एक व्यक्ति जो मृत्यु के करीब था, मृत्यु के पहले अपने बेटे को उसने चांदी के सिक्कों से भरा थैला दिया और बताया, ‘जब भी इस थैले से चांदी के सिक्के खत्म हो जाएं तो मैं तुम्हें एक प्रार्थना बताता हूं, उसे दोहराने से चांदी के सिक्के फिर से भरने लग जाएंगे।’ उसने बेटे के कान में चार शब्दों की प्रार्थना कही और वह मर गया। वह थैला इतना बड़ा था कि उसे खर्च करने में कई साल बीत गए। इस बीच, वह प्रार्थना भूल गया। उसने बहुत याद किया, उसे याद ही नहीं आया।

अब वह लोगों से पूछने लगा। पहले पड़ोसी से पूछा। पड़ोसी ने कहा, ‘हां, एक चार शब्दों की प्रार्थना मुझे मालूम है- ईश्वर मेरी मदद करो।’ उसने सुना और उसे लगा कि ये वे शब्द नहीं थे, कुछ अलग थे। फिर वो एक पादरी से मिला, उसने बताया, ‘ईश्वर तुम महान हो- ये चार शब्दों की प्रार्थना हो सकती है।’ इन शब्दों को दोहराने से भी थैला नहीं भरा तो वो काफी उदास रहने लगा।

एक दिन एक भिखारी उसके दरवाजे पर आया। उसने कहा, ‘सुबह से कुछ नहीं खाया, खाने के लिए कुछ हो तो दो। उस लड़के ने बचा हुआ खाना उस भिखारी को दे दिया।’ भिखारी ने खाना खाकर बर्तन वापस लौटाया और ईश्वर से प्रार्थना की- ‘हे ईश्वर! तुम्हारा धन्यवाद।’ अचानक वह चौंक पड़ा और चिल्लाया- अरे! यही तो वे चार शब्द थे। उसने वे शब्द दोहराने शुरू किए और उसके थैले में सिक्के बढ़ने लगे। इस तरह उसका पूरा थैला भर गया। उसकी समझ में यह बात बैठ गई कि जब उसने किसी की मदद की तब उसे वह मंत्र फिर से मिला।

हे ईश्वर! तुम्हारा धन्यवाद। यह बड़ी प्रार्थना है। यह संतोष और अच्छे मन से निकली प्रार्थना है। दरअसल, ईश्वर की प्रार्थना हमें विनयशीलता सिखाती है। बिना विनयशील हुए न ही हम विवेक से कोई कार्य कर पाते हैं और न ही जीवन में किसी तरह की समृद्धि ही आती है।