भारत के जिन चित्रकारों ने पाश्चात्य शैली की कला से प्रभाव ग्रहण कर भारतीय विचारों को उसमें पिरोया और चित्रकला को नए आयाम दिए, उनमें नारायण श्रीधर बेंद्रे का नाम भी अग्रणी है। वे बड़ौदा समूह के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। उनका जन्म इंदौर में हुआ। उन्होंने भूदृश्य चित्रकार यानी लैंडस्केप आर्टिस्ट के रूप में अपनी पहचान बनाई थी। कला की प्रारंभिक शिक्षा उन्होंने राजकीय कला विद्यालय, इंदौर से प्राप्त की थी और उच्च शिक्षा मुंबई से प्राप्त की थी।

पर्यटन में रुचि के कारण उन्होंने अनेक यात्राएं कीं और इन यात्रा दृश्यों को अपनी कलाकृतियों में भिन्न-भिन्न शैलियों में ढाल कर प्रस्तुत किया। बेंद्रे के प्रारंभिक चित्रों में इंदौर शैली का प्रचुर प्रभाव है। बाद के दिनों में उन्होंने दृश्यचित्रण और तैल तथा गोचा शैली को भी अपने चित्रों में उतारना शुरू किया था। वर्गाकृतियों, छायावाद और अमूर्तन के क्षेत्र में भी उन्होंने अनेक प्रयोग किए। उनकी कलाकृति ‘कांटे’ को 1955 में राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किया गया था। यह कलाकृति यूरोपीय आधुनिक शैली और पारंपरिक भारतीय शैली के मेल की उत्कृष्ट मिसाल है।

1948 में नारायण श्रीधर बेंद्रे ने न्यूयार्क की विंडर मेयर गैलरी में अपने चित्रों की प्रदर्शनी लगाई थी। वहां से लौटते हुए वे यूरोप होते हुए आए, जहां उन्हें आधुनिक शैली के अनेक चित्रकारों से मिलने और उनकी कलाकृतियों तथा शैलियों को समझने का अवसर मिला। 1958 में उन्होंने पश्चिम एशिया, लंदन और 1962 में जापान की यात्रा की।

1950 से 1966 तक नारायण श्रीधर बेंद्रे ने बड़ौदा के कला संकाय में अध्यापन किया, फिर डीन के पद से सेवानिवृत्ति ली और अपने अंतिम समय तक चित्रकारी करते रहे।

नारायण श्रीधर बेंदे को पहली बार व्यापक पहचान 1934 में मिली, जब उन्हें बांबे आर्ट सोसायटी ने रजत पदक से सम्मानित किया। 1969 में भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया। 1971 में उन्हें नई दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय त्रिवार्षिकी के निर्णायकों में रखा गया था और 1974 में ललित कला अकादेमी के सदस्य चुने गए।

ललित कला संकाय बड़ौदा में उन्होंने नए कार्यक्रम की नींव रखी थी। यहीं पर उन्होंने घनवाद, प्रभाववाद और अमूर्तन के साथ प्रयोग शुरू किए। ‘सूरजमुखी’, ‘तोता और गिरगिट’ जैसे चित्रों की रचना की। 1966 में बड़ौदा से कार्यमुक्त होने के बाद, बेंद्रे ने बिंदु के साथ प्रयोग किया और हर दूसरे वर्ष मुंबई में प्रदर्शनियां आयोजित की।

ललित कला में एक पुनरावलोकन प्रदर्शनी के साथ उनके काम को महत्त्व प्रदान किया गया। उन्हें सर्वोच्च भू-दृश्य चित्रकार, संगीतकार और रंगों के उस्ताद के रूप में जाना जाता है। वे लघु चित्रकला से अत्यधिक प्रभावित थे। उन्होंने आधुनिक पाश्चात्य प्रभाव को आत्मसात करते हुए कला के क्षेत्र में अपनी एक अलग शैली विकसित की और अपनी एक अलग पहचान बनाई थी।

उन्होंने रोजमर्रा की जिंदगी से लेकर अमूर्तन तक के सूक्ष्म विषयों को दर्शाते हुए अभिनव प्रयोग किए। उन्होंने अपनी कल्पना को रंग, रेखा या रूप के कठोर ढांचे तक सीमित रखने में कभी विश्वास नहीं किया।

उनके उल्लेखनीय काम हैं- ‘हेयरडू’, ‘द सनफ्लावर’, ‘मंकी’, ‘द काउ एंड द काफ’, ‘द फीमेल काउहर्ड’, ‘होमबाउंड’, ‘द बैल कार्ट’ और ‘गपशप’।
उनके प्रमुख छात्रों में बालकृष्ण पटेल, गुलाम रसूल संतोष, गुलाम मोहम्मद शेख , हकू शाह, जयंत पारिख, ज्योति भट्ट, कामुदबेन पटेल, नैना दलाल, श्री रंजीतसिंह प्रतापसिंह गायकवाड़, रतन परिमू , शांति दवे, त्रिलोक कौल थे।