजहद में थे, बच्चे इधर-उधर भाग रहे थे। तभी राष्ट्रगान प्रारंभ हुआ और सब सावधान की मुद्रा में आ गए। बच्चों ने थोड़ी हलचल की तो उनके मां-बाप स्वयं को शर्मिंदा महसूस करने लगे। भीड़ ने उन्हें गुस्से में घूरा कि कैसे नालायक, देशद्रोही बच्चे पैदा किये हैं! राष्ट्रगान खत्म हुआ। कुछ अति उत्साही लोगों ने भारत माता की जय के नारे लगाए। पर्दे पर शुरू होने वाली प्रेम कहानी से पहले माहौल देश प्रेम से भर गया।
फिल्म शुरू हुई। कुछ देर बाद नायक-नायिका के रूमानी दृश्यों को देखकर वीर रस वाले युवा शृंगार रस में चले गए और दूसरे दर्जे के दर्शक तीसरे दर्जे वाली भाषा में टिप्पणियां और कमेंटरी करने लगे। फिल्म खत्म होने के बाद वही लोग धक्का-मुक्की करते हुए बाहर निकले। फिर सड़क पर जाकर उन्हीं लोगों ने ट्रैफिक नियम तोड़े। यह सब करने वाले वही लोग थे जो अंदर राष्ट्रगान पर पूरे सम्मान के साथ सावधान की मुद्रा में खड़े थे। अब इसका दूसरा पहलू देखिए। सिनेमा हाल में कोई सरकारी कार्यक्रम नहीं होता है। यहां राष्ट्रगान पर खड़े होकर न तो कोई बड़ा देशभक्त बन जाएगा और न ही बैठे रहने से देशभक्ति कम हो जाएगी। ऊपर से हर तरह की, अर्थात घटिया फिल्मों से पहले भी राष्ट्रगान बजाना तो एक प्रकार से उसका अपमान ही है। राष्ट्र प्रेम की भावना तो भीतर से आनी चाहिए। वह प्रतीकों की मोहताज नहीं होती। सच्चा देश प्रेम अगर जाग जाए तो भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, सांप्रदायिकता आदि समस्याएं कब की खत्म हो जातीं। लेकिन उसमें मेहनत लगती है ना, पूर्वाग्रहों से बाहर निकलना और स्वार्थ त्यागना पड़ता है! राष्ट्रगान पर खड़े होना देशभक्त बनने का अपेक्षया आसान तरीका है।
’अनिल हासानी, ओम नगर, हलालपुरा, भोपाल</p>
संतई से दूर
आज देश में लोगों की अंधआस्था और व्यक्ति पूजा की प्रवृत्ति का तथाकथित संत भरपूर फायदा उठा रहे हैं। राम रहीम से लेकर आशा राम और रामपाल के तक के मामले इसका सबूत हैं। गांव के भोले-भाले मजदूरों और किसानों को आस्था और भक्ति के नाम पर बरगला कर ये तथाकथित संत उनके खून-पसीने की कमाई लूट कर उससे राजा-महाराजाओं जैसा अय्याशी भरा जीवन जी रहे हैं। साथ ही खुद को भगवान या उसका दूत बताते रहते हैं। ऐसे तथाकथित संतों के चरणों में सरकारें भी नतमस्तक रहती हैं और वोटों की खातिर बेगुनाह लोगों की जिंदगियां दांव पर लगा दी जाती हैं।
संतों की परंपरा बुद्ध, रविदास, कबीर, गुरुनानक और ज्योतिबा फुले आदि महापुरुषों से शुरू हुई थी। उन्होंने धर्म को जरिया बनाकर एक बेहतर समाज की नींव रखी और अपने सारे निजी सुख त्याग कर पूरा जीवन समाज को समर्पित किया। उन्होंने खुद को कभी भगवान और संत नहीं माना बल्कि आम जन ने उन्हें संतों की उपाधि दी थी।
’रामफल दयोरा, गांव दयोरा, कैथल, हरियाणा