संपादकीय ‘बिहार का गतिरोध’ (13 फरवरी) पढ़ कर एक ऐसे छात्र की कथा याद आ गई जो मैट्रिक की परीक्षा में गणित में बार-बार फेल हो रहा था। अगली बार की परीक्षा के लिए उसके अभिभावकों, मित्रों वगैरह ने फिर कड़ी मेहनत करने की सलाह दी। लड़के को भी बात समझ आ गई और उसने कड़ी मेहनत शुरू कर दी, इतनी कि परीक्षा के बाद प्रथम श्रेणी की उम्मीद करने लगा। मगर जब परिणाम आया तब वह फिर से गणित में फेल हो गया। लेकिन आत्मविश्वास से भरपूर उसने परीक्षाफल को चुनौती दे डाली। उसकी गणित की कॉपी का पुनर्मूल्यांकन हुआ और वह सचमुच प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण घोषित किया गया। इस पर परीक्षा बोर्ड ने पूर्व परीक्षक को तलब किया और स्पष्टीकरण मांगा। पूर्व परीक्षक ने अध्यक्ष से पूछा, सर सही जवाब दूं या ऑफिसियल? अध्यक्ष ने आॅफिसियल जवाब देने को कहा।
तब पूर्व परीक्षक ने बताया कि लड़के ने क्योंकि उत्तीर्ण होने लायक जवाब नहीं लिखा था, इस कारण मैंने उसे फेल कराया। ‘और सही जवाब?’ अध्यक्ष ने पूछा। तब पूर्व परीक्षक ने खुलासा किया, ‘सर मैं इस लड़के को अच्छी तरह जानता हूं। इस बार भी मैंने उसका विवरण हासिल कर लिया था और सोचा कि यह बार-बार फेल होता है इसलिए इस बार भी फेल ही होगा और मैंने आंख मूंद कर उसे फिर फेल करा दिया।’ परीक्षक की साफगोई से अध्यक्ष और परीक्षा बोर्ड काफी प्रभावित हुए और बिना कोई दंड दिए उन्हें छोड़ दिया।
कुछ-कुछ इसी तर्ज पर जनता दल (एकी), नीतीश कुमार और उनकी अन्य सहयोगी पार्टियों ने सोचा कि चूंकि केसरीनाथ त्रिपाठी मूलत: एक भाजपाई हैं इसलिए वे सही फैसला नहीं ले रहे थे; ये लोग यही तर्क प्रधानमंत्री के संदर्भ में देने लगे क्योंकि नरेंद्र मोदी (भी) एक कट्टर भाजपाई हैं। कितना हास्यास्पद है ऐसा तर्क! देश में सविधान है, नियम-कानून हैं, संसदीय प्रणाली और परंपरा है और स्वतंत्र न्यायपालिका है। नीतीश कुमार के पास अगर सचमुच बहुमत है तब उन्हें वर्तमान मुख्यमंत्री को अपदस्थ करने से कोई नहीं रोक सकता। लेकिन गड़बड़ी तब शुरू हुई जब उन्होंने समर्थक विधायकों की राजभवन और राष्ट्रपति भवन में परेड कराना शुरू कर दिया जबकि बहुमत का फैसला नियमत: सदन में ही होना था और है।
ई. माधवेंद्र तिवारी, छपरा
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