साहित्य अगर समाज का दर्पण है, तो भाषा उस दर्पण की आत्मा होती है, जिसके आधार पर समाज के वर्तमान के साथ उसके अतीत को समग्रता में विवेचित किया जा सकता है। समाज की आंतरिक संरचना भाषिक प्रयोगों में इस तरह से रची-बसी होती है कि उसका प्रभाव भाषिक संरचना में बना रहता है और उसके प्रतीक समकालीन प्रयोग की भाषा में भी वर्षों बाद अवशेष की तरह सामने आते रहते हैं। हालांकि ऐसे में जब विखंडनवाद के रास्ते प्रतीकों और उनसे जुड़े अर्थ के संबंधों पर एक लंबी बहस हो चुकी हो, तब देश में उस पर इस समय बात करना इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि वर्तमान समय में भाषिक प्रतीकों के बहाने समाज में निहित उस भावना पर बात हो सके, जो आज भी गैर-बराबरी के विभिन्न धरातलों को मजबूत कर रही है, जबकि ऐसे प्रयोगों के उदाहरण भाषिक चयन के फलस्वरूप प्रयुक्त मुहावरों और रूपकों के माध्यम से समाज में लगातार प्रयोग में हैं।
गौरतलब है कि लोकोक्तियां, मुहावरे और इन जैसे अनेक शैलीगत या व्यक्तिगत भाषिक प्रयोग महज कुछ दिन या कुछ सालों के परिणाम नहीं होते, बल्कि सदियों के प्रयोगों और मान्यताओं से सिंचित और पोषित होते हैं और उसी तरह एक दिन में उनसे मुक्ति पाना भी आसान नहीं होता। यही कारण है कि समाज के प्रयोगों में ‘हमने कोई चूड़ियां नहीं पहनी है’ जैसे प्रयोग आसानी से मिल जाते हैं। यही नहीं, समाज के नेतृत्व का दावा करने वाली आज की लोकप्रिय भी राजनीति में किसी महिला नेता को भी अपने विरोधी को चूड़ी का उपहार देते हुए देखा जा सकता है, वह भी सिर्फ इसलिए कि विरोधी पुरुष नेता को जेंडरगत रूपकों के माध्यम से नीचा दिखाया जा सके। यह सही है कि समाज में चूड़ी सिर्फ महिलाएं पहनतीं हैं, लेकिन यह कहां तक सही है कि महिलाएं पुरुषों से कमतर होती हैं। क्या हमारे इतिहास की वीरांगनाएं चूड़ी नहीं पहनती रही होंगी? क्या चूड़ी पहनने मात्र से यह तय हो जाएगा कि वे हाथ बेलन उठाएंगे या तलवार? क्या बेलन और तलवार को जेंडरगत पहचान से जोड़ना उचित है?
दरअसल, यही भारतीय समाज का वह स्याह पक्ष है, जिससे आसानी से सिद्ध होता है कि हम सब पितृसत्तात्मक रहे हैं और अगर उक्त प्रयोग करते हैं, तो हम उसी विरासत को सींच रहे होते हैं। ऐसा नहीं कि पुरुष चूड़ी नहीं पहनते, लेकिन उसे ‘चूड़ी’ स्वीकार नहीं करते, बल्कि उसे जेंडरगत पहचान से निकाल कर उसका पुल्लिंग रूप ‘चूड़ा’ कहते हैं, ताकि गहने से स्त्रीगत पहचान मिटाई जा सके। इस क्रम में चूड़ी और कंगन के संबंध को भी समझा जा सकता है। इनमें एक साम्य तो यह है कि दोनों स्त्रियों के पहनावे हैं, लेकिन वैषम्य यह है कि कंगन अपनी बनावट में चूड़ी से मजबूत होता है, इसलिए न सिर्फ वह पुल्लिंग शब्द है, बल्कि कभी कमजोर दर्शाने की अभिव्यक्ति के साथ नहीं आता है। बल्कि ‘हाथ कंगन को आरसी क्या’ में यह विश्वसनीयता का संदर्भ लिए हुए है।
हमारी भाषाओं में ऐसे सैकड़ों शब्द मिल जाएंगे, जिनमें उनकी लिंगगत पहचान में स्त्रीलिंग और पुल्लिंग के मध्य के विभाजन का तर्क सिर्फ यह होता है कि स्त्रीलिंग वाले शब्द तुलनात्मक रूप कमजोर, छोटा, लचीला जैसे लोक-व्याप्ति के न्यूनतर क्षमता वाले शब्द होते हैं, जबकि पुल्लिंग वाले शब्दों का अर्थबोध यह बताता है कि ये शब्द स्त्रीलिंग वाले शब्दों की तुलना में मजबूत, बड़ा, कठोर और उपयोगी जैसी अतिरिक्त क्षमता को अभिव्यक्त करने वाले शब्द होते हैं, जैसे- खेत-क्यारी, पेड़-लता, डाल-डाली, थाल-थाली, दरवाजा-खिड़की, पुल-पुलिया, मेज-कुर्सी आदि। हालांकि इसमें हाथी और मूंछ जैसे कुछ शब्द अपवाद भी हैं, क्योंकि हाथी की विशालता के बरक्स ‘हाथी’ शब्द अपने प्रकृति में स्त्रीलिंग जैसा प्रतीत होता है, जबकि पुरुष के पौरुष की प्रतीक ‘मूंछ’ वास्तव में स्त्रीलिंग होती है। चाहे ‘मूंछ की लाज’ बचाने की कितनी भी कीमत क्यों न हो।
