इक्कीसवीं सदी की चौंध के बीच पिछली सदी की इबारतों को पढ़ना थोड़ा मुश्किल हो गया है। वैसे विकास के साथ मानवीय संवेदनाओं के बदले सरोकारों के बीच यह देखना-समझना खासा दिलचस्प है कि इस देश ने औपनिवेशिक दासता के अंधेरे में भी साहित्य और संस्कृति की अपनी चमक को बहाल रखा, उसे और आगे बढ़ाया। यह बात तब और महत्त्वपूर्ण हो जाती है जब हम हिंदी या अंग्रेजी का नहीं बल्कि पंजाबी जैसी क्षेत्रीय भाषा का जिक्र करते हैं। पंजाबी साहित्य में एक बड़ा नाम है नानक सिंह। उन्होंने रचा भी खूब और वे पढ़े भी खूब गए। उन्होंने एक तरफ जहां पंजाबी परिवार, समाज और संस्कृति से जुड़ी कहानियां और उपन्यास लिखे, वहीं उन्होंने फिरंगी दासता के खिलाफ भी निर्भीकता के साथ कलम चलाई। पंजाबी उपन्यासों का तो उन्हें पितामह ही माना जाता है। इसके अलावा उनकी एक बड़ी खासियत या उपलब्धि यह रही कि उनके रचनाकर्म से पंजाबी भाषा का साहित्यिक सामर्थ्य ऐतिहासिक तौर पर सामने आया।
उनका जन्म आज के पाकिस्तान के झेलम जिले में एक गरीब पंजाबी हिंदू परिवार में हुआ था। उनका शुरुआती नाम ‘हंस राज’ था। बाद में सिख धर्म अपनाने के बाद उन्होंने अपना नाम ‘नानक सिंह’ रख लिया। उनके बारे में यह उल्लेखनीय है कि उन्हें औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी। फिर भी बहुत कम उम्र से ही उन्होंने ऐतिहासिक घटनाओं पर कविताएं लिखनी शुरू कर दी थी। बाद में सिंह ने शबद लिखना शुरू किया, जो काफी लोकप्रिय हुआ। 1918 में शबद की उनकी पुस्तक ‘सतगुरु महमा’ के नाम से आई। उस जमाने में इसकी एक लाख से ज्यादा प्रतियां बिकी थीं।
13 अप्रैल, 1919 को बैसाखी के दिन जलियांवाला बाग में शांतिपूर्ण सभा कर रहे लोगों को ब्रितानी सैनिकों ने गोलियों से मौत के घाट उतार दिया। यह औपनिवेशिक नृशंसता की ऐसी घटना थी, जिसने पूरे देश को एक साथ झकझोर दिया। नानक सिंह अपने दो दोस्तों के साथ वहां गए थे, जो मारे गए। इस घटना ने सिंह को विदेशी दमन के खिलाफ निर्भीकता के साथ कलम उठाने को मजबूर किया। ‘खूनी बैसाखी’ नाम से लिखे महाकाव्य में फिरंगी शासन की जिस तरह उन्होंने खिल्ली उड़ाई, उससे इस कृति को जहां खासी प्रसिद्धि मिली, वहीं उनकी निर्भीकता का सबने लोहा माना। हालांकि कुछ ही दिनों में उत्तेजक प्रकाशन ठहराते हुए ब्रितानी सरकार ने इस पुस्तक पर पाबंदी लगा दी।
इसके बाद सिंह ने भारतीय स्वाधीनता संघर्ष में जमकर शिरकत की। वे अकाली पत्रों के संपादक बने। उनकी गतिविधियों पर ब्रितानी हुकूमत की नजर लगातार बनी हुई थी। उन पर गैरकानूनी राजनीतिक गतिविधियों में शरीक होने का आरोप लगाया गया और उन्हें बोरसाल जेल, लाहौर भेज दिया गया। उन्होंने इस दौरान शांतिपूर्ण सिखों पर अंग्रेजों की बर्बरता को लेकर काव्यात्मक हस्तक्षेप किया। इस तरह ‘जख्मी दिल’ नाम से उनका दूसरा कविता संग्रह सामने आया। यह जनवरी, 1923 में प्रकाशित हुआ पर प्रकाशन के दो हफ्ते के भीतर ही इसे प्रतिबंधित कर दिया गया। ‘इक म्यान और दो तलवारें’ उपन्यास के लिए 1962 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। इससे पहले 1945 में आए ‘पवित्र पापी’ उपन्यास की भी खासी चर्चा रही। बाद में इस पर एक फिल्म भी बनी। नानक सिंह का साहित्य एक तरफ जहां पंजाबी कौम की जिंदादिली का अक्षर दस्तावेज है, वहीं दूसरी तरफ इस कौम को जिस तरह विभाजन जैसी पीड़ा झेलनी पड़ी, उस त्रासद संवेदना को भी उन्होंने शब्द दिए।