लक्ष्मी सहगल ने इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया। जिस जमाने में औरतों का घर से निकालना भी अपराध माना जाता था, उस समय उन्होंने पांच सौ महिलाओं की एक फौज तैयार की थी, जो एशिया में अपने तरह की पहली महिला शाखा थी।

उनका जन्म मद्रास (अब चेन्नई) में हुआ। विवाह से पहले उनका नाम लक्ष्मी स्वामीनाथन था। लक्ष्मी पढ़ाई में कुशाग्र थीं। 1930 में पिता के देहावसान का साहसपूर्वक सामना करते हुए 1932 में लक्ष्मी ने विज्ञान में स्नातक परीक्षा पास की। फिर उन्होंने गरीबों की सेवा के लिए चिकित्सक का पेशा चुना और 1938 में मद्रास मेडिकल कालेज से एमबीबीएस की डिग्री हासिल की।

1939 में वे महिला रोग विशेषज्ञ बनीं। पढ़ाई समाप्त करने के दो वर्ष बाद लक्ष्मी सिंगापुर चली गईं। वहां उन्होंने गरीब भारतीयों और मजदूरों के लिए एक चिकित्सा शिविर लगाया और उनका इलाज किया।

वहीं वे ‘भारत स्वतंत्रता संघ’ की सक्रिय सदस्य बनीं। 1942 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब अंग्रेजों ने सिंगापुर को जापानियों को समर्पित कर दिया, तब उन्होंने घायल युद्धबंदियों के लिए काफी काम किया।

विदेश में मजदूरों की हालत और उनके ऊपर हो रहे जुल्मों को देखकर उनका दिल भर आया। उन्होंने निश्चय किया कि वे अपने देश की आजादी के लिए कुछ करेंगी। सुभाष चंद्र बोस 2 जुलाई, 1943 को सिंगापुर आए तो लक्ष्मी उनके विचारों से बहुत प्रभावित हुईं। और उनसे इच्छा जताई कि वे उनके साथ भारत की आजादी की लड़ाई में उतरना चाहती हैं।

नेताजी ने उनके नेतृत्व में ‘रानी लक्ष्मीबाई रेजीमेंट’ बनाने की घोषणा कर दी। उन्होंने रानी झांसी रेजीमेंट में ‘कैप्टन’ पद पर कार्यभार संभाला। बाद में उन्हें कर्नल का पद भी मिला, जो एशिया में किसी महिला को पहली बार मिला था। लेकिन लोगों ने उन्हें कैप्टन लक्ष्मी के रूप में ही याद रखा।

उनके नेतृत्व में रानी लक्ष्मीबाई रेजीमेंट ने कई जगहों पर अंग्रेजों से मोर्चा लिया। लक्ष्मी सहगल हमेशा से मानती रहीं कि व्यक्ति की कथनी और करनी एक होनी चाहिए। द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की हार के बाद ब्रिटिश सेनाओं ने आजाद हिंद फौज के सैनिकों की भी धर-पकड़ शुरू की, तो 4 मार्च 1946 को लक्ष्मी सहगल सिंगापुर में गिरफ्तार कर ली गईं। उन्हें भारत लाया गया, लेकिन आजादी के लिए बढ़ रहे दबाव के बीच उन्हें रिहा कर दिया गया।

पति की मौत के बाद कैप्टन लक्ष्मी कानपुर आकर रहने लगीं और बाद में सक्रिय राजनीति में भी आईं। वे अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की संस्थापक सदस्यों में रहीं। उन्होंने महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता के लिए काफी संघर्ष किया। स्वतंत्रता आंदोलन में उनके महत्त्वपूर्ण योगदान और संघर्ष को देखते हुए उन्हें 1998 में पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया।

वर्ष 2002 में अट्ठासी वर्ष की आयु में पार्टी (वाम दल) के दबाव में उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के खिलाफ राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव भी लड़ा, लेकिन हार गईं। हालांकि वे कम्युनिस्ट आंदोलन से लगातार जुड़ी रहीं, पर कभी राज्यसभा की सांसद भी नहीं बनीं।