एसडी वैष्णव
‘वुडपैकर’ ने शमी की मजबूत और दोनों बाहों में समा जाए इतनी मोटाई वाली डाल के झुके हुए भाग के निचले हिस्से में यह कोटर कब बनाया, यह बताना ठीक-ठीक संभव नहीं है, क्योंकि पिताजी के समय से ही यह शमी वृक्ष अपनी बाहें फैलाए खड़ा है हरा का हरा। और, मैं अपने जमाने से इसे वैसा का वैसा देखता आ रहा हूं।
पिताजी को भी नहीं मालूम था कि शमी पर यह कोटर कब बनाया गया! उन्होंने ‘वुडपैकर’ को जिसे वे अपनी भाषा में कठफोड़वा कहते थे, उसे कभी शमी पर ठक-ठक करते नहीं सुना। लेकिन कोटर तो उसी ने बनाया है, यह तो तय था। कठफोड़वा को कभी इस शमी वृक्ष पर अपना डेरा जमाते हुए मैंने नहीं देखा। शायद पेड़ के सूखे तने के नीचे से दीमक और दूसरे कीड़ों को खाकर कहीं अन्यत्र चला गया होगा।
गांव में वैसे तो कई दूसरे वृक्षों पर कठफोड़वा को ठक-ठक करते और कोटर बनाते देखा, लेकिन उनमें भी उसे रहते कभी नहीं देखा। तो क्या कठफोड़वा दूसरे पक्षियों के लिए ही वृक्षों पर कोटर बनाते हैं? और फिर आगे की यात्रा पर निकल जाते होंगे! ऐसे प्रश्न मेरे भीतर कई बार उठते रहे। मन में उठी तरंगों को शांत करने के लिए मैंने गांव में बुजुर्गों से पूछा, तो उन्होंने बताया कि कठफोड़वा अपने बनाए कोटर में कई दिनों तक रहता है और उसके जाने के बाद दूसरे पक्षी उसमें अपना घर बना लेते हैं। ज्यादातर जगहों पर मैंने कठफोड़वा द्वारा बनाए गए कोटर में ‘रिंग नेकेड पैराकीट’ और उसके परिवार को ही रहते देखा है। शुक की कई तरह की प्रजातियों में भारत में यह बहुतायत में पाई जाती हैं।
यह शमी वृक्ष दो खेतों की मेड़ के बीचों-बीच खड़ा था। इसलिए कोई भी इसे काटने का साहस नहीं करता था, क्योंकि बेजा फसाद में कोई पड़ना नहीं चाहता था। लिहाजा, खेतों की तक्सीम के वक्त दोनों ओर के लोगों ने कहा कि यह शमी वृक्ष हमारी जमीनों के केंद्र में रहेगा। एक ओर तुम दूसरी ओर हम। पिताजी जब खेत में हल चलाते, तब थोड़ी-थोड़ी देर के लिए बैलों को भी विश्राम देते और शमी के नीचे रखे मटके से अपना गला तर करते थे। एकाध बीड़ी फूंकते, फिर कुछ पल वहीं छांव में सुस्ताने लगते थे।
खेत में जब भी बुआई-कटाई होती, पिताजी देवताओं के साथ शमी वृक्ष को भी धूप चढ़ाते थे। यह उनकी हर वर्ष की प्रक्रिया में था। इस पर मैं उनसे कहता, ‘आप दूसरे वृक्षों को कभी धूप नहीं चढ़ाते, फिर शमी को ही क्यों?’उनका जवाब होता, ‘कौन शमी?’‘अरे! शमी मतलब’ मैं खुद ही उसका नाम भूल जाता, फिर उन्हें हाथ के इशारे से बताता। तब वे बड़े आश्चर्य से कहते, ‘खेजड़ी?’
