प्रेम में विफल युवाओं के लड़कियों के चेहरे पर तेजाब फेंकने की घटनाएं हमारे समाज के लिए बड़ी चिंता का विषय हैं। इस पर काबू पाने के लिए कड़े कानून हैं। पीड़िता के पुनर्वास की योजनाएं भी हैं। मगर ऐसी लड़कियों के प्रति अब भी न तो समाज का नजरिया सकारात्मक देखा जाता है और न पुलिस प्रशासन का अपेक्षित सहयोग मिल पाता है। इस समस्या पर काबू पाने के मकसद से काम कर रहे अनेक समाजसेवियों का मानना है कि इस मामले में अब भी समाज में जागरूकता की कमी है। अभी एक फिल्म आई है ‘छपाक’, जिसमें तेजाब हमले की पीड़िता के दर्द के माध्यम से लोगों में जागरूकता लाने का प्रयास किया गया है। मगर यह समस्या अब भी कम होती नहीं दिख रही, बता रही हैं मीना।

जब उसने मेरे ऊपर तेजाब डाला था तो मुझे लगा कि मेरे ऊपर गर्म पानी डाल दिया है। थोड़ी देर में चेहरे से गंदी बदबू और धुंआ निकलने लगा। मैं सड़क पर तड़पती रही। कोई मुझे इसलिए नहीं बचा रहा था, क्योंकि जो भी मुझे पकड़ रहा था उसका हाथ जल रहा था। मुझे बोरे में डाल कर अस्पताल लेकर गए। 2009 में तेजाब हमले की शिकार हुर्इं ओडिशा की प्रमोदिनी राऊल अपनी आपबीती बताते हुए भावुक हो जाती हैं। वे कहती हैं कि मैं तो बचपन से ही पुरुष के विलास का भोग रही थी। जब छोटी थी तब मेरे ही बुआ के बेटे ने मेरा यौन शोषण कई साल तक किया। और जब सोलह साल की हुई तब सेना के जवान ने 2009 में मुझ पर तेजाब फेंक दिया था। वह कश्मीर से एक समूह के साथ कुछ समय के लिए ओडिशा आया था।

प्रमोदिनी पर तेजाब की यह पहली घटना नहीं थी, बल्कि भारत में आज भी हर साल तीन से पांच सौ मामले तेजाब के दर्ज किए जाते हैं। राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (नाल्सा) की रिपोर्ट बताती है कि तेजाब की घटनाएं जेंडर आधारित हैं। ये घटनाएं लड़की द्वारा लड़के के प्रस्ताव को ना कहने पर, यौन संबंध को ना कहने पर, संपत्ति विवाद, घरेलू हिंसा इत्यादि कारणों होती हैं। तेजाब हमले में अस्सी फीसद जल चुकीं ओडिशा की प्रमोदिनी राऊल बताती हैं कि उस सैनिक से मेरी ना नहीं झेली गई। वह शादी के लिए जबर्दस्ती कर रहा था। और एक दिन जब मैं कॉलेज जा रही थी तब उसने मुझ पर हमला किया। उसके हाथ में एक बोतल थी। मुझे नहीं पता था कि उसके हाथ में तेजाब था। उस घटना के बाद मेरी रोशनी चली गई थी। नौ महीने तक आइसीयू में थी। उस समय तेजाब को लेकर कोई कानून नहीं था। तो अस्पताल का खर्च भी हमें खुद ही देना पड़ रहा था। प्रमोदिनी राऊल बताती हैं कि घटना के बाद जब अस्पताल गए, तो वहां मेरे ऊपर पंद्रह दिन तक पानी तक नहीं डाला गया था। किसी को फिक्र ही नहीं थी कि एक लड़की दर्द से तड़प रही है। जिला अस्पताल ने केवल बैंडेज लगा दिया था। जब बड़े अस्पताल में भेजा था तब रास्ते में वैन खराब हो गई और मैं पूरी रात सड़क पर रही। फिर जब कटक अस्पताल में पहुंचे तो तीन दिन तक अस्पताल में जमीन पर सुलाया गया२। फिर कैबिन में लेकर गए। तब तक मेरा मांस अंदर ही अंदर गलने लगा था। मेरी दोनों आंखें बाहर आ गर्इं थीं। इलाज का खर्च इतना महंगा था कि मुझे घर ले आए।

