प्रताप दीक्षित

रंग-बिरंगी तितलियां घर में प्रवेश करते ही दरवाजे पर साथ छोड़ देतीं। बेचारगी के अहसास से घिरी सरोज सिन्हा अवसाद से भर जाती। उदासी-चिड़चिड़ाहट कई दिनों तक बनी रहती। घर में रहते हुए अमूमन ऐसा कुछ महसूस नहीं होता। परिवार में पति-पत्नी कुल दो लोग। लड़कियों की शादी हो चुकी थी, बेटे-बहू नौकरी के सिलसिले में बाहर थे। साल-दो-साल में या जरूरत पड़ने पर आते। ड्राइंग रूम के साथ दो बेड रूम का घर, निम्न-मध्यवर्गीय सामान्य सज्जा। लॉन, बरामदा पार कर घर में प्रवेश करने का रास्ता ड्राइंग रूम से होकर था। सीएफएल की धीमी रोशनी में पुराने सोफे, सेंटर टेबल, दीवान, श्रीमती सरोज को और ज्यादा पुराने, दीवारें मटमैली लगतीं। वर्षों से जिन्हें देखते-देखते स्थायी ऊब भर चुकी थी। सुरुचिपूर्ण ढंग से व्यवस्थित ड्राइंग रूम में सरोज का सौंदर्यबोध झलकता। लेकिन उसकी आंखों में उन घरों की चकाचौंध बसी होती, जहां से वह सत्संग, किटी पार्टी या लेडीज क्लब जैसे कार्यक्रमों में शामिल होकर लौटती। भव्य ड्राइंग रूम, दमकती रोशनी में नई डिजाइन का विशाल सोफासेट, गुदगुदे कुशन, कांच की सेंटर टेबल, कालीन, फर्नीचर की रंग-सज्जा-कवर के अनुरूप परदे, इम्पोर्टेड क्राकरी में चाय। नक्कासीदार डिब्बे के खानों में नाश्ते में बिस्किट, नमकीन, सूखे मेवे। मेहमानों के जाने के बाद बंद कर अगली बार के लिए रख दिया जाता।

कॉलोनी की महिलाएं सामाजिक रूप से सक्रिय थीं। आपदा आने पर पुराने कपड़े, अनुपयोगी हो चुके जूते-चप्पल, छतरी, पर्स, खिलौने- बच्चे जिनसे ऊब चुके होते, बेकार हो चुके इलेक्ट्रॉनिक सामान इकट्ठे किए जाते। उन्हें राहत-संस्थाओं में या अनाथालय में पहुंचाया जाता। अखबार में खबर आती, फोटो छपती। इतना बड़ा देश। बाढ़, भूकंप, अकाल कहीं न कहीं तो आते ही। समाज सेवा के अवसर का अभाव न रहता। बाकी दिनों में वे नियमित अंतराल पर बारी-बारी से किसी परिवार में इकट्ठा होतीं। जिसकी बारी होती वह मेजबान होती। किटी निकलने के पहले हंसी-मजाक, गाने-बजाने, हाउजी जैसे खेल होते। दुनिया जहान की बातें- नई साड़ी-सूट, परदे, कालीन, सस्ती सेल में कहां क्या मिल रहा है? शहर में नए खुले मॉल, लोड शेडिंग से एसी ढंग से न चल पाना, कामवाली बाइयों के नखरे-कामचोरी, लड़कियों के साथ छेड़खानी जैसे मुद्दे होते। इसके लिए जिम्मेदार उनके पहनावे पर भी चर्चा होती। दिन-दहाड़े चेन लूटी जाने पर चिंता के साथ उनकी मजबूरियां- ‘सब तो लाकर में रख दिया। अब यह दो तोले की चेन भी न पहनें तो करें क्या? मुझसे न तो आर्टिफिशियल पहनी जाती है, न खाली गले रहा जाता है!’ या ‘हमारे यह तो शौकीन तबियत के हैं। अच्छा-खासा फ्रिज चल रहा था। नए मॉडल का जंबो ले आए। क्या करेंगे इतना बड़ा?
बाजार में नई उपभोक्ता वस्तुओं के आगाज के साथ प्राथमिकताओं के मापदंड बदल रहे थे। फर्नीचर, टीवी, फ्रिज ही नहीं, घरों में खड़ी हुंडई, आल्टो, स्विफ्ट से ऊब जाने, इनकी जगह बड़ी गाड़ी खरीदने की चर्चा होती। नए स्मार्टफोन के साथ नंबर भी बदल जाते। अंत में वाट्सएप के नंबरों का आदान-प्रदान होता।
सरोज सिन्हा के लिए यह एक नई दुनिया थी। आने वाला दिन, बीते कल को ही नहीं, संपूर्ण अतीत को विस्थापित कर रहा था।

