महात्मा गांधी के जीवन और विचार को इस लिहाज से भी देखने-समझने की जरूरत है कि उनके साथ चलने वाले लोग कौन थे और कैसे थे। ऐसे लोगों की चर्चा अक्सर कुछ गिनती के नामों तक जाकर ठहर जाती है जबकि यह शृंखला बड़ी है। इस शृंखला की एक बड़ी कड़ी हैं अमृतलाल ठक्कर, जिन्हें हम ‘ठक्कर बाप्पा’ के नाम से ज्यादा जानते हैं। उन्होंने अपने जीवन को सेवा का पर्याय बनाकर भारतीय समाज के सामने एक प्रेरक और अनुकरणीय आादर्श रखा। उनकी सेवा-भावना का स्मरण करते हुए डा राजेंद्र प्रसाद ने कहा था, ‘जब-जब निस्वार्थ सेवकों की याद आएगी, ठक्कर बाप्पा की मूर्ति आंखों के सामने आकर खड़ी हो जाएगी।’

उनका जन्म 29 नवंबर, 1869 को गुजरात में काठियावाड़ के भावनगर में हुआ था। उनके पिता विट्ठलदास लालजी ठक्कर एक साधारण व्यक्ति थे। पर न सिर्फ अपने पुत्र बल्कि पूरे समाज के बच्चों की शिक्षा की ओर उनका विशेष ध्यान था। पिता की सेवावृत्ति का प्रभाव ठक्कर बाप्पा के जीवन पर भी पड़ा था। उस समय समाज में छुआछूत का काफी प्रसार था। बाप्पा के अंदर इसके प्रति विरोध का भाव बचपन में ही पैदा हो चुका था।

उन्होंने छात्रवृत्ति मिलने पर पुणे से इंजीनियरिंग की परीक्षा पास की थी। उन्होंने कुछ समय तक शोलापुर और भावनगर में रेलवे की नौकरी की। पर अन्य अधिकारियों की भांति रिश्वत न लेने के कारण वे अधिक समय तक इस नौकरी में नहीं रह सके। फिर ठक्कर बाप्पा ने बढ़वण और पोरबंदर में काम किया। युगांडा (अफ्रीका) जाकर एक रेलवे लाइन बिछाई। लौटने पर कुछ दिन सांगली राज्य में नौकरी करने के बाद उन्हें मुंबई नगरपालिका में उस रेलवे में काम मिला जो पूरे शहर का कचरा बाहर ले जाती थी। वहां ठक्कर बाप्पा ने देखा कि कूड़ा उठाने का काम पाने के लिए भी रिश्वत देनी पड़ती है। इससे उनके अंदर हरिजनों की सेवा का भाव और भी जाग्रत हुआ।

ठक्कर बाप्पा ने 1914 में ‘भारत सेवक समाज’ के संस्थापक गोपालकृष्ण गोखले से समाज सेवा की दीक्षा ली और जीवनपर्यंत लोकसेवा में ही लगे रहे। उनके जीवन पर महात्मा गांधी का भी गहरा असर था। हरिजन उद्धार और खादी के प्रसार का कार्य उन्होंने महात्मा के रचनात्मक कार्यक्रमों से प्रभावित होकर ही किया। उन्होंने काठियावड़ में खादी के कार्य को आगे बढ़ाया, ओड़ीशा के अकाल में लोगों की सहायता की, देशी रियासतों में लोंगों पर होने वाले अत्याचारों का विरोध किया।

ठक्कर बाप्पा ने 1922 से आगामी दस वर्ष भीलों की सेवा करते हुए गुजारे। हरिजनों की सेवा और उनके उद्धार का कार्य तो उन्होंने बहुत पहले शुरू कर दिया था। भारत का शायद ही कोई प्रदेश होगा, जहां किसी न किसी सेवा-कार्य के लिए ठक्कर बाप्पा न पहुंचे हों। जब महात्मा गांधी की प्रेरणा से ‘अस्पृश्यता निवारण संघ’ बना, जो बाद में ‘हरिजन सेवक संघ’ कहलाया, ठक्कर बाप्पा उसके मंत्री बनाए गए।

गांधी ने 1933 में जब हरिजनों के जीवन में बदलाव के लिए पूरे देश का दौरा किया तो ठक्कर बाप्पा उनके साथ थे। ठक्कर बाप्पा ने हरिजनों के मंदिर प्रवेश तथा जलाशयों के उपयोग के लिए गांधी के चलाए गए आंदोलनों को आगे बढ़ाया। 1946-1947 के सांप्रदायिक दंगों के दौरान वे बापू की नोआखाली यात्रा में भी उनके साथ थे। बाप्पा कुछ समय तक संसद के भी सदस्य रहे थे। 20 जनवरी, 1951 को इस महान लोकसेवक का निधन हुआ।