भारतीय समाज के व्यापक तबके में सत्ताई घृणा का जेंडर और जाति एक का बड़ा आधार रहा है, इसलिए भाषा में इसकी छाप स्पष्ट दिखाई देती है। लोकोक्तियों और मुहावरों में इसके प्रयोग प्रमाण हैं, जैसे- ‘पैसा ही पुरुषत्व और पुरुषत्व ही पैसा है’ में सत्ता का एक मजबूत आधार ‘पैसा’ की तुलना ‘पुरुषत्व’ से की गई है और ऐसे में यहां ‘स्त्रीत्व’ के लिए स्थान नहीं होगा। इसी तरह ‘कहां राजा भोज कहां गंगू तेली’ में ‘गंगू’ की ऐसी स्थिति की जिम्मेदार उसकी जाति है, कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं। दूसरे, राजा के सामने खड़ा होने से वह सिर्फ दया का पात्र हो सकता है। वैसे भी राजवंश में तो राजा के सामने कोई प्रजा खड़ा नहीं हो सकती थी, तो ‘गंगू तेली’ तो अनिवार्यत: राजा के सामने खड़ा होने लायक नहीं रहा होगा। आगे बढ़ने पर ‘चोरी-चमारी’ जैसे प्रयोग आसानी से मिल जाते हैं, जिसमें एक अपराध को जातिगत प्रवृत्ति के समतुल्य बताया जाता है। इस क्रम में इतिहास, मिथकों या लोक-प्रयोगों के अनेक पात्र या प्रसंग भी सामने आते हैं, जिनकी छवि को या तो एक खास ढांचे में बंद कर दिया गया है या किसी के प्रति दुराग्रह का भाव अभिव्यक्त होता है, जैसे- कुंभकरण, विभीषण, नारद, जयचंद, धोबी का कुत्ता, विधवा-विलाप, अंधा राजा आदि प्रयोग न सिर्फ कभी सत्ताई पृष्ठभूमि की दृष्टि से गढ़े गए, बल्कि आज भी इनके प्रयोग से एक समानांतर संदेश संप्रेषित होता है। हालांकि इसके गढ़ने में निश्चित रूप से सत्ताई भागीदारी रही होगी, लेकिन इनके प्रयोग वर्तमान समाज में भी होते हैं, जिनमें इनके मूल अर्थ-छवि से अनभिज्ञ किसी प्रयोगकर्ता की स्थिति को तो समझा जा सकता है, लेकिन ये प्रयोग आज के लोकतंत्र में विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं से मुंह से सुनना नि:संदेह चिंता पैदा करने वाला है।
सत्ता अपने लिए एक परिधि बनाती है और इसके अंदर एक उच्चता का बोध बनाए रखने के लिए लगातार न सिर्फ परिधि को मजबूत बनाती है, बल्कि उसमें नए मूल्यबोध स्थापित करती रहती है। चूंकि देश में सत्ता के केंद्र में सवर्ण जातियां और पुरुष रहे हैं, इसलिए भाषाई संरचना पर इसका प्रभाव दिखना स्वाभाविक ही है। जैसे- परिवार में पति को पत्नी का स्वामी माना गया और इसी की सादृश्यता में राष्ट्र का स्वामी को ‘राष्ट्रपति’ शब्द दिया गया। वैसे भी सत्ता के नियामक पदनाम प्राय: पुरुष केंद्रित ही मिलते हैं, जैसे- चेयरमैन, स्पीकर, अध्यक्ष, सभापति, मंत्री आदि। यद्यपि आज यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि लोकतंत्र परिपक्व हो रहा है, जहां वंचित तबकों के लोग भी अब शीर्षस्थ पदों पर पहुंच रहे हैं, लेकिन भाषाई संरचना इस परिपाटी के इतिहास को अपने साथ बचा कर रखी है। इसलिए महिला होने के बावजूद वह ‘पति’ ही बनी रहती है। हालांकि एक तर्क यह भी दिया जाता है कि पदनामों का कोई जेंडर नहीं होता। अगर कुछ समय के लिए यह तर्क सही भी मान लिया जाए, तो सवाल है कि ये पदनाम अनिवार्य रूप से पुरुषवाचक ही क्यों हैं? असल में व्यवस्था-निर्माण के समय संभवत: यह सोचा भी नहीं गया कि कोई महिला भी कभी इन पदों पर आ सकती है। लोक-प्रयोग की व्याप्ति इतनी सरल और निष्कलंक है कि वंचितों को वास्तव में जब उनका स्थान मिल जाएगा, तब शायद भाषा में उसको स्थान मिल जाए अन्यथा इतिहास की गलतियां वर्तमान में सामने आती रहेंगी।