अपना आकाश उसे विस्तृत हुआ लगता। पति ने रिटायरमेंट के बाद शहर से दूर खुले इलाके में मकान बनवाया था। पत्नी सोचती- पूरी जिंदगी तो जद्दोजहद में कट गई। पहले संयुक्त परिवार, सास-ससुर, ननद-देवर। फिर अपने बच्चे, उनकी पढ़ाई, शादी, पति के तबादले के बाद नई जगह फिर से शुरुआत करनी पड़ती। गनीमत थी कि उसका सौष्ठव-लावण्य बरकरार था। लोग उसे वास्तविक उम्र से बहुत कम आंकते। छरहरा बदन, घने काले केश, चेहरे पर स्निग्धता। लेकिन उसके अंदर उत्साह-ललक कहां छिपी थे, उसे ही नहीं मालूम था। महिला क्लब द्वारा आयोजित अल्पना, भजन, लोक-संगीत प्रतियोगिता हो या म्यूजिकल चेयर, अक्सर वह अव्वल रहती। हाउजी के खेल उसकी ‘वन सिक्स- स्वीट सिक्सटीन’, ‘अर्ली… फाइव’, ‘ल…व्ले…न’ लहराते-झंकृत स्वर पर समवयस्काओं से ज्यादा नवविवाहिताएं मुग्ध हो जातीं। ऐसे ही एक मौके पर ब्याह के बाद पहली बार मायके लौटी नेहा उसे चूम कर खिलखिला उठी थी। सरोज शर्म से लाल हो गई। पर यह उत्साह-उमंग ज्यादा देर न ठहरते। घर लौटना बर्फ से ढके मकान में लौटना था, जहां कभी मौसम नहीं बदलता।

नापसंदगी की लिस्ट लंबी थी। सर्वाधिक कोफ्त उसे डायनिंग टेबल देख कर होती। ड्रार्इंगरूम बैठक और भोजन-कक्ष के रूप में प्रयुक्त होता। कमरे में प्रवेश करते ही सबसे पहले नजर उस बड़ी नक्कासीदार मेज, ऊंची पीठ वाली विक्टोरियन कुर्सियों पर जाती। मेज के टॉप का सनमाइका एक जगह से चटक चुका था, किसी तबादले के दौरान। सरोज ने एक काढ़ा हुआ मेजपोश टेबल पर डाल दिया था। डायनिंग टेबल खाने के अलावा सब काम आती। पति की दवाइयां, किताबें, टेलीफोन, धोबी के हिसाब की डायरी, डाक से आई पत्रिकाएं, चिट्ठियां, टॉर्च, चश्मा, जाने क्या-क्या। भोजन की मेज के रूप में इसका इस्तेमाल किसी मेहमान के आने पर ही होता। मेजपोश के नीचे टेबल का चटका हुआ हिस्सा दिखाई न देता, लेकिन सरोज की नजर सबसे पहले उसी पर पड़ती है। महिला क्लब की पिछली बैठक उसके यहां थी। किसी के कुछ न कहने के बावजूद सरोज ने उनकी आंखों में कुछ अव्यक्त पढ़ने की विफल कोशिश की थी।
तिनका-तिनका जोड़ कर बनाई गृहस्थी। कोशिश के बाद भी पुराने दिन रिवाइंड होने लगते। गृहस्थी जुटाने का दौर। एक-एक कर सोफा, दीवान, डबलबेड, गैस कनेक्शन, रेडियो आए थे। ब्लैक ऐंड वाइट टीवी किश्तों में लिया था। हर चीज के आने के साथ एक याद जुड़ी था। किसी बच्चे का जन्मदिन या वर्षगांठ। वह याद करके मुस्कराती- उन दिनों शादी की सालगिरह मनाने का ऐसा रिवाज नहीं था। पति के मन में जाने कब से डाइनिंग टेबल की इच्छा दबी हुई थी। परिवार के सभी सदस्यों का एक साथ खाने का सुख। उनके बचपन में मां-पिता, बच्चों और दूसरे सदस्यों को खिला कर सबसे बाद में खातीं। समय का चलन ही ऐसा था, औरतों के मर्दों से पहले तो दूर, साथ खाने की बात अचंभा लगती। किसी की सोच में भी नहीं थी। रात में पति के पलंग से हट कर पत्नी की चारपाई पड़ती। तड़के बिस्तर समेट कर उठा दी जाती। कमरे के दरवाजे कब बंद होते, किसी को पता नहीं चलता। दंपति के साथ-साथ घर से निकलने का मतलब था परिवार के सदस्यों का किसी शादी-ब्याह, पर्व स्नान या कभी धार्मिक फिल्म एक साथ जाना। रेडियो रहता, लेकिन केवल पारिवारिक प्रतिष्ठा के लिए। बच्चों, विशेष रूप से किशोर-युवा होती लड़कियों के लिए वर्जित था।

