डाउन 5622 पूर्वोत्तर भारत से जोड़नेवाली एक प्रमुख रेल लेकिन सिरदर्द रेल । फौजी यात्रियों की अधिकता। दोगुने-तिगुने लोग। आरक्षण का कोई मतलब नहीं। जब तक स्लीपर कोच में ड्यूटी थी, अक्सर कोच में घुस ही नहीं पाता। इंचार्ज होने के बाद एसी कोच देखना पड़ता है, जिसमें वीआईपी और नेता-परेता की वजह से जाना ही पड़ता है। आज भी जब गाड़ी आई तो कंडक्टर ने इशारे से बताया कि कोई जगह नहीं है। आसपास घेरे हुए यात्रियों को मैंने भी हाथ हिला कर बता दिया कि कोई जगह नहीं है, बार-बार मत पूछिए! मैं अपनी कंडक्टर वाली सीट पर आकर बैठ गया। गाड़ी खुली तो एक लंबे कद-काठी के करीब सत्तर साल के बुजुर्ग एनएल गुप्त ने अपना टिकट दिखाया और कहा कि हम दोनों सीनियर सिटीजन हैं, हम दोनों का अपर बर्थ है। मेरी पत्नी को हार्ट प्रॉब्लम है, कोई लोअर बर्थ दे देते तो बड़ी मेहरबानी होती। मैंने चार्ट दिखाते हुए कहा, ‘देखिए एक भी जगह नहीं है। उन्होंने पूछा, ‘31 और 33 नंबर बर्थ का पैसेंजर कहा से आएगा?’
मैंने उन्हें बताया कि यह बुकिंग पटना से है तब तक आप उस बर्थ पर रहिए। बर्थवाले से रिक्वेस्ट कीजिएगा, हो सकता है मान जाए! एक बार कोच चेक करने के बाद मैं पैंट्रीकार में चला आया और मैनेजर से चाय बनवाने को कहा। मैनेजर केबिन में बैठा ही था कि अटेंडेंट ने आकर बताया कि मुगलसराय से जो दो बुजुर्ग चढ़े हैं उसमें लेडी की तबीयत खराब हो गई है। आपको बुलाया है। मैंने चाय का इंतजार भी नहीं किया और भागकर सीधे कोच में आया। उन्हीं बुजुर्ग गुप्ताजी की पत्नी बेचैनी की हालत में थीं और गुप्ताजी से कोई दवा मांग रही थीं। गुप्ताजी बैग में दवा ढ़ूंढ़ रहे थे, पर घबराहट में दवा मिल नहीं रही थी। उन्होंने ढूंढते-ढूंढते मुझसे पूछा,‘ कंडक्टर साहब कोई डॉक्टर नहीं है?’ मैंने चार्ट में देखा पर कोई डॉक्टर पैसेंजर का नाम नहीं दिखा। महिला छटपटाने लगी थी। वहां लोग इकट्ठा होने लगे थे।
मैंने कई केबिन में जाकर पूछा कि कोई डॉक्टर हैं? एक यात्री मेरे पास आकर बोला कि वह कोई डिग्रीधारी डॉक्टर तो नहीं है, बस एक आरएमपी हूं, चलिए देखते हैं! उन्होंने नब्ज देखी, पुतलियां देखी। गुप्ताजी से कहा, ‘छाती को पंप कीजिए!’ गुप्ताजी डॉक्टर के सुझाव का अनुसरण करते जा रहे थे। उनके साथ एक नौकर भी था, जो लगातार अपनी मालकिन के तलुवे को सहला रहा था। जिस डॉक्टर यात्री ने जाकर देखा था, उसने मुझे अलग ले जाकर बताया। ‘शी इज नो मोर’। इतनी बातें तो वहां उपस्थित सभी यात्री समझ रहे थे, लेकिन गुप्ताजी को लग रहा था, शायद कोई चमत्कार हो जाए! जिस दवा को वे ढूंढ़ रहे थे, आखिर उन्हें मिल गई थी लेकिन उसे खाने के लिए उनकी पत्नी जीवित नहीं थी। गुप्ताजी ने फिर भी एक छोटी-सी गोली उनके होंठों के नीचे दबाने की कोशिश की,…लेकिन सब व्यर्थ।
वे कभी बैठते, कभी खड़े हो जाते! ‘अब गाड़ी कहां रुकेगी ? वहां डॉक्टर आ जाएगा ?’ मैंने उन्हें बताया कि अब गाड़ी बक्सर में रुकेगी, वहां से सूचित करेंगे तो पटना में ही कोई डॉक्टर आ पाएगा! यों गुप्ताजी भी समझ रहे थे कि उनकी पत्नी अब नहीं रहीं! पर आदमी आशा और उम्मीद का दामन तब तक नहीं छोड़ता जब तक कि कुछ बातें अधिकृत तौर पर घोषित न हो जाएं!
