देश में अपराध और दुराचार का ग्राफ दिल्ली सहित दूसरे राज्यों में लगातार बढ़ रहा है। यह मानना है राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो का। अपराधियों पर नकेल लगाने के सरकारी दावे थोथे हैं। हालात यह हो गई है कि अपराध और दुराचार उन इलाकों में भी बढ़ रहे हैं जहां पहले बहुत कम हुआ करते थे। जैसे गांव और छोटे कस्बों में। वे शहर जो अपनी विशेष संस्कृति और कला के रूप में जाने पहचाने जाते थे, वहां हत्या, यौन-दुराचार जैसे संगीन अपराधों में इजाफा हो रहा है। थोड़ा सा अतीत में झांकें तो इसका कारण भी समझ में आ जाता है। जानकार मानते हैं कि समाज में बढ़ रहा अपराध काफी-कुछ हमारे विकास के मॉडल से जुड़ा हुआ है।

बहुराष्ट्रीय व्यापार-संस्कृति के आने से देश में समृद्धि का माहौल तो बना है। लेकिन, कहते हैं कि कोई भी तकनीक या मॉडल अपने साथ अपनी संस्कृति भी लेकर आती है। स्वदेशी, स्वालंबन और शाकाहार गांधी के विकास के मॉडल थे। इसके उलट हमारे देश में तकनीक आधारित और तीव्रगति के मॉडल को चुना गया है। विकास के नाम पर देश को पश्चिमी देशों की बहुराष्ट्रीय निगमों के हवाले कर दिया गया। पिछले 20 सालों में साल-दर-साल भारतीय समाज में अश्लीलता बढ़ी है। समाज जिन विद्रूपताओं, बुराइयों और अपराधों की गिरफ्त में आ चुका है उसको बढ़ाने में बहुराष्ट्रीय साम्राज्यवाद के मॉडल की भूमिका अहम है। विज्ञापनों, फिल्मों और सीरियलों के जरिए हिंसा, बलात्कार, आतंक और स्वार्थपरता के नए सूत्र प्रचलित हुए हैं। देश में बेरोजगारी, झगड़े-फसाद, सांप्रदायिकता और जात-पांत जैसी समस्याएं नए रूपों में पनपी हैं।

सरकारी आंकड़े भी बताते हैं कि गैरबराबरी, निरंकुशता, क्रूरता, शोषण और जुल्म पिछले बीस सालों में सबसे ज्यादा बढ़े हैं। सबसे ज्यादा चिंताजनक हैं बलात्कार के मामले। अश्लील विज्ञापनों और नग्न प्रदर्शनों ने समाज में आजादी नहीं, व्यभिचार को बढ़ाया दिया है। रातोंरात धन कमाने की लिप्सा ने समाज में अपराधियों की एक बड़ी जमात ही खड़ी कर दी है। प्रशासन, समाज रक्षक समितियां और समाज सेवकों की भूमिका कारगर नहीं बन पा रही है। समाज विरोधी और अपराधी तत्त्वों पर समाज का दबाव खत्म हो गया है। आजादी और लोकतंत्र के नाम पर उद्दंडता, अश्लीला, कामुकता और फरेब जैसी विकृतियां का बोलबाला हो गया है। यह सब भूमंडलीकरण के नाम पर हो रहा है।

आंकड़ों के मुताबिक देश में हर पंद्रह सेकेंड में कोई न कोई अपराध जरूर घटित होता है। इसमें बलात्कार, दहेज-हत्या और पारिवारिक जुल्म आदि शामिल हैं। इसी तरह हर तीस मिनट में एक लूट और हर बारह घंटे में एक डकैती की घटना होती है। तीन सालों में महिलाओं के प्रति अपराध सबसे ज्यादा बढ़े हैं। खासकर, दिल्ली में महिलाएं सबसे अधिक प्रताड़ित और विभिन्न मामलों में शोषित हुई हैं। कहा जाने लगा है कि दिल्ली अब महिलाओं के लिए सुरक्षित जगह नहीं है। अनुमान लगाया जा सकता है कि जब दिल्ली में महिलाओं की यह स्थिति है तो देश के दूसरे शहरों और कस्बों में क्या हाल होगा। बच्चों के प्रति जो अपराध बढ़ रहे हैं, उनमें भी दिल्ली का नंबर पहले स्थान पर है।

एक सर्वेक्षण के मुताबिक दिल्ली के 76 प्रतिशत लोग मानते हैं कि दिल्ली पुलिस अपराध रोकने में अक्षम है। पुलिस ज्यादातर अपराधों को चुपचाप देखती रहती है। आए दिन जिस तरह की हैरत में डालने वाली घटनाएं घट रही हैं, उससे यह बात सच साबित हो रही है कि अपराधों को रोकने में न तो पुलिस सक्षम दिखती है और न तो समाज के जिम्मेदार लोगों की पहल ही इस दिशा कारगर होती दिख रही है। आंकड़े बताते हैं कि पुलिस की मिलीभगत से ही अपराधियों को अपराध करने के लिए खाद, पानी और ऊर्जा मिलती है। दंड विधान यानी कानून इतना लचीला है कि ज्यादातर अपराधी छूट जाते हैं या उन्हें सजा इतनी देर में मिलती है कि उसका कोई मतलब ही नहीं रह जाता है। इसलिए अपराधियों के हौसले निरंतर बढ़ते रहते हैं।

पुलिस का मानना है कि समाज में कानून-व्यवस्था कायम रखना उसके लिए सबसे जरूरी है। लेकिन वह जनता की सुरक्षा की दुहाई देकर ऐसे भी काम कर डालती है जो जनता के हित में नहीं होते हैं। पुलिस की लापरवाही का ही नतीजा होता है बड़े से बड़े अपराधी इसलिए बरी कर दिए जाते हैं कि उनके खिलाफ पेश किए सबूतों में दम नहीं होता।

एक आंकड़े के मुताबिक, एक पुलिस अफसर जहां साल में तकरीबन सौ मामलों की जांच करता है, वहीं पर केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) का अधिकारी दौ सौ से ज्यादा मामलों को देखता है। मतलब पुलिस से ज्यादा सीबीआई के ऊपर काम का दबाव है। इसलिए अपराधों की जांच और अपराधियों को दंड दिलाने में जितना पुलिस विभाग कामयाब हो सकता है, उतनी सीबीआई नहीं। जरूरत इस बात की है कि पुलिस विभाग का नए सिरे से सुधार किया जाए। जब तक भारत की पुलिस नहीं सुधरती, अपराध कम होने का सवाल ही नहीं उठता है।

एक बात जो और भी महत्त्वपूर्ण है, वह है अपराधों को बढ़ाने और अपराधियों को अपने स्वार्थ में संरक्षण देने की नेताओं की पहल। जब तक नेताओं का रवैया इस मामले में पाक-साफ नहीं होगा, तब तक अपराध को रोक पाना कठिन है। मतलब अपराध रोकना है तो पुलिस, सीबीआई, नेता और प्रशासन चारों में सुधार जरूरी है। साथ ही समाज को भी ऐसे अपराधियों को शरण देने से गुरेज रखना चाहिए जो जहरबाद और नासूर साबित हो रहें हों। (अखिलेश आर्येंदु)