पंकज चतुर्वेदी

मुनिया का ठिया वहीं है- एक पुल सिर के ऊपर से जाता है और वहीं जमीन के भीतर वाला पुल भी है। सारा दिन गाड़ियां दौड़ती-भागती रहती हैं। पुल के नीचे कोने में उसकी गृहस्थी है- कच्चा चूल्हा, रस्सी पर लटके कुछ कपड़े और ओढ़ने-बिछाने के कपड़े। पांच सड़कें आकर मिलती हैं यहां, कहीं न कहीं ट्राफिक रुकता ही है। यही उसका बाजार है- साल भर वह कुछ न कुछ बेचती है। कभी गुब्बारे, कभी खिलौने वाला हैंडपंप तो कभी-कभी अंग्रेजी की किताब या अखबार भी। उसका बेटा गेंदा और लड़की लल्ली, हैं तो सात-आठ साल के, लेकिन उससे भी ज्यादा तेज हैं सामान बेचने में।  कई बार लाल बत्ती पर सामान बेचने के समय कार-तिपहिया में बैठे लोग नसीहत दे जाते- ‘क्या बच्चे से काम करवा रही हो, स्कूल भेजो।’ जमुनिया के सामने एक सपना तैर जाता कि गेंदा और लल्ली भी टाई बांध कर बस्ता लेकर स्कूल जा रहे हैं। वह एक-दो बार स्कूल गई भी थी, लेकिन वहां पूछा गया- ‘निवास प्रमाण पत्र है?’ समझ ही नहीं आया कि यह होता क्या है। ‘राशन कार्ड भी नहीं? तो… तो कैसे होगा स्कूल में दाखिला! चलो बाहर!’
ये लो, आज फिर उसे वही पुरानी बातें याद आ गर्इं। इतने में ही ‘सेठजी’ मोटर साइकिल से आए- ‘जमुनिया, तैयार है न! नया साल आ रहा है, यही समय है कमाई का। खूब माल बेच।’

जमुनिया जैसे नींद से जाग गई, ‘हां, हां, आपकी मेहरबानी। जितना माल दोगे पूरा बेच लूंगी। आप चिंता न करें सेठजी।’
फिर वह सामान गिनने बैठ गई- ‘लाल रंग की लंबी वाली टोपी, सफेद दाढ़ी वाला मुखौटा, गुब्बारे, फिरकी, बजाने वाली सीटी और पी-पी करने वाला बाजा।’ सेठजी ने इतना सामान दे दिया कि जमुनिया को सोचना पड़ा- क्या इतना सब बिक जाएगा?
‘कम पड़ जाए तो फोन कर देना, सामने वाले पीसीओ से, और भिजवा दूंगा।’ सेठजी मोटर साइकिल से आगे बढ़ गए।
जमुनिया को बरबस हंसी आई- ‘कम पड़ जाए? पहले से ही इतना सारा दे गए है!’
तभी गेंदा और लल्ली हाथ में पैसे लेकर भागे हुए आए, ‘मां… मां… सारे गुब्बारे बिक गए… ये लो…’ जैसे ही उनकी निगाह इतनी सारी नई-नई रंग-बिरंगी चीजों पर गई, उनके हाथ से पैसे गिर गए।
‘मां… मां मैं भी ये लाल टोपी पहनूंगा।’ गेंदा ने एक टोपी उठाई और मां उससे छीनने लगी। तभी लल्ली ने हरे रंग का छोटा-सा बाजा उठाया और मुंह में लगा कर फंूक मार दी- पी… ई… ई… पी…।
‘बेटा ऐसा नहीं करते। यह तो त्योहर आने वाला है नया साल… उसका सामान है। अगर यह पूरा नहीं बिका तो याद रखना… नए कपड़े नहीं बन पाएंगे। ये कपड़े गंदे हो गए हैं ना…?’

