मोहम्मद अरशद खान

आ ज सारा घर सजा हुआ था। सब बने-ठने घूम रहे थे। व्यस्त होने के बावजूद मम्मी, पापा और चाचा के चेहरों पर खुशी झलक रही थी। दादाजी का तो पूछो ही मत। सफेद कुर्ते-पाजामे पर आसमानी सदरी और नए जूते पहन कर खूब जंच रहे थे। खुशी के कारण उनकी मूंछें गालों पर उठी जा रही थीं। आज उनका जन्मदिन मनाया जा रहा था। वे पूरे सत्तर साल के हो गए थे। घरवालों के लिए दादाजी का जन्मदिन मनाया जाना सुखद आश्चर्य था। दादी के गुजरने के बाद वे किसी भी उत्सव में शामिल नहीं होते थे। कमरे में चुपचाप अकेले बैठे रहते। बाहर भी बहुत कम आते-जाते। पर दो दिन पहले उन्होंने चाचा को बुला कर कहा कि वे अपना जन्मदिन मनाना चाहते हैं। सब बहुत खुश हुए। दादाजी ने बेकरीवाले से केक के लिए खुद बात की। सारा घर दादाजी में आए इस बदलाव से बहुत हैरान था। पापा ने उत्साह में पूरा घर सजवा दिया था। चाचा ने पड़ोस से मिस्त्री को बुलवा कर बिजली की झालरें भी लगवा दी थीं। यह सब देख-देख कर दादाजी भी उत्साहित हो रहे थे।

मेहमानों को बुलाने की जिम्मेदारी दादाजी ने अपने जिम्मे ले रखी थी। उन्होंने कह रखा था कि जन्मदिन पर वे सिर्फ अपने दोस्तों को बुलाएंगे, और किसी को नहीं। पापा को भला कब इनकार हो सकता था। वे तो उनकी हर बात के लिए राजी थे। शाम होते ही दादाजी अपनी छड़ी लेकर बेसब्री से टहलने लगे। उन्हें अपने दोस्तों का इंतजार था। वे बार-बार दरवाजे तक जाकर झांक आते। उनकी बेचैनी देख कर पापा ने कहा, ‘बाबूजी, आपने सबको आमंत्रित तो कर लिया था न? कोई छूटा तो नहीं? कहिए तो मैं फोन करके दुबारा याद दिला दूं?’ ‘मेरे दोस्तों के पास फोन नहीं है।’ दादाजी ने सपाट-सा उत्तर दिया और गर्दन ऊंची करके सड़क की ओर देखने लगे। दादाजी के उत्तर पर पापा को बहुत आश्चर्य हुआ। दादाजी के दोस्त ही कितने थे। पुरुषोत्तम अंकल, गयादीन अंकल, करीम अंकल और गुरुसेवक अंकल। उन सबके पास अपने मोबाइल फोन थे। वे अक्सर एक-दूसरे से बात भी करते रहते थे। पापा को समझ में नहीं आ रहा था कि दादाजी ने ऐसा क्यों कहा? थोड़ी देर चुप रहने के बाद पापा फिर बोले, ‘पुरुषोत्तम अंकल तो अभी होम्योपैथ के क्लीनिक पर बैठे थे। मेरी उनसे बातचीत भी हुई। पर ऐसा लगा जैसे उन्हें आपके जन्मदिन की खबर नहीं है।’
‘आं… हां…’, दादाजी अनमने होकर बोले, ‘चलो, उनको भी बुला लेता हूं।’ यह कह कर दादाजी उन्हें फोन मिलाने लगे।
पापा के माथे पर बल पड़ गए। पुरुषोत्तम अंकल दादाजी के सबसे गहरे दोस्तों में से थे। वे उन्हें कैसे भूल गए? दादाजी रोज शाम को पार्क में टहलने के लिए निकलते थे। अपने दोस्तों से मिलते, बातें करते और लौट आते थे। इधर कुछ दिनों से वे पार्क जाने के लिए उतावले रहते थे। सूरज ढलने से पहले तैयारी शुरू कर देते। उनके चेहरे की चमक देखते ही बनती थी। कहते थे कि उनके कुछ नए दोस्त बने हैं। उनसे बातचीत और मौज-मस्ती में समय पता ही नहीं चलता। दो दिन पहले की बात है। दादा जी पार्क से लौट कर आए और चहकते हुए कहने लगे, ‘इस बार मुझे अपना जन्मदिन मनाना है। मेरे दोस्तों ने कहा है, इस बार वे केक जरूर खाएंगे।’

पापा हैरानी से सोच रहे थे कि आखिर ये नए दोस्त कौन से हैं, जिनके कारण दादाजी पुरुषोत्तम अंकल जैसे बचपन के दोस्त को भूल गए? काफी देर हो गई तो चाचा ने कहा, ‘बाबूजी अब देर हो रही है। हमें केक काट लेना चाहिए।’‘नहीं, नहीं, अभी नहीं। बस थोड़ा-सा इंतजार और। मेरे दोस्त आते ही होंगे।’ दादाजी घड़ी की ओर देखते हुए बेचैनी से बोले। थोड़ा समय और बीता। पापा थक कर बैठ गए। चाचा भी अपना मोबाइल निकाल कर अंगुलियां फिराने लगे। तभी अचानक दरवाजे की घंटी बजी। दादाजी चहक उठे। चाचा ने बढ़ कर दरवाजा खोला तो ‘हैप्पी बर्थ डे’ गाते हुए ढेर सारे बच्चे अंदर आ गए। दादाजी का चेहरा खिल उठा। कोई छोटा, कोई मोटा, किसी के सिर खजूर जैसी चोटी, किसी के बिखरे बाल, किसी के गुब्बारे जैसे गाल, कोई गोल-मटोल, कोई बार्बी डॉल। लगा जैसे सारा घर रंग-बिरंगे फूलों से भर गया है। दादाजी की खुशी देखने लायक थी। उन्होंने केक काटा। सबने जोर-जोर से ‘हैप्पी बर्थ डे’ गाया। बड़ी देर तक हंगामा होता रहा। दादाजी ने दोस्तों के साथ खूब मस्ती की। अंताक्षरी खेली, म्युजिकल चेयर में हिस्सा लिया, डीजे गानों पर डांस किया। मम्मी, पापा और चाचा भी बेहद खुश थे। दादाजी के दोस्तों के साथ उन्होंने भी खूब मजे किए। १