बक्सर आने ही वाला था। मैंने जल्दी-जल्दी मेमो तैयार किया। बक्सर में गाड़ी सिर्फ दो मिनट रुकती है। एसी कोच पीछे की तरफ था जबकि डिप्टी एसएस का ऑफिस प्लेटफार्म के मध्य में है। एक परिचित रेल स्टाफ को बक्सर ही उतरना था। उसने कहा लाइए मैं अंदर-ही-अंदर आगे बढ़ रहा हूं। डिप्टी एसएस से रिसीव करवा लूंगा। आप गेट के पास रहिएगा, मैं रिसीविंग दे दूंगा। नहीं दे सका तो परसों तो भेंट होगी ही, ले लीजिएगा! खैर, उस स्टाफ ने शीघ्रता की और चलती गाड़ी में मुझे मेमोबुक पकड़ा दिया । इधर जब मैं फिर केबिन में आया तो देखा, गुप्ताजी अपनी मृत पत्नी के माथे पर कोई बाम मल रहे थे और नौकर पहले की तरह तलुवे सहला रहा था। उन्होंने मेरी ओर देखा । उनका चश्मा धुंधला गया था जैसे उस पर भाप की कोई परत चढ़ी हो। उन्होंने चश्मा उतार कर अपने मफलर से पोंछा फिर मुझसे पूछा,‘मैसेज भेज दिया क्या ?’ मैंने कहा,‘हां, मैसेज भेज दिया है, पटना में डॉक्टर आएगा। गुप्ताजी ने इस बार अपने कलेजे को मजबूत करते हुए कहा, ‘लेकिन अब…वह’ बाकी उन्होंने इशारे में ही कहा यानी नहीं है।
‘मुझे लगा कि अब झूठा ढाढ़स बंधाने का कोई मतलब नहीं है। मैंने पूछा, ‘आप कहां रहते हैं?’ उन्होंने बताया कि मैं सिलीगुड़ी में सेट्ल हूं। टी गार्डन में मैनेजर था। अब दोनों बेटे अलग-अलग गार्डन में मैनेजर हैं। वैसे मैं यूपी का ही रहने वाला हूं। काफी दिनों से पत्नी कह रह रही थीं कि बनारस चलिए, बाबा का दर्शन के लिए!’ गुप्ताजी ने फिर चश्मे को साफ किया। ‘शायद आखिरी प्रणाम करने आईथी।’ मैं अब आने वाली एक दूसरी समस्या की ओर उनका ध्यान खींचना चाहता था जो एक कंडक्टर के रूप में मेरे सामने आने वाली थी। एक दो यात्री दबी जुबान में कह चुके थे कि ‘डेड बॉडी तो आपको उतरवाना पड़ेगा!’
