Caste Census: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाली राजनीतिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (सीसीपीए) ने आगामी जनगणना में जातियों की गणना को मंजूरी दे दी है। एक तरह से कई दशकों पुरानी मांग को ना-नुकुर के बाद राजग सरकार ने मान लिया। सरकार ने इस मुद्दे पर चार साल पहले संसद में औपचारिक रूप से व्यक्त की गई अपनी राय बदल ली। केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने 30 अप्रैल को निर्णय की घोषणा करते हुए कहा, जाति जनगणना हमारे समाज की सामाजिक और आर्थिक संरचना को मजबूत करेगी। इस एलान के बाद नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने कहा कि सरकार ने हमारी मांग मान ली है और हम इसके समर्थन में हैं। उल्लेखनीय है, भारत जोड़ो यात्रा के बाद से राहुल गांधी ने इसे अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव के साथ मुद्दा बना लिया था। हालांकि सत्तारूढ़ दल भाजपा के नेताओं ने इसे पहले देश तोड़ने वाली मांग बताया था। सरकार के अचानक रुख बदलने से लगता है कि यह शायद चुनावी लाभ के नजरियेसे हुआ है।अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यह गणना कब शुरू होगी, कब तक चलेगी और किस स्वरूप में की जाएगी।
एससी और एसटी के अलावा अन्य जाति समूहों के सदस्यों की गणना नहीं की गई
साल 1951 से अब तक की जनगणना में एकत्रित आंकड़ों में अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) तथा विभिन्न धार्मिक संप्रदायों से संबंधित व्यक्तियों की संख्या शामिल है। लेकिन एससी और एसटी के अलावा अन्य जाति समूहों के सदस्यों की गणना नहीं की गई है। सबसे हालिया जाति संबंधी आंकड़े 1931 की जनगणना से उपलब्ध हैं। युद्ध के दौरान की गई 1941 की जनगणना में जाति संबंधी आंकड़े एकत्र किए गए थे, लेकिन उन्हें कभी जारी नहीं किया गया।
स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना से पहले, सरकार ने जाति के सवाल से बचने का विकल्प चुना। उसके बाद, जाति जनगणना की मांग बार-बार उठाई गई, खासकर उन पार्टियों द्वारा जिनका आधार अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में था, मुख्य रूप से कृषक समुदाय और कारीगर। लेकिन किसी भी केंद्र सरकार ने कभी भी जाति सदस्यता की पूर्ण गणना नहीं की। वर्ष 2010 में, जब दशकीय जनगणना नजदीक आई, तो तत्कालीन कानून मंत्री एम वीरप्पा मोइली ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर अनुरोध किया कि 2011 की जनगणना के दौरान जाति/समुदाय संबंधी आंकड़े एकत्र किए जाएं।
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प्रधानमंत्री कार्यालय ने इस अनुरोध को भारत के महापंजीयक और जनगणना आयुक्त के पास भेज दिया, जिन्होंने इसे कबूल नहीं किया। मई 2010 में, राजद, सपा, द्रमुक और जद (एकी) जैसी पार्टियों और भाजपा के कुछ ओबीसी सांसदों द्वारा जाति जनगणना की मांग का जवाब देते हुए गृह मंत्री पी चिदंबरम ने संसद को आरजीआइ द्वारा जनगणना करते समय जाति के प्रश्न पर विचार करने में बताई गई कई तार्किक और व्यावहारिक कठिनाइयों से अवगत कराया।
चिदंबरम ने तर्क दिया कि गणना संकलन, विश्लेषण और प्रसार से अलग है। जनगणना का उद्देश्य अवलोकन संबंधी आंकड़े एकत्र करना है, जिसके लिए 21 लाख गणनाकर्ताओं, जिनमें से ज्यादातर प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक हैं, को प्रशिक्षित किया गया है। चिदंबरम ने कहा, उन्हें सवाल पूछने और उत्तरदाता द्वारा दिए गए उत्तर को दर्ज करने के लिए प्रशिक्षित किया गया है। गणनाकर्ता कोई जांचकर्ता या सत्यापनकर्ता नहीं है। हालांकि, यूपीए सहयोगियों के लगातार दबाव के कारण मनमोहन सरकार ने इस मुद्दे की जांच के लिए तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के नेतृत्व में मंत्रियों का एक समूह गठित किया। मंत्री समूह की सिफारिशों के आधार पर सरकार ने सितंबर 2010 में एक अलग सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) का निर्णय लिया।
