राजशेखर पंत
मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ की शुरुआत इस तरह से है- ‘रमजान के पूरे तीस रोज बाद ईद आई…।’ किस तरह ईद का आना कहानी के मुख्य पात्र हामिद के गांव के सूरज में एक नई रोशनी, नई उमंग भर देता है। उसकी बानगी आज भी जस की तस जिंदा है-कम से कम उस संस्थान में तो निश्चित ही, जहां मैं पिछले दो दशकों से कार्यरत हूं।
उत्तराखंड के एक पहाड़ी शहर के विशाल परिसर में फैला एक आवासीय स्कूल। साल के लगभग छह महीने कोहरे से ढंकी रहने वाली इस जगह का अतियथार्थवाद यहीं खत्म नहीं होता। दशकों पूर्व इस स्थान पर पड़ने वाली भयानक ठंड से घबराकर यह क्रांतिकारी कल्पना की गई थी कि क्यों न इस स्कूल में अध्यनरत अंतिम वर्ष के छात्रों को जाड़ों की छुट्टियों में किसी बड़े मैदानी शहर में ले जाया जाए। इससे नतीजा तो बढ़िया आएगा ही, साथ ही यहां के स्थायी कारिंदों की मानसिकता को शायद बदलाव मिल सकेगा। बसंत के आगमन के साथ ही फरवरी में वापसी होती है। शिशिर अध्ययन शिविर से लौटते हैं सब…
प्रेमचंद की कहानी के पंक्तियों के हिसाब से … पूरे तीस रोज बाद…। अचानक अवतरित होता है एक धुन्नी। धुन्नी यानी रजाई-गद्दे भरने की प्राचीनतम तकनीक का अकेला प्रतिनिधि! बांस की लकड़ी से बने एक बंदूक और एकतारे के बीच की शक्ल वाले आदिम यंत्र को लिए, जिसके दोनों सिरों के बीच ऊंट की आंत से बना एक तार ताना रहता है। उठी हुई एक चौखानी लुंगी और गाढ़े की सदरी पहने। डमरू की शक्ल में तराशे गए लकड़ी के एक वजनदार टुकड़े से अपने बंदूकनुमा यंत्र पर लगे तार पर नपे-तुले प्रहार करते हुए वह धुन्न-धुन्न की अवाज निकालता है, जैसे सार्थक कर रहा हो अपने पारंपरिक नाम को। मरे हुए ऊंट की आंत से बने तार की झंकार, नई-पुरानी साफ या गंदी कैसी भी रुई को तार-तार कर बिखरा देती है। धुन्नी का आना जाड़ों की ठिठुराने वाली वर्षा में नहा कर साफ-सुथरे हुए आम के पेड़ों की फुनगी में अचानक आ जाने वाले सुनहरे बौर के सुखद अहसास से कम नहीं होता।
और फिर हो भी क्यों न, धुन्नी का आना संकेत होता है इस बात का कि शिविर अब समाप्त होने वाला है। महीने की गिनी-गिनाई तनख्वाह के अलावा मिलने वाले मानदेय की मोटी रकम बस अब हाथों से कुछ ही दूर है। मानदेय मिलने की खुशी और धुन्नी का आना। पहाड़ों में मार्च-अप्रैल तक खिंचने वाली ठंड का अहसास रहता है सभी को। वहां जा कर, उस पहाड़ पर रजाई-गद्दा बनवाया जाएगा तो कपड़ा और रुई काफी महंगी मिलेगी, जब कि यहां पटरी पर लगने वाले बुध-बाजार की सुविधा शिविर के पास ही उपलब्ध है। इस खरीदारी के लिए पहाड़ की चोटी से शहर तक आने जाने का खर्च लगभग पांच सौ रुपया।
अगर स्कूल के काम से नीचे शहर गई सरकारी गाड़ी किसी कारण से नहीं मिली तो बारह-चौदह किलो के गद्दे और कम से कम छह किलो की रजाई को ऊपर पहाड़ की चोटी तक लाने का खर्चा यानी एक और पांच सौ रुपए। इस तरह से कुल मिला कर हजार पांच सौ रुपए का फालतू खर्च। और फिर वहां पहाड़ पर कौन सा धुन्नी बैठा है, वहां तो मशीन से धुनाई होगी। यानी कि हाथ से धुन्नी द्वारा धुनी गई रुई के गद्दे-रजाई में सोने के पारंपरिक और सांस्कृतिक सुख के जबरन बलिदान का अफसोस अलग से…। यहां धुन्नी है। शिविर की विशाल छत पर अपना यंत्र टांगे, धुन्न-धुन्न करता हुआ। उसे, बाकायदा उसके सहायक कारिंदों के साथ छत से उतार कर स्कूल की मैस में ब्रेकफास्ट से लेकर डिनर तक जिमाने का पूरा इंतजाम चतुर्थ श्रेणी के इफरात से उपलब्ध कर्मचारियों द्वारा किया जा रहा है। इस आवभगत से अभिभूत वह चाहने के बावजूद ज्यादा कीमत नहीं वसूल सकता। रजाई-गद्दे को बाकायदा तहा कर बड़ी शालीनता से उसके द्वारा दरवाजे तक पहुंचाने का सुख अलग से। और वह भी इन मीठे शब्दों के साथ- साहब लीजिए…।
भविष्य की योजना के आधार पर मानदेय का हर हकदार फटाफट गद्दे-रजाइयों की संख्या तय करने लगता है। और फिर धुन्नी के पास उसकी उम्मीद के मुताबिक आर्डरों का ढेर लग जाता है। उस आयताकार इमारत की विशाल छत, जहां शिविर लगा करता है, गूंजने लगती है धुन्नी के गांडीव की सतत टंकार। धुन्न-धुन्न…धुन्न…धुन्न । इस इमारत के सबसे ऊपरी छत पर बरामदे में लगने वाली कक्षाएं पढ़ा रहे अध्यापक बंधु बीच-बीच में एक नजर उठा कर उसे देख लेने से खुद को रोक नहीं पाते।
एक आमंत्रण है इस धुन्नी की धुन्न-धुन्न में, जो न जाने कितने दशकों से छब्बीस जनवरी के आसपास हर साल इस अध्ययन-शिविर में आ जाता है। बसंत में बहने वाली हवा में डूबता-उतराता। यह धुन्न-धुन्न टंकार भी है कुरुक्षेत्र में कभी-कभार गूंजने वाले उस गांडीव की जो हर मास्टर को याद दिलाती है कि जीवन सिर्फ किसी अटके हुए रिकार्ड में बार-बार बजने वाली किसी पुराने गाने की एक पंक्ति भर नहीं, कुछ और भी है। ‘मास्टरी’ के पेशे में, जिसे कोई भी अक्सर कुछ और न करने की स्थिति में ही अपनाता है, आमतौर पर उपजी यह ग्रंथि कि मैं यहां फंस गया, धुन्नी की धुन्न-धुन्न में धुंधलाने लगता है। चौखानी लुंगी और मैली सी सदरी पहने वह जब अपनी धुन में होता है तो जैसे संदेश दे रहा होता है कि गांठ और वर्षों से जमी धूल और गंदगी को इधर-उधर छिटका कर खुशनुमा पलों को रेशा-रेशा कर संभाला और संवारा जा सकता है। ०