तमिलनाडु राज्य के विरुधुनगर जिले के शिवकाशी और आसपास के गांवों में नीरतिलिंगम जैसे पटाखा कारखानों में विस्फोट होना आम बात है। शिवकाशी में देश के लगभग 90% पटाखों बनते हैं और कंडियाराम्मल और पालपांडे (दक्षिण भारत के कई अन्य लोगों की तरह, दोनों केवल अपने पहले नाम का उपयोग करते हैं) जैसे लगभग 1,00,000 श्रमिकों को रोजगार मिलता है।

अपनी व्यावसायिक सफलता के बावजूद, शहर के पटाखा कारखाने भारत में काम करने के लिए सबसे खतरनाक जगहों में से एक हैं। हालांकि मजदूरों की मौतों के आंकड़े कम हैं, लेकिन केंद्र सरकार के पेट्रोलियम और विस्फोटक सुरक्षा संगठन की 2023-2024 की वार्षिक रपट के अनुसार, तीन अप्रैल, 2023 से 28 मार्च, 2024 के बीच देश भर में 36 पटाखा निर्माण दुर्घटनाओं में 91 लोगों की मौत हुई। लेकिन कुछ मीडिया खबरों में 2023 और 2024 सिर्फ छह महीनों में 76 मौतें गिनाई गईं।

शिवकाशी क्षेत्र में पटाखा फैक्ट्री पीड़ितों की सहायता करने वाले एक छोटे से गैर-सरकारी संगठन, ह्यूमन रिसोर्स फाउंडेशन के निदेशक और सामाजिक कार्यकर्ता विजय कुमार कहते हैं, हर साल कम से कम 50-100 लोग आतिशबाजी दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं। कुमार बताते हैं कि सरकारी गणना में केवल निर्माण स्थल पर मारे गए लोगों को ही शामिल किया जाता है, लेकिन कुछ मजदूर जलने से हफ्तों, महीनों और यहां तक कि कई साल बाद भी मौत के मुंह में समाते हैं।

शिवकाशी और उसके आसपास के इलाकों में फैले कई पटाखा कारखानों में अनिश्चितता काम का हिस्सा है। हर दिन, कारखाने की छत के नीचे चांदी जैसे दिखने वाले एल्युमीनियम पाउडर, पोटेशियम नाइट्रेट, सल्फर और अन्य रसायनों की बोरियां हाथ से मिलाई जाती हैं। दोपहर के भोजन के समय तक, इस काम को करने वाले मजदूर सिर से पैर तक चांदी की धूल की एक महीन परत से ढक जाते हैं। ये रसायन खतरनाक हैं, फिर भी उन्हें कोई विशेष सुरक्षा प्रशिक्षण, सुरक्षात्मक उपकरण या दस्ताने तक नहीं दिए जाते।

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मजदूर अपनी नौकरी के खतरों के बारे में नहीं सोचते,क्योंकि वहां उन्हें जो पगार मिलती है, वह कहीं ज्यादा होती है। महिला मजदूरों ने पटाखा फैक्ट्री में काम करना इसलिए चुना क्योंकि उन्हें औसत नर्सिंग वेतन से दोगुना वेतन मिल रहा था। फैक्ट्री में उन्हें प्रतिदिन 500 रुपए मिलते हैं। शिवकाशी में अधिकतर मजदूरी आसपास के गांवों से आए अप्रशिक्षित लोग अनौपचारिक रूप से करते हैं। कई लोग रविवार सहित हर दिन सुबह आठ बजे से शाम छह बजे तक 10 घंटे की पाली में काम करते हैं। कानून के अनुसार, रसायन मिलाने वाले मजदूरों को दूसरों से अलग, एक अलग शेड में काम करना चाहिए। उन्हें एक दरवाजे के पास तैनात किया जाना चाहिए ताकि विस्फोट होने पर वे जल्दी से निकल सकें।

हालांकि, हकीकत में, अक्सर दूसरे मजदूरों को भी मिश्रित शेड में तैनात कर दिया जाता है, जिससे हालात न सिर्फ तंग और असुविधाजनक हो जाते हैं, बल्कि खतरनाक भी हो जाते हैं। यहां तक कि लाइसेंस प्राप्त पटाखा कारखाने भी अपने परिसर में अनधिकृत शेड बना सकते हैं, ताकि कानूनी अनुमति से ज्यादा पटाखे बनाए जा सकें। एक रपट में दर्ज कई घातक पटाखा विस्फोट और आग की घटनाएं अनधिकृत कारखानों से जुड़ी थीं।

उदाहरण के लिए, अक्तूबर 2023 में शिवकाशी के मंगलम गांव में एक विस्फोट एक अनधिकृत शेड में हुआ था, जिसमें 13 लोगों की मौत हो गई थी। यहां तक कि लाइसेंस प्राप्तकारखाने भी नियमों की अनदेखी करते हैं। जुलाई 2023 में बंगलौर के अट्टीबेले में एक पटाखा दुकान में विस्फोट हुआ, जिसमें 13 मजदूरों मर गए थे। इस दुकान का 505 वर्ग मीटर क्षेत्रफल अधिकतम 25 वर्ग मीटर की सीमा से कहीं ज्यादा था और इसमें भंडारण और निर्माण दोनों का काम शामिल था, जो नियमों के विरुद्ध है।

