प्रतिभा वत्स

भारतीय जीवन में यह ऋतु सिर्फ मौसम में एक बदलाव का प्रतीक नहीं है। यह सुख समृद्धि, सौहार्द और प्रेम का भी घोतक है। प्रेमचंद की कृति ‘गोदान’ पर बनी फिल्म में भी शोषित पीड़ित किसानों के जीवन में सावन को उल्लास का संचार करते देखा जा सकता है। इस फिल्म के लिए संगीत प्रख्यात सितार वादक पंडित रविशंकर ने दिया था और बरसात के साथ ही अपने गांव की याद में उत्साहित मजदूरों की अभिव्यक्ति को लोकधुनों के सहारे उन्होंने अमर कर दिया, ‘पूरबा के झोंकवा ने लायो रे संदेसवा कि चल आज देसवा की ओर।’

बा रिश की बूंदों के साथ जुड़ा है उमंग। उमंग के साथ प्रेम। तभी तो बारिश की एक बूंद पूरी प्रकृति को झुमा देती है। कभी कालिदास भी झूमे थे। रविशंकर भी और मजरूह सुल्तानपुरी भी। मुंबइया फिल्मों में मसाले की तलाश में भटकते निर्देशक तो अक्सर बारिश में झूमते ही रहते हैं। कोई अछूता नहीं रहता अगर आसमान से बूंदें नीचे उतरती हैं और दूर कहीं से आवाज आती है-‘पूरबा के झोंकवा ने लायो रे संदेसवा कि चल आज देसवा की ओर।’
सिनेमा की शुरुआत के साथ ही बारिश फिल्मी परदे पर छा गई। तब से आज तक बारिश का मौसम, बारिश का पानी, बादल की आवारगी फिल्मों का एक अंतरंग हिस्सा बना हुआ है। अनगिनत फिल्मों के अनगिनत नायक-नायिकाओं ने अपने प्यार की मीठी तकरार, साजन या सजनी का इंतजार पहले इनकार और न-न करते इसी प्यार का इजहार, बादलों की गड़गड़ाहट, बिजली की चमचमाहट और बारिश की हल्की रिमझिम में तो कभी मूसलाधार बौछारों के बीच किया है।
अगर हम यह कहें कि फिल्मों की लोकप्रियता का आधार हमारी भावनाएं होती हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। शायद इसीलिए फिल्मों के परदे पर बारिश और सावन को इतनी प्रतिष्ठा मिली है। ‘आया सावन झूम के’, ‘सावन को आने दो’, ‘सावन भादों’, ‘बरखा बहार’, ‘सावन’ जैसी कुछेक फिल्मों के तो कथानक ही बारिश को केंद्र में रखकर बुने गए। अन्य फिल्मों में भी जब दर्शकों के मन के रोमांस और कोमल अहसासों को छेड़ने की सिनेमा ने जरूरत समझी तो हमारी स्मृतियों में कायम सावन की बूंदों की शीतलता का बखूबी इस्तेमाल किया। ‘दो बीघा जमीन’ जैसी मानवीय त्रासदी को चित्रित करती फिल्म में भी विमल रॉय जब मानव की जीवन शक्ति दिखाना चाहते हैं तो बारिश का ही सहारा लेते हैं। उसमें गाना है-आयो रे आयो रे, सावन आयो रे।
परदे के प्रेमी-प्रेमिकाओं ने इस ऋतु की आड़ में कभी छाते के नीचे, कभी पेड़ के पीछे, कभी बस्ती से दूर वीराने में शरमा-सकुचाकर या बेधड़क बारिश में भागते-भागते बेशुमार प्रेम गीत गाए हैं। ठंडी हवा, काली घटाओं का यह सिलसिला जारी है। कौन भूल सकता है फिल्म ‘श्री420’ का वह गीत, जो राजकपूर और नरगिस बारिश के बीच एक ही छाते के नीचे ‘प्यार हुआ इकरार हुआ’ गाते हैं। राजकपूर और नरगिस की वह छातेवाली तस्वीर तो आज भी कला की दुनिया की पहली पसंद बनी हुई है। राजकपूर पर फिल्माया गया एक और गीत ‘बरसात में हमसे मिले तुम सजन तुमसे मिले हम’, कुछ ऐसे ही मनोभावों को प्रदर्शित करता है।

ए क और गीत वहीदा रहमान और गुरुदत्त पर फिल्माया गया-‘जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात’, वाकई भुलाए नहीं भूलता। वहीं दूसरी और बेवजह ठूंसी हुई, मशीनी बारिश की बौछारों से भीगी अभिनेत्री और उससे भी अधिक भीगी साड़ी को खींच कर गाता नायक ‘आज रपट जाएं तो हमें न उठइयो’ भी चर्चा में रहा। नायिका कभी टीन-टप्पर पर चढ़कर भीगती हुई गाती है, ‘तेरी दो टकियां दी नौकरी, मेरा लाखों का सावन जाए रे’, तो कभी झूले में बैठ कहती है, ‘मेरा मन तरसा रे, पानी क्यूं बरसा रे’, कभी सड़क पर भीगती हुई कहती है, ‘आओ रे आओ भीग जाएं, खुले गगन में नहाएं’। वही नायिका कभी खिड़की से झांकती हुई कहती है, ‘ओ सजना, बरखा बहार आई। रस की फुहार लाई।’