मुझे सहसा याद आता और मैं कहता, ‘हां.. हां, खेजड़ी।’ और उन्हें बताता कि अंग्रेजी में इसे प्रोसोपिस सिनेररिया कहते हैं। ‘फिर ऐसा बोल ना। शमी-शमी क्या करता है! अंग्रेजी को भी रख एक ओर। कांडी नाम है इसका।’ ‘कांडी ! कौन कांडी?’ मैं उनसे पूछता।‘अरे! खेजड़ी को कांडी भी कहते हैं। रेगिस्तान में बहुत होता है, अपने इधर कम।’
मैं मन ही मन सोचता, ‘कांडी! बड़ा अजीब नाम है। किसी व्यक्ति को अगर कांडी कह दो, तो बुरा मान जाता है। शमी है जो सहन करता है।’ ‘खैर! आपने बताया नहीं?’‘क्या नहीं बताया?’‘यह कि आप शमी को… मेरा मतलब है कि खेजड़ी को ही धूप क्यों चढ़ाते हैं?’मेरे इस प्रश्न पर उनकी विस्तृत व्याख्या थी। भाव यह कि वे कुंभ राशि के थे और खेजड़ी का संबंध शनिदेव से माना जाता है, इसी कारण शमी को दैवीय वृक्ष मानकर उसकी पूजा करते थे।वे कहते, ‘मुझ पर शनि की साढ़ेसाती है। यह उतर जाएगी, तब सब ठीक हो जाएगा।’
तेज धूप या कम बरसात में जब कभी शमी थोड़ा मुरझाने लगता, तब उन्हें लगता कि शायद शनि की शक्ति कमजोर हुई है या भगवान शिव निराश हैं। इस कारण वे शमी की जड़ों में और ज्यादा पानी डालते थे। पिताजी समय से पहले ही दुनिया से रुखसत हो गए। उनके जाने के बाद खेतों को संभालने की जिम्मेदारी मेरे कंधों पर आन पड़ी, लेकिन उनके जाने के बाद बैलों से खेत जोतने का काम कभी नहीं हुआ। बैलों की जगह ट्रैक्टर और अन्य मशीनों ने ले ली।
पिताजी जाते-जाते एक डर मेरे भीतर बिठा कर गए। संयोगवश मैं भी कुंभ राशि से ही था, सो आगे समय-समय पर शमी के धूप चढ़ाने और पानी देने की जिम्मेदारी मेरी थी, तो यह काम मैं बड़ी लगन से करता रहा। समय के बहाव में खेत पर एक ट्यूबवेल लगवाकर, कई सारे फलदार पौधे लगा दिए गए और पानी का एक धोरा शमी के करीब से निकाल दिया गया ताकि वह हरा-भरा रहे।एक साल पीछे, शमी की कोटर में एक ‘रूफस वुडपैकर’ रहने आया था। यह हुदहुद से थोड़ा भिन्न किस्म का था, लेकिन उसके सिर पर हुदहुद की तरह कलगी लगी थी। दिखने में बिल्कुल स्वर्ण मानिंद। कई बार मैंने उसे अपलक देखा। चमक बिखेरती थी। ऐसा कठफोड़वा मैंने पहले कभी नहीं देखा।
उस कोटर में एक लाल वृत्त वाला शुक पहले से ही रह रहा था। कोटर पर अपना एकाधिकार जमाने के बजाय दोनों बड़े प्रेम से रह रहे थे। एक रात को मैंने अद्भुत स्वप्न देखा। बरसात के दिन लदने वाले थे। शमी भी बरसात में नहाकर मुलायम हो चुका था। कठफोड़वा ने धीरे-धीरे पूरे वृक्ष पर छोटे-छोटे इतने छेद कर दिए कि शमी का अलग ही भूगोल नजर आने लगा था। तकरीबन हजार के करीब छेद रहे होंगे।
शीत आने से पूर्व ही कठफोड़वा ने उन छेदों में ‘एकोर्न’ लाकर जमा करना शुरू कर दिया था। ओक का यह फल जिसे गांवों में बांजफल कहते हैं, उन छेदों में एकदम फिट बैठ रहा था। बड़े नापतोल से ये छेद बनाए थे।कठफोड़वा को यह सब करता देख, बड़े आश्चर्य से शुक ने पूछा, ‘तुम इतने सारे एकोर्न क्यों जमा कर रहे हो?’ ‘शीत आने दो, तुम्हें पता चलेगा कि मैं ऐसा क्यों कर रहा हूं!’ ‘अरे ! लेकिन बताओ तो सही, माजरा क्या है?’
‘शमी का जो भाग इस लड़के के हिस्से में पड़ता है, शीत के तेज प्रवाह में उस ओर के एकोर्न स्वर्ण में बदल जाएंगे और दूसरी ओर के शीत में तुम्हारे खाने के काम आएंगे।’‘और तुम क्या खाओगे?’ शुक ने पूछा।‘शीत के बाद मैं यहां से चला जाऊंगा।’ उसने जवाब दिया। मुझे और शुक को बड़ा मायावी और रहस्यमयी लगा वह कठफोड़वा।‘पांच सौ के करीब स्वर्ण एकोर्न!’ बड़े उत्साह से मैं उछल पड़ा और मेरा स्वर्णिम स्वप्न भंग हो गया।
कुछ दिन बाद मैंने देखा, कठफोड़वा ने शमी पर छोटे-छोटे छेद करने शुरू कर दिए थे। मुझे सहसा पिताजी की याद हो आई। शमी को धूप चढ़ाते और उसकी छांव में बीड़ी फूंकते उनकी अद्भुत छवि मेरी आंखों में तैर रही थी। इधर मैं भी शमी की और ज्यादा देखभाल करने लगा था।