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कोई भी वास्तव में नहीं जानता कि 340,000 की आबादी वाले इस शिवकाशी शहर के झाड़ियों वाले इलाकों में कितने कारखाने चल रहे हैं। शिवकाशी की अर्थव्यवस्था भी माचिस निर्माण और छपाई पर निर्भर करती है, लेकिन आतिशबाजी उद्योग यहां प्रमुख है, जो हर साल 50,000 टन पटाखे बनाता है और अनुमानित वार्षिक राजस्व 60 मिलियन डालर है। आधिकारिक तौर पर, 2022 में पूरे तमिलनाडु में 1,434 पंजीकृत आतिशबाजी कारखाने थे, लेकिन यह संख्या लगभग निश्चित रूप से कम है। इंटरनेशनल जर्नल आफ रिसर्च एंड एनालिटिकल रिव्यूज में 2023 के एक लेख में यह संख्या 8,000 बताई गई है।

निर्माण प्रक्रिया छोटे-छोटे साधारण खुले कमरों की एक शृंखला में होती है—जिनमें सीमेंट के फर्श, नंगी ईंटों की दीवारें और एस्बेस्टस (एक सस्ता और आसानी से उपलब्ध पदार्थ) की छत होती है। कुछ बड़े कारखानों के विशाल परिसरों में 40 से 50 छत तक होती हैं। प्रत्येक छत एक छोटा कमरा होता है, जहां पटाखे बनाने की प्रक्रिया का एक हिस्सा पूरा होता है। रसायनों को हाथ से मिलाया जाता है। फिर उन्हें हाथ से दबाकर छर्रों में ढाला जाता है और ऊपर से रंग और चमक प्रदान करने वाले रासायनिक लवण डाले जाते हैं।

उदाहरण के लिए, नीली चिंगारी के लिए तांबे के लवण और हरी चिंगारी के लिए बेरियम लवण मिलाए जाते हैं। अंत में, बत्ती में छेद करके पटाखे को सील कर दिया जाता है। सभी आतिशबाजियों का मूल बारूद होता है, जिसे काला पाउडर भी कहा जाता है। चीन में एक हजार साल पहले बनने के बाद से इसकी विधि लगभग एक जैसी ही रही है : 75% साल्टपीटर या पोटेशियम नाइट्रेट होता है, जो एक आक्सीकरण एजंट है और वह पटाखों की सामग्री को जलाने में मदद करता है। 24% तक एल्युमीनियम पाउडर होता है, जो विस्फोट, चमक और रंग पैदा करता है। चटख रंग बनाने के लिए धातु के लवण मिलाए जाते हैं। हर आतिशबाजी कारखाने की अपनी अलग-अलग विधियां होती हैं, जिनसे अलग-अलग प्रकार की आतिशबाजी बनाई जाती है।

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पटाखा कारखानों में विस्फोटों का कारण अक्सर स्पष्ट नहीं होता। एक रपट के अनुसार, बिजली गिरने, रसायनों का गलत इस्तेमाल, धूम्रपान, मोबाइल फोन का इस्तेमाल और ढीले बिजली के कनेक्शन, ये सभी विस्फोटों का कारण बन सकते हैं। पटाखों के पाउडर में मौजूद आक्सीडाइजर और ईंधन गर्मी और स्पर्श के प्रति संवेदनशील होते हैं। अगर इन्हें आपस में रगड़ा जाए, तो उत्पन्न गर्मी से चिंगारी निकल सकती है और विस्फोट हो सकता है—जिसे घर्षण-प्रेरित प्रज्वलन कहते हैं।

शिवकाशी के सरकारी अस्पताल में जलने के इलाज में विशेषज्ञता रखने वाले प्लास्टिक सर्जन अरुण कुमार कहते हैं कि नीरथलिंगम फायरवर्क्स में विस्फोट शिवकाशी में असामान्य नहीं हैं। वहां, वे साल में कम से कम 40 मामले देखते हैं, और पीड़ितों को ठीक होने में कई साल और कई सर्जरी लग सकती हैं। वे कहते हैं कि पीड़ितों को आमतौर पर शुरुआत में उनके नियोक्ता तब तक सहारा देते हैं जब तक वे खतरे से बाहर नहीं हो जाते। लेकिन बाद के वर्षों में देखभाल के लिए उन्हें अक्सर खुद पर निर्भर रहना पड़ता है।

इसके अलावा, जलने के शिकार लोगों में कालिख अंदर चली जाती है। कार्बन फेफड़ों पर जम जाता है, जिससे गंभीर श्वसन संबंधी समस्याएं पैदा होती हैं। और उन्हें बैरोट्रामा से भी जूझना पड़ता है—एक ऐसी चिकित्सीय स्थिति जो हवा या पानी के दबाव में अचानक बदलाव के कारण होती है और आंखों, कानों, साइनस, फेफड़ों और अन्य अंगों को नुकसान पहुंचा सकती है।