संजय गौतम

यूनिवर्सिटी के शुरू के दिनों में रूपाली उससे बहुत प्रभावित हो गई थी। उसके सौम्य रूप और तीव्र बुद्धि को ही देख कर शायद। कक्षा में अच्छे स्कॉलर के रूप में उसका प्रभाव था। उसे भी रूपाली अच्छी लगती थी। सौम्य स्निग्ध रूप, चंचल आंखें। पर इसी चंचलता ने तो शायद दोनों को अलग कर दिया।

उसके मन में किसी से मिलने की हुमक इतनी तीव्र हो गई कि वह घर में बैठा नहीं रह सका। सड़क पर निकल गया। इतवार का दिन था। सांझ ढल रही थी। दिन भर की गर्मी से उकताए लोग सड़क पर आ गए थे। उसकी नजरें कहीं से फिसलतीं, कहीं टिक जातीं, लेकिन वह चलता चला गया सांझ के एकमात्र साथी के पास।
साथी उस दिन अचानक कहीं चला गया था। भेंट नहीं हुई। मिलने की उसकी इच्छा को थोड़ा धक्का लगा, पर आवेग और बढ़ गया। वह घर नहीं लौटा। चलता गया। नगर के एक खूबसूरत चौराहे पर जाकर फिर ठिठक गया। अब किधर जाए। जल्दी निकल आया। यहां भी तो कोई नहीं मिलेगा। थोड़ा-मोड़ा अरिचय-परिचय वाला भी, जिसके साथ बात करते हुए कम से कम एक कप चाय पी जा सके। किसी के न मिलने की संभावना से वह जैसे बेचैन हो गया। क्यों इतनी तीव्र हो जाती है मिलने की इच्छा और नहीं मिलने पर क्यों हो जाता है बेचैन। उसने सोचा। सोचा कि अब नगर के किनारे गंगा घाट पर ही चले। गंगा, लगता है उसके शाम की दूसरी साथी है, जहां जाकर मिल जाता है उसके अकेलेपन को स्निग्ध विस्तार। लहरों में खोने लगता है उसका मन। उसने जेब टटोली। पैसे जोड़े। हां, टेम्पो से जाना डेढ़ रुपए, एक कप चाय, हो जाएगा, कुल तीन सिक्के खनखना रहे थे, लौट तो आएगा टहलते-टहलते ही। अकसर वह पैदल चलता था, टहलने के बहाने। मन को मनाने का इससे सुंदर बहाना भी तो नहीं था।
खड़ा हुआ टेम्पो का इंतजार कर ही रहा था कि दूर से सन-सन करती हुई लाल मारुती कार अचानक उससे सट कर एक झटके से रुकी।
‘कहो गांधी बाबा, कहां चले हो।’
रूपाली की मीठी आवाज सुन कर उसने हंस दिया- ‘कहीं नहीं बस यों ही।’
‘बस यों ही, घाट पर न।’
‘अरे हां बस समझ लो।’
अमित कार ड्राइव कर रहा था, बंद कर मुखातिब हुआ, ‘कहो भाई घूमने निकले हो?’