सरकार ने कहा, जाति गणना जून 2011 से एक अलग कार्य के रूप में की जाएगी तथा जनगणना 2011 के जनसंख्या गणना चरण (फरवरी-मार्च 2011 में आयोजित की जाएगी) के समाप्त होने के बाद इसे सितंबर 2011 तक चरणबद्ध तरीके से पूरा कर लिया जाएगा। इससे खेल बदल गया और जाति गणना की मांग का राजनीतिक उद्देश्य पराजित हो गया।
एसईसीसी को 4,900 करोड़ रुपए की लागत से पूरा किया गया था। ग्रामीण विकास और शहरी विकास मंत्रालयों द्वारा 2016 में आंकड़े प्रकाशित किए गए थे, लेकिन जाति के आंकड़ों को इसमें शामिल नहीं किया गया था। जाति के आंकड़ों को सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय को सौंप दिया गया, जिसने वर्गीकरण के लिए तत्कालीन नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया के नेतृत्व में एक विशेषज्ञ समूह का गठन किया। आंकड़ों को अभी तक सार्वजनिक नहीं किया गया है।
वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले केंद्रीय भाजपा के अलावा लगभग सभी दल जाति जनगणना के समर्थन में सामने आए। बिहार में तो भाजपा भी इस मांग में शामिल हो गई। राहुल गांधी ने सरकार में प्रमुख पदों पर ओबीसी के असमान प्रतिनिधित्व का मुद्दा उठाया। कांग्रेस ने चुनाव में अपनी स्थिति में सुधार किया और 2019 में जीती गई 52 सीटों से बढ़कर 99 सीटों पर पहुंच गई। दूसरी ओर, भाजपा ने 2014 और 2019 में अपना बहुमत खो दिया, जिससे उत्तर प्रदेश सहित कुछराज्यों में उसे बड़ा झटका लगा।
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हाल ही में, कई राज्य सरकारों ने अपनी जाति जनगणना के आधार पर ओबीसी को उप-वर्गीकृत करके कोटा के भीतर कोटा लागू करने की कोशिश की है, जिसे वे सर्वेक्षण कहते हैं क्योंकि जनगणना तकनीकी रूप से केंद्र के संवैधानिक जनादेश का हिस्सा है। इससे पहले, एक अप्रैल, 2021 को संवैधानिक निकाय राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने सरकार से भारत की जनगणना 2021 अभ्यास के हिस्से के रूप में ओबीसी की जनसंख्या पर आंकड़े एकत्र करने का आग्रह किया था।
हालांकि, 20 जुलाई, 2021 को सरकार ने संसद को बताया कि नीतिगत तौर पर यह निर्णय लिया गया है कि जनगणना में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के अलावा अन्य जातियों की जनसंख्या की गणना नहीं की जाएगी। वैसे जाति जनगणना की मांग वाली कई याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय में लंबित हैं।
कोविड-19 महामारी के कारण 2021 की जनगणना में देरी हुई और तब से यह रुकी हुई है। समझा जाता है कि यह प्रक्रिया जल्द ही पूरी हो जाएगी, लेकिन अभी तक इसकी कोई तारीख तय नहीं हुई है। इस बीच, सरकार पर जाति जनगणना कराने का दबाव लगातार बढ़ता रहा। परिचालन की दृष्टि से, जनगणना एक बहुत बड़ी प्रक्रिया है, जिसके दो अलग-अलग भाग हैं। घरों की सूची बनाना और घरों की जनगणना। 2021 के लिए जनगणना प्रश्नावली को अंतिम रूप दे दिया गया था, लेकिन कोरोना के कारण इस प्रक्रिया को स्थगित करना पड़ा।
अक्तूबर 2024 में, सरकार ने आरजीआइ मृत्युंजय कुमार नारायण का कार्यकाल अगस्त 2026 तक बढ़ा दिया। जनगणना द्वारा एकत्र किए गए आंकड़े सरकारी नीति और राजनीतिक निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं को प्रभावित करेंगे। लोकसभा और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों का पूर्ण परिसीमन, जो 1971 से रुका हुआ है, वर्ष 2026 के बाद की गई पहली जनगणना तक के लिए स्थगित कर दिया गया है। और जाति जनगणना से निश्चित रूप से कुछ समुदायों के लिए आरक्षण बढ़ाने तथा जाति श्रेणियों के भीतर उप-वर्गीकरण की मांग को बल मिलेगा, विशेष रूप से ओबीसी के बीच।
