रोहित कुमार
बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का यह कथन बार-बार दोहराया जाता है। यह वाक्य एक सूक्ति की तरह प्रसिद्ध हो गया है। कमाल यह कि विचार से आगे भाषा और कला की दृष्टि से भी कहने की यह शैली लोगों को भाती है। इस शैली में विचार और दर्शन को लेकर कोई बात कहनी हो तो कह सकते हैं कि दर्शन तार्किक विचारों का अचार या मुरब्बा है। अचार या मुरब्बा शब्द हल्का लगे तो कह सकते हैं कि परिपाक है। विद्यालय की पढ़ाई के बाद विद्यार्थी जब अपने मन माफिक विषयों का चुनाव करते हैं तो दर्शनशास्त्र से पहले उन्हें तर्कशास्त्र पढ़ना होता है।

यानी तर्क की प्रौढ़ समझ का नाम दर्शन है। आधुनिकता और विज्ञान का सामीप्य जब अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र की नई पहचान बनी तो दर्शन के साथ साधना जैसी दरकार बेमानी हो गई। सब कुछ बौद्धिकता के लिहाज से तय होने लगा। ऐसे में कई ऐसे कुशल बौद्धिक सामने आए जिन्होंने तर्क और दर्शन के बीच की यात्रा से अपने विमर्श के लिए कई दिलचस्प प्रस्थान खोज निकाले। ओशो का जिक्र इस लिहाज से न सिर्फ दिलचस्प है बल्कि शब्द, अर्थ और व्याख्या के बीच के स्तरों तक पहुंचने के लिए जरूरी भी है।

ओशो के बारे में अहम है कि वे बात उतनी नई नहीं कहते पर उनकी व्याख्या निहायत नई होती है। जीवन-मृत्यु, प्रेम और आनंद को लेकर उन्होंने खूब बातें की हैं। वैसे इन सब मुद्दों पर बात करते हुए उन्होंने जो संदर्भ और उदाहरण जुटाए हैं, वे तकरीबन वही हैं जिनके बारे में विभिन्न स्रोतों से हम पहले से अवगत रहे हैं। पर इस अवगत को ओशो अपनी व्याख्या के अंतर्गत पूरी तरह बदल देते हैं, उन्हें नई रोशनी में देखने का पुरजोर आग्रह रखते हैं। ऐसा करते हुए वे तर्क और दर्शन के छोरों को अपनी सुविधा के लिहाज से छोड़ते-पकड़ते हैं।

यह भी कि वे अपनी बात को इस तरह एक बड़े दायरे में समेटते हैं कि सुनने-पढ़ने वाले के सामने पूर्ण सहमति से कम की गुंजाइश बचती ही नहीं है। मसलन, जब वे मृत्यु के बारे में बात करते हैं तो उससे पहले जीवन को लेकर समझ की बात उठाते हैं और कहते हैं कि चूंकि जीवन को ही ठीक से नहीं समझा गया, इसलिए मृत्यु को लेकर भी तमाम तरह की तार्किक-वैचारिक भ्रांतियां हैं। वे कहते हैं कि हमें जीवन का ही पता नहीं, इसलिए मृत्यु घटित होती प्रतीत होती है। जो जीवन को जानते हैं, उनके लिए मृत्यु एक असंभव शब्द है, जो न कभी घटा, न घटता है, न घट सकता है। कमाल देखिए कि अध्यात्म और दर्शन की पूरी दुनिया जहां एक तरफ जीवन को सांसारिकता के साथ युग्म रूप में देखने का आग्रह रखती है, वहीं दूसरी तरफ ओशो जीवन के प्रति भिन्न और आस्था से भरे दृष्टिकोण के साथ तार्किक तरीके से अपनी बात कहते हैं।

वे कहते हैं कि दुनिया में प्रचलित कुछ शब्दों के साथ जुड़ी समझ की रूढ़ता इतनी प्रबल है कि उससे अलग या उसके विपरीत कोई बात सोची ही नहीं जा सकती है। ऐसा कहते हुए वे जीवन और मृत्यु दोनों के बारे में प्रचलित अवधारणा को चुनौती देते हैं। वे मृत्यु को शब्द और अर्थ दोनों स्तरों पर असत्य करार देते हैं। वे कहते हैं कि मृत्यु जैसी घटना कहीं भी नहीं घटती। लेकिन हम लोगों को तो रोज मरते देखते हैं, चारों तरफ रोज मृत्यु घटती हुई मालूम होती है। और ठीक से हम समझें तो ज्ञात होगा कि जहां-जहां हम खड़े हैं, वहां-वहां न मालूम कितने मनुष्यों की अर्थी जल चुकी है। जहां हम निवास बनाए हुए हैं, उस भूमि के सभी स्थल मरघट रह चुके हैं।

वे इस बारे में तिब्बती फकीर मारपा का जिक्र करते हैं। उस फकीर के पास कोई गया और पूछने लगा कि मैं जीवन और मृत्यु के संबंध में कुछ पूछने आया हूं। मारपा हंसने लगे। उन्होंने कहा, मृत्यु के बारे में पूछना हो, तो उनसे पूछो जो मरे हुए हैं या मर चुके हैं। मैं तो जीवन हूं। मैं जीवन के संबंध में बोल सकता हूं, बता सकता हूं। मृत्यु से मेरा कोई परिचय नहीं है।

दरअसल, जीवन को लेकर कोई भी सोच अगर भय या पूर्वग्रह से भरी है तो हम समझ की एक ऐसी कातर दुनिया रच लेंगे, जहां सिर्फ निराशा होगी। ओशो को यह कातरता न तो बुद्धि के स्तर पर मंजूर है और न हृदय के स्तर पर। वे इसकी खुली मुखालफत करते हैं। अपने इस विरोध को तार्किक के साथ दाशर्निक जामा पहनाते हुए वे कहते हैं कि हम जीवित हैं, लेकिन हमें पता नहीं कि जीवन क्या है। इस अज्ञान के कारण ही हमें ज्ञात होता है कि मृत्यु भी घटती है। मृत्यु एक अज्ञान है। जीवन का अज्ञान ही मृत्यु की घटना बन जाती है। काश! हम उस जीवन से परिचित हो सकें जो भीतर है, तो उसके परिचय की एक किरण भी सदा-सदा के लिए इस अज्ञान को तोड़ देती है कि मैं मर सकता हूं, या कभी मरा हूं, या कभी मर जाऊंगा। लेकिन उस प्रकाश को हम जानते नहीं हैं जो हम हैं और उस अंधकार से हम भयभीत होते हैं जो हम नहीं हैं।

ओशो की बात बृहदारण्यक उपनिषद की सूक्ति ‘मृत्योर्मामृतं गमय’ की व्याख्या के साथ समझें तो विमर्श का एक सर्वथा नया सर्ग रचने की दरकार खड़ी हो जाती है। यह भी कि जन्म और मृत्यु को निश्चित मानने वाली धारणा नई तार्किक दरकार के आगे कमजोर मालूम पड़ती है। ओशोवादी तर्क के मुताबिक मनुष्य का गंतव्य मृत्यु नहीं बल्कि अमृत है। और अगर वह मृत्यु की बात करता है तो यह जीवन के प्रति संदेह है।