पुरस्कार या सम्मान कभी भी किसी प्रतिभा के मूल्यांकन का निर्णायक आधार नहीं रहे हैं। अब तो खैर स्थिति और बदल गई है। पुरस्कारों-सम्मानों की दुनिया खासी विवादित हो चली है। इसके निर्णय के आधार और प्रक्रिया पर कई तरह के सवाल उठने लगे हैं। आलम यह है कि नोबेल जैसा पुरस्कार भी इस विवाद से बाहर नहीं है। पर हमेशा से ऐसा नहीं रहा है। खासतौर पर नोबेल पुरस्कार तो बड़ा सम्मान रहा है।
भारत आज अपनी कई विभूतियों पर अगर गर्व करता है तो उसका एक बड़ा कारण नोबेल है। इस पुरस्कार से जुड़े कुछ दिलचस्प दास्तां भी हैं, जो हमें अपने देश की प्रतिभाओं के प्रति आदर से भर देते हैं। भारत की ओर से पहली बार 1929 में दो भारतीय वैज्ञानिकों के नाम नोबेल के लिए प्रस्तावित किए गए। पहला नाम भौतिक विज्ञान के लिए सर चंद्रशेखर रमन का था तो दूसरा नाम फिजियोलाजी और मेडिसिन के क्षेत्र में शानदार उपलब्धियों के लिए पेशे से चिकित्सक डॉ. उपेंद्रनाथ ब्रह्मचारी का। हालांकि उस साल दोनों में से किसी को भी यह पुरस्कार नहीं मिला। अगले साल यानी 1930 में रमन का नाम नोबेल के लिए दोबारा प्रस्तावित किया गया और इस बार उन्हें यह पुरस्कार मिला भी।
उपेंद्र ब्रह्मचारी का नाम 1942 में पांच अलग-अलग लोगों ने नोबेल के लिए दोबारा प्रस्तावित किया। द्वितीय विश्वयुद्ध की उथल-पुथल के कारण नोबेल विजेताओं के चुनाव की प्रक्रिया पूरी नहीं की जा सकी। इस तरह 1942 में नोबेल समिति ने किसी भी क्षेत्र के लिए किसी को पुरस्कृत नहीं करने का फैसला किया। इस तरह नोबेल का हकदार एक महान भारतीय शोधकर्ता और वैज्ञानिक बड़े सम्मान को पाने से रह गया। बहरहाल, ब्रह्मचारी का सम्मान और उनकी उपलब्धियों का लोहा आज भी दुनिया मानती है।
आज पूरी दुनिया कोविड-19 से जूझ रही है। कभी कुछ ऐसा ही खौफ कालाजार का था। इस बीमारी के बारे में दुनिया की जानकारी और समझ ब्रह्मचारी के शोध के कारण बनी। उनके शोध से इस बीमार से होने वाली मृत्यु दर 1925 में 95 से घटकर 10 फीसद रह गई। चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में यह क्रांतिकारी उपलब्धि थी। 1936 तक आते-आते तो यह दर घटकर महज सात फीसद ही रह गई। उस दौर में ब्रह्मचारी हजारों-लाखों मरीजों के लिए मसीहा बनकर उभरे थे।
उनका जन्म 19 दिसंबर 1873 को भारत के पश्चिम बंगाल के बर्दवान जिले के पुरबस्थली के पास सरदंगा गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम नीलमणि ब्रह्मचारी था और वे पूर्वी रेलवे में चिकित्सक थे। उनकी मां सौरभसुंदरी देवी सामान्य गृहिणी थी। डॉ. नीलमणि यूरोपीय और भारतीय दोनों समुदायों में खासे सम्मानित व्यक्ति थे। उपेंद्रनाथ ब्रह्मचारी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा ईस्टर्न रेलवे बायज हाई स्कूल, जमालपुर से की।
1893 में हुगली कालेज से उन्होंने गणित और रसायन विज्ञान, एक साथ दो विषयों में बीए आनर्स की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने कोलकाता के प्रेसिडेंसी कालेज से रसायन विज्ञान में एमए की पढ़ाई प्रथम श्रेणी से पूरी की। यहां उन्हें सर अलेक्जेंडर पेडलर और आचार्य प्रफुल्लचंद्र राय जैसे प्रख्यात रसायनशास्त्रियों से जुड़ने का मौका मिला। ब्रह्मचारी खासतौर पर आचार्य प्रफुल्लचंद्र राय के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए।
अध्ययन और शोध के क्षेत्र में आगे बढ़ते हुए ब्रह्मचारी ने 1899 में प्रांतीय चिकित्सा सेवा में प्रवेश किया। उन्हें भारत के पहले फिजिशियन माने गए सर जेराल्ड बोमफोर्ड के साथ काम करने का मौका मिला। इसी दौरान कालाजार का प्रकोप फैला। इस चुनौती से निपटने के लिए ब्रह्मचारी ने प्रतिबद्धता के साथ कार्य किया। इस क्षेत्र में उन्हें हासिल कामयाबी का आज भी इतना महत्व है कि कोविड-19 का चिकित्सीय समाधान ढूंढ़ रहे वैज्ञानिक भी उनके शोध को अहम मान रहे हैं।