‘मां, मेरा तो निक्कर फट गया है… नया चाहिए, सब गाहक मेरी मजाक बनाते हैं… जब तक मैं निक्कर छुपाता हूं, हरी बत्ती हो जाती है।’
‘सबको नए कपड़े आएंगे, जलेबी भी खिलाऊंगी, बस इस त्योहार का सारा सामान बेच दो बस।…’
‘मां यह नया साल… क्या बोल रहीं थी आप… दीवाली जैसा त्योहार है क्या? हमारे गांव में तो कभी होता नहीं था यह!’
असल में जमुनिया का घर वाला अतर सिंह दिल्ली में मजदूरी करता था। राजस्थान के दूर गांव में उसका परिवार रहता था। छह महीने पहले ही अतर सिंह अपने परिवार को दिल्ली लाया था घुमाने। तीन दिन तक जमुनिया, गेंदा और लल्ली ने दिल्ली खूब घूमी। लेकिन एक शाम लाजपत नगर के पास गेंदा दौड़ कर सड़क पार कर रहा था और सामने से एक कार आ रही थी। अतर सिंह दौड़ा और गेंदा को धक्का देकर बचा लिया, लेकिन वह खुद नहीं बच पाया। तब लाल बत्ती वाले सिपाहियों ने जमुनिया की खूब मदद की। उन्होंने ही सेठजी से उसे मिलवाया।
उसके लिए तो इस शहर में सब कुछ नया था। वह क्या जवाब देती गेंदा के सवाल का? उसने कह दिया- ‘शहर वालों का बहुत बड़ा त्योहरा होवे है ये नया साल। अपने को क्या करना है, बस सामान बिकना चाहिए।’
नए कपड़े और गोल-गोल जलेबी की कल्पना मात्र से गेंदा और लल्ली खिलौनो के प्रति अपना लोभ भूल गए। अब तो वे खाना-पीना छोड़ कर इस लाल बत्ती से उस लाल बत्ती उछल रहे थे।

लाल टोपी और सफेद दाढ़ी वाला मुखौटा लड़कियां भी खरीद रही हैं। सारा दिन तीनों को एक पल बैठने की फुरसत नहीं मिली। जैसे-जैसे अंधेरा बढ़ रहा था, भीड़ बढ़ रही थी, शोर बढ़ रहा था।
रात के कोई ग्यारह बजे तो उनके पास बेचने को कुछ नहीं बचा। जमुनिया ने पतीले में खिचड़ी डाल ली। खाना खाने बैठे कि लल्ली ने फिर पूछ लिया, ‘मां, इस त्योहार में किस भगवान की पूजा होती है?’
गेंदा भी उछला, ‘मां… मां यह कैसा त्योहार है? सब लोग गा रहे हैं, नाच रहे हैं, उधम कर रहे हैं… इसमें होता क्या है?’
‘बेटा, पता तो मुझे भी नहीं है। मैंने तो दरोगाजी से पूछा था। वे कह रहे थे कि कलैंडर बदलता है। तारीख बदलती है। सब कुछ नया हो जाता है। अब पता नहीं क्या नया होता होगा इसमें।’

वे बेहद थक गए थे। तीनों एक-दूसरे से लिपट कर सो गए। सुबह कुछ देर से नींद खुली। गेंदा, लल्ली को उठते ही मां की बात याद आई- सब कुछ बदल जाता है… सब कुछ नया हो जाता है! लेकिन यहां तो कुछ भी नया नहीं था। वही सांय-सांय करते दौड़ते कार-स्कूटर, वही दौड़ कर सड़क पार करते लोग। वही दरोगाजी, सफेद वर्दी पहने सड़क के बीच खड़े हाथ हिलाते हुए। हां, रोज की तुलना में कचरा ज्यादा हो गया है सड़कों पर।
दोनों ने मां की ओर देखा। मां भी समझ गई कि बच्चे आंखों ही आंखों में क्या पूछ रहे हैं। वह मुस्कुराई, ‘आज तुम्हारा त्योहार होगा। नए कपड़े आएंगे न दोनों के! कुछ तो बदलेगा न? भले तुम्हारे पुराने कपड़े ही।’
जमुनिया ने अपने आंचल से एक-एक सीटी और एक-एक बाजा निकाल कर दोनों को दिया। उसने ये चीजें अपने बच्चों के लिए छिपा रखी थी। और लाल बत्ती पर अब गेंदा-लल्ली का हंगामा मचा था। ०