भारतीय सामाजिक और राजनीतिक चिंतन में अस्मितावादी तकाजा पिछले कई दशकों से लगातार हावी रहा है। इस लिहाज से भारतीय समाज के वर्गीय चरित्र पर भी खूब बातें होती रही हैं। सबसे अहम है कि इस पूरी चिंता और विमर्श के केंद्र में यह बात है कि लंबे समय तक जाति-धर्म के आधार पर भारतीय समाज में ऊंच-नीच का अंतर रहा है। सभ्यता और कुलीनता के कथित बोध ने समाज के एक हिस्से के साथ लंबे समय तक अमानवीय सलूक किया है।
यही नहीं, अमानवीयता का व्यवहार कई रूपों में आज भी बहाल है और इस कारण सामाजिक अंतर्विरोध के कई पहलू जब-तब नए सिरे से उजागर होते रहते हैं। बड़ी बात यह है कि इस अंतर्विरोध से निकलने के लिए नए सामाजिक तर्क और रास्ते सुझाए जाते रहे हैं जबकि इसके लिए कई संवेदनशील पहल पूर्व में न सिर्फ हो चुके हैं बल्कि उसका समृद्ध इतिहास भी है। भारतीय सामाजिक परंपरा और इतिहास को लानत से देखने के बजाए अगर इन पहलों को देखें-समझें तो हमें मौजूदा सूरत से निपटने में न सिर्फ मदद मिलेगी बल्कि यह सब ऐतिहासिकता के ठोस अनुभवों और तर्कों पर भी खरा उतरेगा।
गौरतलब है कि भारतीय संत परंपरा ने उस दौर में समाज और संस्कृति को संवेदना, सौहार्द और आस्था जैसे मानवीय सरोकारों से जोड़ा, जब बाकी दुनिया मध्यकालीन अंधेरे में डूबी थी। इन संतों की फेहरिस्त भी कोई इकहरी नहीं है। जिस संत की इन दिनों काफी चर्चा है वे हैं रविदास। भारत के किसी भी संत को शायद ही इतने अलग-अलग नामों से पुकारा गया होगा, जितना कि रविदास को। पंजाब के लोगों ने उन्हें रविदास कहा। ‘आदि ग्रंथ’ या ‘गुरुग्रंथ साहिब’ में जहां कहीं भी उनके पद संकलित हैं, वहां उनका नाम रविदास ही लिखा गया है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में उन्हें रैदास के नाम से ज्यादा जाना जाता है। गुजरात और महाराष्ट्र के लोग उन्हें रोहिदास के नाम से पुकारते हैं। इसी तरह बंगाल के लोग उन्हें रुइदास के रूप में याद करते हैं।
संत कबीर की तरह रैदास भी जातीय और धार्मिक सामाजिक ढांचे पर न सिर्फ सवाल खड़े करते हैं बल्कि वे प्रेम और समन्वय की बात कहकर सामाजिक सद्भाव के लिए बड़ी पहल भी करते हैं। उनका जन्म चर्मकार परिवार में हुआ था। कहा जाता है कि जिस दिन उनका जन्म हुआ, उस दिन रविवार था। इसी कारण उनका नाम रविदास रखा गया।
उनका जन्मस्थान काशी है। पर उनकी ख्याति और स्वीकृति ने स्थान और भाषा की दूरी को अपने समय में ही मिटा दी थी। श्रम, आस्था और समता की सैद्धांतिक त्रयी के साथ भारत की संत परंपरा को देखें तो पहली बात तो यही दिखेगी कि श्रम के साथ संतों की भक्ति परवान चढ़ी है। कबीर आजीवन जुलाहा रहे, संत सैन ने नाई का पेशा नहीं छोड़ा, नामदेव ने रंगरेजी जारी रखी तो दादू दयाल रुई धुनाई के अपने काम में लगे रहे। इसी तरह गुरु नानक ने अपने जीवन के आखिरी के दिनों में खेती की। वैसे श्रम की यह साध जारी रखते हुए आस्था और भक्तिमें गहरे उतरना रैदास के लिए आसान नहीं था।
उनका पुश्तैनी पेशा जूते बनाने का था। यह पेशा और इससे जुड़ी जाति सामाजिक तौर पर कभी भी सम्मानित नहीं मानी गई। लिहाजा आस्था से समता के संदेश तक की रैदास की यात्रा आसान नहीं थी। पर इतनी बात शायद रैदास ने नहीं सोची, उनके मन और सोच में तो सिर्फ राम और गोविंद समाए थे, इन्हीं की लगन थी। इससे आगे सब व्यर्थ और गैरजरूरी। आलम यह रहा कि कबीर जैसे संत ने भी कहा- ‘साधुन में रविदास संत।’
दिलचस्प यह भी कि रैदास खुद तो बड़े संत हैं ही, उनका नाम अन्य संतों से भी जुड़ा है। वे कबीर के गुरुभाई हैं। स्वामी रामानंद एक तरह से गंगोत्री हैं जिनसे कबीर और रैदास जैसी कई धाराएं फूटी हैं। एक तरफ रैदास के गुरु रामानंद जैसे अद्भुत व्यक्तिहैं, तो दूसरी तरफ रैदास की शिष्या हैं मीरा जैसी अद्भुत नारी। इन दोनों के बीच में भक्ति और समता की चमक अनूठी है। रैदास ने जिस तरह श्रम की महत्ता और संवेदना को जरूरी तकाजे के तौर पर स्वीकृति दिलाई, वह हमारे लिए आज भी एक सामाजिक सुलेख और प्रेरणा की तरह है।
इसे भी भारत में भक्ति परंपरा और साहित्य की विशेषता ही मानेंगे कि इसमें महावीर और बुद्ध जैसे संत रैदास के मुकाबले पीछे छूट गए। यही नहीं, जिस काशी में ब्राह्मणों ने ज्ञान और शास्त्र के आधार पर अपना वर्चस्व विकसित कर लिया था, उनके बीच रैदास अपनी धुन के साथ खड़े होने का साहस दिखाते हैं। कमाल यह कि इस साहस में सहजता इतनी है कि आगे स्वीकृति के लिए उन्हें ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ता। कोरा पांडित्य का किला ध्वस्त हो जाता है और एक साधारण संत की प्रेमल वाणी को, उसके समन्वयी तकाजे को सब आगे बढ़कर स्वीकार करते हैं।
रैदास के बारे में मीरा आगे बढ़कर कहती हैं कि मैं तो भटकती फिर रही थी, बहुतों में तलाशा, बहुतों को आजमाया, लेकिन रैदास को देखा तो झुक गई। एक साधारण चर्मकार के आगे राजरानी का झुकना असाधारण बात है। दरअसल, ऐसे उदाहरणों के साथ भक्ति और सामाजिक समता का आदर्श कैसे पूरा होता है, इसे समझना भारतीय संस्कृति की आत्मा के साथ साक्षात्कार करने जैसा है।