फिलहाल तो मैंने यह कहकर टाल दिया कि जब तक डॉक्टर ‘डाइंग डिक्लेरेशन’ नहीं देता मैं कैसे उतार सकता हूं। लेकिन मैं चिंतित था कि पटना में जब इस बर्थ का यात्री आएगा तो उसे कैसे एडजस्ट करूंगा? मैंने पूर्व-भूमिका बनाते हुए कहना शुरू किया, ‘जीवन और मौत तो ऊपरवाले के हाथ में है उस पर किसी का वश नहीं है…’ पटना में इस बर्थ का पैसेंजर आ जाएगा! नियम से ऐसी परिस्थिति में डेड बॉडी नहीं जा सकती! ’ इस आसन्न संकट से गुप्ताजी भी चिंतित हुए। हाथ जोड़कर बोले, ‘कंडक्टर साहब आप मदद कीजिए! किसी तरह हमें एनजेपी पहुंचा दीजिए।’ कहते-कहते उन्होंने अपने हाथ में रखा पोर्टफोलियो बैग का चेन खोला ,‘जो कहिए…’ मेरी सहानुभूति उनके साथ थी ही पर उनका बार-बार बैग खोलकर पैसे देनेवाला अभिक्रम से मुझे बड़ा जोर का गुस्सा आया। मैं एकाएक फट पड़ा। ‘इतना घटिया समझ लिया है आपने? अगले स्टेशन पर उतरवा ही दूंगा।’ बूढ़े ने मेरा घुटना पकड़ लिया। ‘मेरा दिमाग और खराब हो गया है। हमको माफ करिए। सोचिए न ! रात में कहीं भी उतारेंगे तो मैं बुरी तरह फंस जाऊंगा।’
गाड़ी पटना पहुंची तो रेलवे के डॉक्टर के साथ डिप्टी एसएस भी पहुंचे। डाक्टर द्वारा मृत घोषित कर दिए जाने के बावजूद डिप्टी एसएस ने उन्हें रेल से उतरवाने की कोई चेष्टा नहीं की। गाड़ी पटना से भी खुल गई और 31 और 33 बर्थ के आरक्षित यात्री आ गए थे। वे दोनों पति-पत्नी थे। उन्हें मालूम हो चुका था कि उसके बर्थ पर कोई महिला थी जो मर चुकी है। वे लोग कॉरिडोर में ही खड़े रहे। मेरे पहुंचते ही मुझ पर फायर हो गए। ‘आपने डेड बॉडी को क्यों नहीं उतरवाया? हम कैसे जाएंगे ? अब तो हम उस बर्थ पर जाएंगे भी नहीं, हमें दूसरा बर्थ दीजिए!’
हालांकि उस बुजुर्ग दंपति की जगहें तो खाली थीं। लेकिन वे अपर बर्थ थीं, जिस पर वे कतई नहीं जाते। मैंने कहा, थोड़ा इंतजार कीजिए मैं चेक करके आता हूं। खैर, 9 और 10 का पैसेंजर एनटी हो गया तो उन्हें वहीं भेज दिया। रात के साढ़े ग्यारह बज रहे थे। ज्यादातर यात्री सो रहे थे। मुझे अपना रिलीफ मेमो बनाना था। बरौनी पहुंचने में अभी डेढ़ घंटे की देर थी। आधे घंटे में मैंने अपना काम पूरा कर लिया। संयोग से आज पटना से कोई नेता-परेता नहीं चढ़ा था इस कारण कोई टेंशन नहीं था। मैं फिर केबिन में आया। नौकर अब भी अपनी मालकिन के पैताने बैठा था। गुप्ताजी ने पूछा, ‘आपकी ड्यूटी कहां तक है सर ?’ मैंने जब बताया कि मैं तो बस बरौनी तक हूं तो ये जानकर गुप्ताजी असहाय महसूस करने लगे।
मैंने उन्हें बताया कि बरौनी से दूसरा कंडक्टर आएगा आप उनसे रिक्वेस्ट कर लीजिएगा। मैं भी उनसे कह दूंगा।’ गुप्ताजी बोले, ‘बस किसी तरह कटिहार तक पहुंच जाएं, फिर हम मैनेज कर लेंगे। कटिहार में मेरे लड़के का दोस्त रेलवे में हैं। गुप्ताजी को ढाढ़स दिलाते हुए मैंने कहा, ‘देखिए ऐसी परिस्थिति में तो कोई दूसरा कंडक्टर भी मदद करेगा, लेकिन किसी यात्री ने ऑब्जेक्शन किया तो मुश्किल होगी! गनीमत है कि रात है और लोग सोए हैं। मैं मन-ही-मन सोच रहा था अगर बरौनी में डेड बॉडी उतारने की नौबत आई तो कहीं बेचारे गुप्ताजी का भी हार्ट अटैक न हो जाय! क्योंकि कल संडे है, लाश का पोस्टमार्टम भी नहीं हो पाएगा। एक दिन और रुकना पड़ जाएगा। पुलिस में बात गई तो पोस्टमार्टम में भेजेगा ही। गड़हरा यार्ड की रोशनी दिखाई तो मैंने बताया कि बरौनी जंक्शन आनेवाला है! देखें कौन कंडक्टर है ?
