महापुरुषों के जीवन के ऐतिहासिक ही नहीं, वैसे प्रसंगों की भी खूब चर्चा होती है जिनकी प्रामाणिकता को लेकर कोई ठोस बात नहीं कही जा सकती। दरअसल, यह प्रक्रिया है प्रेरणा को कहासुनी के जरिए आगे ले जाने की, जिसमें महापुरुषों का जीवन कभी आधार बनता है, तो कभी माध्यम। ऐसा ही एक प्रेरक प्रसंग कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर से जुड़ा है।
एक दिन की बात है कि शांति निकेतन के अपने कक्ष में कविगुरु कविता लिख रहे थे। कविता लिखने में वे इतने तल्लीन थे कि उन्हें आभास ही नहीं हुआ कि कोई इनके कक्ष में दबे पांव दाखिल हो गया है। वह एक डाकू था, जो किसी अज्ञात द्वेषवश कविगुरु की हत्या के उद्देश्य से आया था। निकट पहुंचकर वह तेज आवाज में बोला, ‘आज मैं तेरी प्राणलीला समाप्त करके ही जाऊंगा।’
डाकू की आवाज सुनकर कविगुरु का ध्यान उस ओर गया। देखा, बगल में डाकू हाथ में एक धारदार हथियार लिए खड़ा है और उन पर वार की ताक में है। वे बोले, ‘तनिक ठहरो, एक सुंदर भाव उत्पन्न हुआ है, उसे मैं कविता में उतार लूं, उसके बाद तुम मुझे मार देना। मैं तुम्हें नहीं रोकूंगा। आनंदपूर्वक अपने प्राण दे दूंगा।’ इतना कहकर वे फिर से काव्य लेखन में तल्लीन हो गए। डाकू उन्हें देख हतप्रभ रह गया। कविगुरु काव्य लेखन में ऐसे डूबे कि उन्हें भान ही नहीं रहा कि बगल में उनकी हत्या के प्रयोजन से आया डाकू खड़ा है।
जब कविता पूरी हुई, तो कविगुरु को डाकू का खयाल आया। उसकी ओर देखकर वे बोले, ‘विलंब के लिए क्षमा करना। कविता लिखने की तल्लीनता में मैं तुम्हारे बारे में भूल ही गया। अब तुम अपना प्रयोजन सिद्ध कर सकते हो। कविगुरु के इतना कहते ही डाकू उनके चरणों में गिर पड़ा। उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। हत्या का विचार त्याग कर वह कविगुरु से क्षमायाचना करने लगा। यह प्रसंग तन्मयता और सृजन के साथ उस आत्मनिष्ठा का भी ज्ञान देता है, जिससे हमें संवेदनशील और निर्भीक बनने की प्रेरणा मिलती है।