स्वाधीनता बाद की भारतीय राजनीति में गैर-कांग्रेसवाद के बढ़ते जोर और अंतत: उसके सत्ता के प्रभावी गणित में बदलने की कथा कांग्रेस के बाहर से नहीं, कांग्रेस के भीतर से शुरू होती है। दरअसल, यह कांग्रेस विरोध से ज्यादा कांग्रेस के अपने अंतर्विरोध का आख्यान है। आजादी से पूर्व कांग्रेस का समाजवादी खेमा सत्तर का दशक आते-आते नए सियासी शिविरों-पंडालों में नजर आने लगा। प्रदेशों में कांग्रेस से छिटके नेता नए क्षत्रप के तौर पर उभरे, तो वहीं इनमें से कई ऐसे भी रहे जिन्होंने केंद्र में कांग्रेस की सत्ता से बेदखली की पटकथा तैयार की। ऐसे ही एक कद्दावर नेता थे रामकृष्ण हेगड़े। उन्होंने एक लंबी और सघन सियासी पारी खेली, जिसमें वे एक ऐसे क्षत्रप के तौर पर उभरे जिसे बड़ी राष्ट्रीय स्वीकृति भी हासिल थी।
हेगड़े का जन्म कर्नाटक में उत्तर कन्नड़ जिले के सिद्धपुरा में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वे महाबलेश्वर हेगड़े और सरस्वती अम्मा हेगड़े के पुत्र थे। उन्होंने अपनी पढ़ाई का एक हिस्सा वाराणसी के काशी विद्यापीठ से पूरा किया और बाद में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री हासिल की। स्वाधीनता संघर्ष के दिनों से ही वे कांग्रेस के सक्रिय सदस्य थे। पर सांगठनिक तौर पर कांग्रेस पार्टी में उन्हें आजादी बाद के दशकों में अहमियत मिलनी शुरू हुई।
1954 से 1958 तक वे उत्तर कन्नड़ जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे। 1958 में ही वे मैसूर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के महासचिव बने। वे पहली बार 1957 में कर्नाटक विधानसभा के लिए चुने गए और उन्हें उपमंत्री बनाया गया। बाद में 1962-71 के बीच कई विभागों के कैबिनेट मंत्री के रूप में उन्होंने प्रभावशाली कार्य किया। 1969 में कांग्रेस में प्रसिद्ध विभाजन के दौरान हेगड़े अपने गुरु निजलिंगप्पा के नक्शेकदम पर चले और कांग्रेस (ओ) में शामिल हो गए।
1975 में आपातकाल के दौरान देश के तमाम विपक्षी नेताओं के साथ उनकी भी गिरफ्तारी हुई। जब आपातकाल हटा तो वे जनता पार्टी में शामिल हो गए और कर्नाटक राज्य इकाई के पहले महासचिव बने। 1978-83 के दौरान वे राज्यसभा के सदस्य थे। जब 1983 के चुनाव में कर्नाटक में जनता पार्टी सबसे बड़े दल के तौर पर सत्ता में आई, तो वे शक्तिशाली लिंगायत और वोक्कालिगा लॉबी के बीच आम सहमति वाले उम्मीदवार के रूप में उभरे। इस तरह हेगड़े कर्नाटक के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने।
1984 में हुए आठवींं लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी के खराब प्रदर्शन के बाद हेगड़े ने इस आधार पर इस्तीफा दे दिया कि उनकी पार्टी ने अपना लोकप्रिय जनादेश खो दिया है। 1985 के चुनाव में कर्नाटक में जनता पार्टी अपने दम पर सहज बहुमत के साथ सत्ता में आई।
1983 और 1985 के बीच और फिर 1985 और 1988 के बीच मुख्यमंत्री के रूप में वे संघीय ढांचे के भीतर राज्य के अधिकारों के सक्रिय समर्थक बनकर उभरे। पंचायत और स्थानीय निकायों की सशक्त बनाने की दिशा में उन्होंने उल्लेखनीय कार्य किया। हालांकि बाद के दिनों में उनकी राजनीतिक चमक फीकी पड़ी। उन पर भ्रष्टाचार के कई संगीन आरोप लगे।
नौबत यहां तक आई कि राज्य के प्रमुख राजनेताओं और व्यापारियों के फोन टैपिंग के आरोप के बाद उन्हें 1988 में मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। इसके बाद उन्होंने जनता पार्टी भी छोड़ दी और जनता दल में शामिल हो गए। वे वीपी सिंह के कार्यकाल के दौरान योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे। बाद में जनता दल से भी उनकी विदाई हुई। इसके बाद उन्होंने अपनी पार्टी बना ली और भाजपा के साथ गठबंधन करके 1998 के आम चुनाव में कर्नाटक में बड़ी जीत हासिल की। वे 1998 में केंद्र में बनी एनडीए सरकार में वाणिज्य मंत्री रहे। यह उनकी सियासी पारी की आखिरी चमक थी।