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाली राजनीतिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (सीसीपीए) ने आगामी जनगणना में जातियों की गणना को मंजूरी दे दी है। एक तरह से कई दशकों पुरानी मांग को ना-नुकुर के बाद राजग सरकार ने मान लिया। सरकार ने इस मुद्दे पर चार साल पहले संसद में औपचारिक रूप से व्यक्त की गई अपनी राय बदल ली। केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने 30 अप्रैल को निर्णय की घोषणा करते हुए कहा, जाति जनगणना हमारे समाज की सामाजिक और आर्थिक संरचना को मजबूत करेगी। इस एलान के बाद नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने कहा कि सरकार ने हमारी मांग मान ली है और हम इसके समर्थन में हैं। उल्लेखनीय है, भारत जोड़ो यात्रा के बाद से राहुल गांधी ने इसे अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव के साथ मुद्दा बना लिया था। हालांकि सत्तारूढ़ दल भाजपा के नेताओं ने इसे पहले देश तोड़ने वाली मांग बताया था। सरकार के अचानक रुख बदलने से लगता है कि यह शायद चुनावी लाभ के नजरियेसे हुआ है।अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यह गणना कब शुरू होगी, कब तक चलेगी और किस स्वरूप में की जाएगी।
इतिहास से लेकर अब तक, जानें गणनाओं के सबक
जाति गणना क्या है
जाति गणना में राष्ट्रीय जनगणना कवायद के दौरान व्यक्तियों की जातियों पर आंकड़ों का व्यवस्थित संग्रह शामिल है। भारत में, जहां जाति ने ऐतिहासिक रूप से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक गतिशीलता को आकार दिया है, ऐसे आंकड़े जनसांख्यिकीय वितरण, सामाजिक-आर्थिक स्थितियों और विभिन्न जाति समूहों के प्रतिनिधित्व के बारे में जानकारी प्रदान कर सकते हैं। इस जानकारी का इस्तेमाल विभिन्न कार्यक्रमों में आरक्षण और सामाजिक न्याय पर नीतियों को सूचित करने के लिए किया जा सकता है।
लंबा इतिहास
ब्रिटिश भारत (1881-1931) : ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने 1881 और 1931 के बीच हर दशक में आयोजित जनगणना में जाति गणना को शामिल किया। इन सर्वेक्षणों ने विस्तृत जनसांख्यिकीय आंकड़े प्रदान करते हुए जनसंख्या को जाति, धर्म और व्यवसाय के आधार पर वगीकृत किया। यह कदम आंशिक रूप से भारत की जटिल सामाजिक संरचना को समझने और उस पर शासन करने की औपनिवेशिक आवश्यकता से प्रेरित था।
स्वतंत्रता के बाद का बदलाव (1951)
वर्ष 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद, 1951 में आजाद भारत की पहली जनगणना ने एक महत्त्वपूर्ण बदलाव को चिह्नित किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार ने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को छोड़कर जाति गणना को बंद करने का फैसला किया। यह निर्णय इस विश्वास पर आधारित था कि जाति पर ध्यान केंद्रित करने से विभाजन को बढ़ावा मिल सकता है और एक नए स्वतंत्र राष्ट्र में राष्ट्रीय एकता में बाधा उत्पन्न हो सकती है।
1961 का निर्देश
एक दशक बाद, 1961 में, केंद्र सरकार ने राज्यों को अन्य पिछड़ा वर्ग की राज्य-विशिष्ट सूचियां तैयार करने के लिए अपने स्तर से सर्वेक्षण कराने की अनुमति दी। यह कदम अनुसूचित जाति और जनजाति से परे सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े समूहों के लिए कल्याणकारी कदमों की मांग के जवाब में था। हालांकि, कोई राष्ट्रव्यापी जाति जनगणना नहीं की गई थी।
जाति गणना कैसे राजनीतिक मुद्दा बनी
साल 1980 में केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी के लिए 27 फीसद आरक्षण प्रदान करने की मंडल आयोग की सिफारिश ने जाति को फिर से राजनीतिक चर्चा में ला दिया। जाति संबंधी व्यापक आंकड़ों की कमी ने ओबीसी आबादी की सही पहचान और मात्रा निर्धारित करना चुनौतीपूर्ण बना दिया, जिससे जाति जनगणना की मांग बढ़ गई।
सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (एसईसीसी) 2011
वर्ष 2011 में, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार ने सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना करवाई, जो 1931 के बाद से देश भर में जाति के आंकड़े एकत्र करने का पहला प्रयास था। हालांकि, एसईसीसी 2011 के आंकड़ों को कभी भी पूरी तरह से जारी या उपयोग नहीं किया गया, जिसके कारण विपक्षी दलों और जाति-आधारित संगठनों ने इसकी आलोचना की।
राज्य स्तरीय पहल
राष्ट्रीय जातिगत जनगणना के अभाव में, बिहार, तेलंगाना और कर्नाटक जैसे राज्यों ने हाल के वर्षों में अपने-अपने यहां जाति सर्वेक्षण कराए हैं। इन सर्वेक्षणों का उद्देश्य राज्य-विशिष्ट आरक्षण नीतियों और कल्याण कार्यक्रमों का समर्थन करने के लिए आंकड़े एकत्र करना था। 2023 में बिहार के जाति सर्वेक्षण से पता चला कि ओबीसी और अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) राज्य की आबादी का 63 फीसद से अधिक हिस्सा हैं।
क्यों मायने रखती है?
जाति गणना एक जनसांख्यिकीय कवायद से कहीं अधिक है; यह गहरे सामाजिक निहितार्थों वाला राजनीतिक रूप से एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। विशेषज्ञों ने कहा है कि जनगणना में जाति को शामिल करने से आरक्षण नीतियों, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और सामाजिक न्याय पहल पर दूरगामी प्रभाव पड़ सकता है। यह चुनावी रणनीतियों को भी नया रूप दे सकता है, क्योंकि पार्टियां समर्थन पाने की होड़ में लगी रहती हैं।
कैसे बदले बोल?
जाति जनगणना को लेकर भाजपा से लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सुर में एकदम बदलाव इन दोनों संगठनों के समर्थकों को ही नहीं पच रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश में केवल चार जातियों-गरीब, युवा, अन्नदाता व महिला यानी ‘ज्ञान’- को ही मानते थे। लोकसभा चुनाव में भाजपा का इन चार वर्गों को ही लुभाने पर जोर रहा था। वहीं, विपक्षी दल विशेषकर कांग्रेस और पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी लगातार जाति जनगणना का मुद्दा उठा रहे थे। उन्होंने सबसे पहले कर्नाटक के कोलार में 16 अप्रैल 2023 को यह मुद्दा उठाया था।उनकी इस मांग का विपक्ष के कई नेताओं, जिनमें समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने खुलकर समर्थन भी किया।
पहले तो भाजपा के नेताओं ने खासकर योगी आदित्यनाथ ने ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ का नारा बुलंद किया और फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव की पहली रैली में धुले में कहा कि ‘एक हैं तो सेफ हैं।’ उन्होंने कहा कि कांग्रेस जातियों को लड़ाने का खेल कर रही है। इससे एक दिन पहले वाशिम की रैली में योगी आदित्यनाथ ने कहा था कि अगर हम ‘एक हैं तो नेक हैं और एक हैं तो सेफ हैं।’लोकसभा में भाजपा नेता अनुराग ठाकुर ने विपक्ष के नेता की जाति तक पूछ ली थी। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी का एक पुराना बयान सोशल मीडिया पर प्रसारित हो रहा है, जिसमें वे ‘जो करेगा जात की बात, उसको कस के मारूंगा लात’ कहते हुए दिख रहे हैं। आरएसएस ने पिछले दिनों यह इशारा कर दिया था कि उसे जाति जनगणना से कोई विरोध नहीं है, बशर्ते इस आधार पर राजनीति न हो। 29 अप्रैल, 2025 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की मुलाकात के बाद जाति जनगणना कराने की घोषणा हुई। भाजपा में ऐसा माना जाता है कि इस एलान से बिहार विधानसभा में विपक्ष इस मुद्दे का फायदा नहीं उठा पाएगा।