विवाह के समय पति दूरस्थ स्थल पर पोस्ट थे। वह कुछ माह ससुराल में रही थी। बाद में गांव आना होता, लेकिन कम समय के लिए। पति ने उसे सब बताया था, तसल्ली भी दी थी। बेड, खाने की मेज, टीवी सब खरीदते समय पति के अवचेतन में इन वस्तुओं की उपयोगिता से ज्यादा उन स्थितियों के प्रति उनका मूक प्रतिवाद रहा होगा। सरोज सोचती, आज अगर बाबू जी (ससुर) होते तो डबल बेड, दंपति का बेडरूम, बच्चों का अलग कमरा, ड्रार्इंग रूम में पति-पत्नी, बेटे, बेटियों के एक साथ टीवी-वीसीआर पर फिल्में देखने, एलटीसी पर घूमने जाने पर उनकी क्या प्रतिक्रिया होती? धीरे-धीरे सब बिखरता-बदलता गया। पहले सास-ससुर का जाना, देवरों की नौकरी, शादी, सबके अलग घर बसे। आलोक के लगातार होने वाले तबादले, बच्चे बड़े हुए, उनकी पढ़ाई, नौकरी, लड़कियों की शादी। इतने दिन कब, कैसे बीत गए पता ही न चला। उम्र के इस मोड़ पर आकर जाना कि उसके अंदर की विवाह के पहले वाली सरोज अभी जिंदा है, जिसे जाने कब उसने खुद बिसरा दिया था। ढलती शाम की क्षितिज पर फैली लालिमा वह अपने अंदर समाहित कर लेना चाहती थी। होंठ अपने आप गुनगुनाने लगते। अंदर ही अंदर महसूस हो रहे नए-नए परिवर्तन उसे चकित करते। उसने घर के सामने खुली जगह में गुलाब, मोगरे, एंथोरियम, जास्मिन, आॅर्किड रोपे। तकियों के गिलाफ, मेजपोश, चादरें बदल डालीं। पति के लिए आधा दर्जन चटक रंगों वाली रेडीमेड शर्टें खरीद लाई। घर बनवाने के समय उसने पुराने फर्नीचर को बदलना चाहा था। लेकिन मकान बनवाने का खर्च बजट से ज्यादा हो चुका था। पुराने होने के बाद भी सोफा, पलंग, खाने की मेज काम चलाने लायक थे। घर में अब आता भी कौन था। बेटे-बेटियां या यदा-कदा अन्य मेहमान। फिर पति की स्मृतियां हर वस्तु से जुड़ी हुई थीं। उसके मन के अनजान कोने में, फिल्मों में देखे किसी दृश्य की तरह, पिता को डाइनिंग टेबल के किनारे वाली कुर्सी पर घर के मुखिया की तरह बैठे देखने की अतृप्त कामना जीवित थी, यह जानते हुए कि यह कभी पूरी नहीं होगी।