‘हां यार शाम का वक्त था, सोचा थोड़ टहल लूं।’
‘हम तो पिक्चर जा रहे थे, चलना हो तो चल तू भी।’
‘नहीं, छोड़ो, जाओ तुम हो आओ।’
‘तो नहीं चलेगा तू।’
‘नहीं यार अभी मूड नहीं है।’
‘अरे तेरा मूड तो भगवान ने सोच-समझ कर बनाया है। पता नहीं किस दुनिया में खोया रहता है तू।’
‘अरे गांधी बाबा से फिल्म देखने को कह रहे हो, इन्हें तो जाना होगा एकांत ढूंढ़ने गंगाजी।’ कहते-कहते खिलखिला कर हंस पड़ी।
रूपाली के दांत जैसे दूधिया बल्ब से चमक गए उसके मन में। उसकी हंसी से छिटकी हुई रोशनी में जैसे खिल आया उसका चेहरा, जैसे किसी लाल रंग के बल्ब की रोशनी पड़ गई उसके गेहुंए गाल पर। जैसे दौड़ गई डूबते सूरज की स्निग्ध लाली उसके चेहरे पर। जैसे बेबस हो जाता है वह डूबते सूरज की लालिमा को गंगा की लहरों से छुआ-छुऔवल का खेल देखते हुए, वैसे ही बेबस होने-होने को हो आया वह रूपाली की हंसी की लहर में।
तभी रूपाली ने कहा, ‘चलो अमित, क्यों अपना समय बर्बाद कर रहे हो, पिक्चर लेट हो जाएगी। गांधी बाबा को जाने दो अपना सत्य खोजने।’
‘हां, हां तुम लोग जाओ।’ उसने भी हामी भर दी। नहीं कह सका वह कि चलो चलते हैं, जबकि अभी मुस्कान की लाल मद्धिम रोशनी में बेबस हुआ जा रहा था वह और गालों के गहराते हुए गड््ढे में अनायास ही उसकी आंखें थिर हो गई थीं।…
रूपाली अमित की बगल में बैठी हुई फर्रांटा भरती चली जा रही थी। उसे लगा, उसकी जिंदगी का एक छोर तो रूपाली के साथ ही बंधा था, जो अब भागता जा रहा है।
यूनिवर्सिटी के शुरू के दिनों में रूपाली उससे बहुत प्रभावित हो गई थी। उसके सौम्य रूप और तीव्र बुद्धि को ही देख कर शायद। कक्षा में अच्छे स्कॉलर के रूप में उसका प्रभाव था। उसे भी रूपाली अच्छी लगती थी। सौम्य स्निग्ध रूप, चंचल आंखें। पर इसी चंचलता ने तो शायद दोनों को अलग कर दिया। रूपाली घूमने-फिरने में मस्त रहने वाली फैशनेबल लड़की थी और सत्य की खोज में लगा हुआ कलाकार समझता था खुद को। जब रूपाली ने धीरे-धीरे उससे मुंह मोड़ना शुरू कर दिया तो उसे लगा, अब कोई भी लड़की उसकी इस यात्रा की साथी नहीं हो सकती। ऐसे साथी से तो उसकी यात्रा की दिशा ही बदल जाएगी। जहां मंथर गति, जिंदगी में खोज का भाव नहीं, बल्कि पिटी लकीर पर देखादेखी दौड़ने की अंधी महत्त्वाकांक्षा है, गाड़ी है, घोड़ा है, फिल्म है… तभी तो रूपाली ने मना कर दिया था सांझ के झुटपुटे में रक्तिम किरणों से खेलती गंगा की लहरों का सौंदर्य देखने चलने से। इसी जिद में वह नाराज हो गई थी और फिर दोनों साथ कहीं नहीं गए थे। उसने भी अकेले चलना स्वीकार कर लिया था।