भारतीय जीवन में यह ऋतु सिर्फ मौसम में एक बदलाव का प्रतीक नहीं है। यह सुख समृद्धि, सौहार्द और प्रेम का भी घोतक है। प्रेमचंद की कृति ‘गोदान’ पर बनी फिल्म में भी शोषित पीड़ित किसानों के जीवन में सावन को उल्लास का संचार करते देखा जा सकता है। इस फिल्म के लिए संगीत प्रख्यात सितार वादक पंडित रविशंकर ने दिया था और बरसात के साथ ही अपने गांव की याद में उत्साहित मजदूरों की अभिव्यक्ति को लोकधुनों के सहारे उन्होंने अमर कर दिया, ‘पूरबा के झोंकवा ने लायो रे संदेसवा कि चल आज देसवा की ओर।’
रोजी रोटी कमाने शहर आए मजदूरों को सावन की पहली दस्तक ही उम्मीद देती है कि समृद्धि अब अपने गांवों तक भी पहुंच गई होगी। महबूब खान की ‘मदर इंडिया’ के ‘उमड़-घुमड़ कर आए रे घटा’ से लेकर आमिर खान की ‘लगान’ के ‘घनन-घनन घिर-घिर आए बदरा तक’, सिर्फ शब्द संयोजन में परिवर्तन भले ही दिखता हो, गीतों के मूल स्वर एक ही हैं, दुखों के बीच उत्साह का संचार, यही है सावन और बारिश का असली पैगाम।
वर्षा ऋतु के साथ जुड़ा है उत्साह और उत्साह के साथ प्रेम। आश्चर्य नहीं कि बारिश का सुखद वातावरण पूरी प्रकृति में प्रेम का लय तरंगित कर देता है, जो कभी कालिदास को भी प्रेरित करती थी और मजरूह को भी करती रही। ‘धरती कहे पुकार के’ में हिंदी सिनेमा की चालू शब्दावली में जैसे कालिदास को ही अभिव्यक्ति दी गई है, ‘जारे कारे बदरा…’। सावन की बूंदों का यही चमत्कार है। एक ओर यह धरती की प्यास बुझाती है, दूसरी ओर मन की प्यास भड़काती है। ‘चुपके-चुपके’ में शर्मिला टैगोर इस प्यास को शालीनता से अभिव्यक्ति देती हैं, ‘अबकी बरस सावन में, आग लगेगी बदन में।’
प्रेमी साथ हो तो बारिश में प्रेम गीत, ‘पहले प्यार की पहली यह बरसात है’, प्रेमी साथ न हो तो विरह गीत-‘लगी आज सावन की वह झड़ी है’ यानी बारिश एक ऐसा फार्मूला है जिसका प्रयोग जब कभी फिल्मों में किया गया, जिस स्थिति में किया गया, वह सदा सटीक रहा और हिट हुआ।
प्रियतम न आए तो मेघों का सहारा ले उन्हें बुलाया जा सकता है। ‘सावन के झूले पड़े,तुम चले आओ’ और प्रियतम आ गया हो तो इन्हीं मेघों का सहारा ले उन्हें रोका जा सकता है- ‘बरखा रानी जरा जमके बरसो, मेरा दिलवर जा न पाए झूम के बरसो।’ बारिश टिप-टिप-टिप से रिमझिम के तराने गाती हुई ‘बादल यूं गरजता है’ और ‘डमडम डीगा डीगा, मौसम भीगा-भीगा’ का दौर सहज ही तय करके हिंदी फिल्मों गीतों की धड़कन बन गई है।
पर हाल के दिनों में बन रही फिल्मों में किसी भी मनोभावों को व्यक्त करने या सीमाएं लांघने के लिए अब किसी सावन की जरूरत नहीं। डिस्को और रेव पार्टियों के दरवाजे सालों भर सभी मौसमों में खुले हैं। लंबे अरसे बाद ‘फना’ में सावन आता भी है तो बदलते संदर्भों के साथ, ‘सावन ये सीधा नहीं, खुफिया बड़ा है, साजिश ये बूंदों की, कोई ख्वाहिश है चुप चुप सी देखो न।’ सावन और बूंदों के कोमल अहसास के साथ खुफिया और साजिश जैसे कठोर संदर्भों को आज भले ही जोड़ा जाने लगा हो, हमें उम्मीद है कालिदास के ‘मेघदूत’ की तरह गीतों में अभिव्यक्त सावन की मधुरता आने वाले दिनों में भी याद की जाती रहेगी। जगजीत सिंह की आवाज में ‘वो कागज की कस्ती वो बारिस का पानी’ की चर्चा आज भी हमें कालिदास के मेघदूत की याद बरबस ही दिला जाता है। मानसून की यह सिलसिला कभी थमनेवाला नहीं है। १