आलोक दुनियादार तो कभी नहीं रहे। बड़े परिवार और नौकरी की जिम्मेदारियों के निर्वाह में इस कदर मशगूल रहे कि उसकी भी कोई इच्छा-अनिच्छा हो सकती है, ध्यान ही नहीं गया। विवाह के शुरुआती दिनों में वह कभी कुछ कहना चाहती, तो देखती कि आलोक खुद उस पर आश्रित हैं। उनके कपड़े, जूते, रूमाल तक वह खरीद कर लाती। दफ्तर में कामचोरी, फाइलों को टरकाना, भ्रष्टाचार, राजनीतिक दबाव सबसे लड़ते-लड़ते अंतमुर्खी होते गए। परिवार और नौकरी की बाध्यता के कारण न चाहते हुए भी मजबूरी में समझौते करने पड़ते। सिद्धांतों, ईमानदारी के कारण सहकर्मियों-अधिकारियों से न पटती। एक स्थान पर व्यवस्थित न होने पाते, तबादला हो जाता। कमाऊ विभाग की नौकरी में मातहतों तक ने कोठियां खड़ी कर लीं। महंगी कारें दरवाजे पर खड़ी रहतीं। आलोक को कभी इसका मलाल नहीं रहा। दो आदमियों के लिए पुरानी मारुति उन्हें काफी लगती। दमित आक्रोश-कुंठाओं से टूटे नहीं, लेकिन चिड़चिड़े हो गए, बेबात गुस्सा हो जाते। रिटायरमेंट तक रक्तचाप के मरीज बन चुके थे। मित्र बहुत कम थे, साथ दिया था किताबों ने। पूरे जीवन एक ही तो शौक रहा। व्यस्तता के कारण पढ़ने की फुर्सत कम मिलती। लेकिन किताबें खरीदना कम नहीं हुआ। देर रात तक पढ़ते रहते।

सरोज के पास तमाम काम थे। उसके पास बैठने पर वे किताब बंद कर देते। पति-पत्नी में संवाद कम होते, लेकिन दांपत्य को बांधने वाली अदृश्य डोर उन्हें विलग नहीं होने देती। वर्तमान ने इतना दंशित किया था कि अतीत उनके लिए सुरक्षा-कवच का काम करता। किताबों की दुनिया में रहते-रहते उनकी बातें भी किताबी होती गई थीं। पिछली बार बेटा दिवाली की छुट्टियों में आया था। एक्सचेंज स्कीम में पुराने टीवी बदल कर नया एलईडी टीवी ले आया था। घर लौटने पर पति ने देर तक चुप रहने के बाद केवल इतना कहा था- ‘यह उस साल आया था जब तुम पैदा हुए थे! स्मृति विहीन होना अतीत ही नहीं, जड़ों से कट जाना है। अतीत से विच्छिन्न कौमों का कोई भविष्य नहीं होता। संपन्नता के आवरण में निपट अकिंचन।’ पति से कहने का कोई मतलब नहीं था। सरोज की किटी खुली थी। कुछ पैसे उसने अपने खाते से निकाले थे। पति घर पर नहीं थे, ठीक ही था। ‘चलो एक सरप्राइज सही!’ सरोज ने सोचा। मिसेज मेहता के साथ फर्नीचर मार्ट जाकर डायनिंग टेबल पसंद कर भुगतान कर दिया था, ‘इसे अभी भिजवा दें!’ शाम को आलोक लौटे थे। थके होने पर भी चेहरे पर तसल्ली के भाव थे। लाइब्रेरी में अपेक्षित जानकारी-सामग्री उन्हें मिल गई थी। उन्होंने देखा, पुरानी की जगह शीशे के टॉप वाली चमकती नई डायनिंग टेबल। टेबल पर का हमेशा रखा रहने वाला सामान नदारद था। पत्नी ने नए कपों में चाय आज डायनिंग टेबल पर ही परोसी थी। वह आशंकित थी। आलोक कुछ नहीं बोले। उनकी नजर ड्राइंग रूम में मौजूद दीवान, सोफे, परदों पर थी। डायनिंग टेबल की भव्यता ने सबको आच्छादित कर लिया था। पति की चुप्पी से पता नहीं चला कि उनके अंदर भी कुछ टूटा था? ०