पर उसके सपनों से कैसे निकल सकती थी रूपाली। रिमझिम करती सावन की बरसात में भीगता हुआ चलता तो साथ चलती रूपाली का आभास अनायास ही हो आता। लगता उसे कि वे दोनों साथ भीग रहे हैं और छपछप पानी में खेल रहे हैं। निविड़ अंधेरी रात में जब उसके मन में आंधी चलती, लहर उठती, खुद को किसी में लय कर देने की हुमक लिए हुए नींद के आगोश में आ जाता, तो अनायास सपनों पर सवार होकर आ जाती रूपाली। सोए में ही जैसे उसके माथे को चूमती वह और नींद खुल जाती। वह सोचता, सपने का सच जिंदगी का सच तो नहीं हो सकता न। सपने में कुछ गंवाना भी तो नहीं पड़ता। बिना गंवाए कुछ पाया भी तो नहीं जा सकता। तो क्या पाने के लिए अपनी दिशा ही बदल दे। यही सोच कर तो वह दुविधा में पड़ जाता। जो वह जिंदगी में पाने के लिए चल रहा था वह उसके सपनों में नहीं आता था, जो उसके सपनों में आता था, उसे जिंदगी में नहीं पा सकता था। दोनों को एक साथ नहीं पा सकता क्या वह, सोचता और पूरा शरीर जैसे टूट-टूट कर बिखरने लगता।…
गंगा में सूरज डूबता है दिप दिप दिप दिप। लाल सिंदूरी बिंदी-सा कंपता हुआ और रात भी उतरती है रून-झुन, रून-झुन। पायल की झनकार के साथ। लोग-बाग अपने आप ही खिंचे चले आते हैं। उधर गोलगप्पे खाती झुंड की झुंड लड़कियां हैं। कुछ अपने जोड़े के साथ, कुछ केवल साथ देने आई हैं अपनी सहेली का। इधर लाई-चना बेचने वाले अनेक खोमचे हैं, जिससे लेकर जोड़े हंस-हंस कर बतियाते हुए खा रहे हैं। एक-दूसरे के कंधे पर ढुलके जा रहे हैं। दूर गंगा में तैरती हुई छोटी-छोटी नावें हैं, जिस पर बैठ कर अनेक जोड़े गंगा का विस्तीर्ण सौंदर्य देख कर खुद पर मुग्ध हो रहे हैं।
नाव वाला चिल्ला रहा है, ‘आ जाओ, आ जाओ, नाव जा रही है। घूमिए, मणिकर्णिका घाट से हरिश्चंद्र घाट तक। घूमिए सिर्फ पांच रुपए में।’ ‘नाव जा रही है बाबूजी, आइए, आइए, इस पर आइए, बस आप ही को लेकर चल देंगे बाबूजी।’ दूसरा नाव वाला चिल्लाता है।
उसकी नाव पर घूमने की इच्छा नहीं होती। एक तख्ते पर बैठ कर देखने लगता है वह विस्तीर्ण गंगा के उस पार। गाढ़े हरे पेड़ों को, रेत को और जैसे शून्य में टिक जाती हैं उसकी आंखें। ये नाव वाले हमेशा मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट के बीच ही घुमाते हैं। क्यों इन्हीं दो छोरों के बीच होती है बनारस के मल्लाहों की यात्रा। सोच नहीं पा रहा है वह। क्या वे अनायास ही सत्य के दो ध्रुवों का दर्शन कराते हैं। एक ध्रुव पर हैं जीवन में सत्य पर टिके रह कर मृत्यु को जीतने वाले हरिश्चंद्र, दूसरे ध्रुव पर मृत्यु के पार का रहस्यलोक!… ऐं, किस चिंता में डूब गया वह। पास ही खेल रहे गोल-मटोल नन्हे-से बच्चे की आवाज से जैसे उसकी तंद्रा टूटी। बच्चा अपनी मां से गुब्बारा दिलाने के लिए कह रहा था, चुलबुली बातें करते हुए मां बहका रही थी। पिता पास ही खड़े थे। बच्चे की मां का स्नेहिल रूप देख कर प्यार की गरिमा से भर गया जैसे वह। सोचा, दिला दे बच्चे को गुब्बारे, गोद में लेकर खिला ले उसे, प्यार कर ले जी भर। पर सकुचा गया वह, कैसे दिलाए उसे गुब्बारे, मां-बाप बुरा मान गए तो! कैसे प्यार करे उसे… और स्नेहिल आंखों से देखता रह गया। उसके भीतर लहरें उलट-उलट कर गिरती रहीं। गिरने की गूंज फैलती रही, माथा चटकता रहा।… याद आया रूपाली के चेहरे का स्निग्ध आलोक और अपने मित्र की कविता की पंक्ति, जिससे मिलने निकला था वह: ‘तुम होती तो/ तुम्हें छू लेती/ मेरे प्यार की यह लहर/ पछाड़ खाकर गिर पड़ती है जो।’ ०