गुप्ताजी भी मेरे पीछे-पीछे गेट की तरफ आए। प्लेटफार्म पर गाड़ी घुसी तो मेरी नजर मूंछवाले अरुण सिंह पर पड़ी। उसने हाथ हिलाया तो मैं समझ गया कि आज इसी की ड्यूटी है। आदमी तो थोड़ा टिपिकल है, पता नहीं मदद करेगा कि नहीं? गाड़ी रुकते ही अरुण सिंह को मैं अलग ले गया। गुप्ताजी भी मेरे पीछे-पीछे आए। मैंने उन्हें पूरी बात बताई। अरुण सिंह ने गुप्ताजी को इशारे में जाने कहा लेकिन शायद उन्होंने समझा नहीं। उन्होंने फिर बैग खोला। कुछ रुपए निकालना चाहा तो मैंने फिर उन्हें बुरी तरह डांटा। ‘लगता है जीवन भर गलत कमाई ही की है आपने!
तभी सबको उसी नजरिए से देखते हैं…’ अरुण सिंह भी गुस्से में आ गए। ‘हम पैसा कमाते हैं लेकिन लाश पर से नहीं उठाते हैं…जाइए अपने बर्थ पर…और सुनिए, उन्हें अभी कुछ नहीं हुआ है वह सोई हुई हैं, समझे न आप? यह सुनकर गुप्ताजी वहां रुके नहीं, सीधे डिब्बे में चले गए। अगले दिन रेस्ट रुम में इस प्रकरण पर कई बार चर्चा हुई। मैं थोड़ा चिंतित था कि गुप्ताजी एनजेपी तक कैसे पहुंचे होंगे? अप में जब अरुण सिंह ने बैक रिपोर्ट दी तो तसल्ली हुई। सिंहजी ने बताया कि रास्ते में मैंने बुड्ढे से उसके लड़के का फोन नंबर ले लिया था।
कटिहार में पीसीओ से उसके लड़के से बातकर सारी बातें बता दी और स्टेशन से ले जाने का तरीका भी बता दिया। सौभाग्य से कटिहार-एनजेपी के कंडक्टर साहब भी अच्छे आदमी थे। जब वह लौटे तो बता रहे थे कि बुड्ढे के दोनों लड़के पहले से ही व्हील चेयर लेकर प्लेटफॉर्म पर खड़े थे। गाड़ी रुकते ही अपनी मां को एक सामान्य वृद्ध की तरह चेयर पर बिठाया और झटपट बाहर निकल गए। ‘बैक रिपोर्ट’ जानकर मुझे बड़ी राहत मिली । मैंने अरुण सिंह को धन्यवाद दिया। ‘कभी-कभी मानवता कानून से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है!’ अरुण सिंह ने चलते-चलते कहा,‘बूढ़ा आपकी बड़ी तारीफ कर रहा था।’ (रामदेव सिंह)