मन का भटकाव कोई आश्चर्य की बात नहीं। वह सदा अच्छे से अच्छा की तलाश में फिरता रहता है। जो है, उससे कभी संतुष्ट नहीं होता, हर दूसरी और नई चीज उसे आकर्षित करती है। लाख उसे संतोष की शिक्षा दी जाए, पर संतोष होता नहीं। जो है, उससे अधिक उसे चाहिए, जो है, उससे बेहतर उसे चाहिए। मन की प्यास मिटती ही नहीं। इसलिए मन के भटकाव को मृगमरीचिका से तोला जाता रहा है।
चूहे की कथा प्रसिद्ध है। चूहा बिल्ली से परेशान रहता था। वह चिंतित रहता कि किस तरह उसे बिल्ली का जीवन मिल जाए, तो उसका भय समाप्त हो जाए। हर समय बिल्ली से न डरना पड़े। वह एक समाधिस्थ संत के निकट रहता था।
वहीं उसने बिल बना रखी थी। संत के आसपास की जगह को साफ कर दिया करता था। जब संत ध्यान से उठे और देखा कि चूहा उनकी सेवा में लगा है, तो उन्होंने प्रसन्न होकर वरदान मांगने को कहा। चूहे की साध पूरी हुई। उसने कहा कि महाराज, मुझे बिल्ली बना दो। संत ने वैसा ही किया। मगर बिल्ली बन कर भी चूहे का भय समाप्त नहीं हुआ। अब उसे कुत्ते का भय सताने लगा।
तब उसने संत से वरदान मांग कर कुत्ते का जीवन ले लिया। पर समस्या तब भी समाप्त नहीं हुई। अब शेर का भय सताता रहता। फिर उसने संत की सेवा की और शेर का जीवन मांग लिया। अब तो वह अपनी ताकत के घमंड में चूर था। एक दिन संत पर ही गुर्रा बैठा। संत नाराज हो गए। उन्होंने उसे श्राप दे दिया- पुनर्मूसको भव। वह फिर से चूहा बन गया।
मनुष्य भी इसी तरह ताकतवर से ताकतवर बनने की चाह में भटकता रहता है। संतोष नहीं होता। इसका नतीजा अक्सर यह होता है कि वह फिर उसी स्थिति में लौट आता है, जिस स्थिति में वह था। मन में संतोष न हो तो शांति भी नहीं मिलती।