2009 से 2014 तक मैं बिस्तर पर थी। न मैं बैठ पा रही थी न खड़ी हो पा रही थी। 2014 में मेरे दोस्तों ने मेरी मदद की। 2012 में पुलिस ने मेरे केस को बंद कर दिया था। मैं 2016 में ‘छांव’ से जुड़ी और वहां काम करना शुरू किया। फिर 2017 में मेरी एक आंख का प्रत्यारोपण हुआ। फिर मैंने केस दुबारा खुलवाया। लेकिन पुलिस कह रही थी इतने पुराने केस को दुबारा मत खुलवाओ। लेकिन प्रमोदिनी राऊल ने जिद ठान ली थी इंसाफ की। वे कहती हैं कि उस आरोपी को गिरफ्तार कराना आसान नहीं था, क्योंकि वह एक सैनिक था। उसे गिरफ्तार कराने के लिए सबूत जमा करने में मुझे दो साल लग गए। ओडिशा के मुख्यमंत्री ने मेरी मदद की और फिर दो लोगों को गिरफ्तार किया गया। संघर्ष करने में मुझे दस साल लग गए और अब भी जारी है।

प्रमोदिनी राऊल के साथ यह हादसा तब हुआ था जब तेजाब को लेकर देश में कानून नहीं था। लेकिन 2013 में लक्ष्मी बनाम यूनियन आॅफ इंडिया के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों को निर्देश दिया कि तेजाब की बिक्री को नियमों के अंतर्गत लाया जाए। साथ ही यह भी निर्देश दिया कि अब तेजाब बिना लाइसेंस के नहीं बेचा जाएगा। पहचान पत्र दिखा कर ही तेजाब खरीदा जा सकता है। और अठारह साल से कम उम्र के क्रेता को यह नहीं बेचा जाएगा। यही नहीं, तेजाब पीड़िता लक्ष्मी अग्रवाल ने स्टॉप सेल एडिस नाम से अभियान भी चलाया। 2013 में क्रीमिनल लॉ में संशोधन कर अनुच्छेद 326ए और 326बी जोड़ा गया, जिसके तहत तेजाब फेंकने के लिए सजा का प्रावधान है। पर सवाल है कि क्या वाकई इन सभी कानूनों का असर जमीनी स्तर पर हो रहा है। क्योंकि तेजाब सर्वाइवर्स फाउंडेशन इंडिया के आंकड़े कुछ और ही सच्चाई बयान करते हैं। आंकड़े बताते हैं कि तेजाब के 2012 में 106, 2013 में 122 और 2014 में 309 मामले रिपोर्ट किए गए। कानून होने के बावजूद आज भी तेजाब की घटनाएं बढ़ रही हैं।

आज तेजाब पर जागरूकता के लिए ‘छपाक’ जैसी फिल्में बन रही हैं। मगर पीड़ितों के मन में आज भी यही शंका है कि क्या फिल्में बनने से तेजाब की घटनाएं रुक जाएंगीं। जाहिर है नहीं। घटनाएं रुकेंगी तो नहीं, पर समाज में ऐसे मामलों को लेकर संवेदनशीलता जरूर आएगी। साल 2014 में अपने जीजा की नफरत का शिकार हुई और सजने-संवरने का शौक रखने वाली मुंबई की रेशमा कुरैशी बताती हैं कि जब मेरे ऊपर तेजाब फेंका गया था, तब मदद के लिए कोई सामने नहीं आया था। मैं और मेरी बहन भरे बाजार में जलन से चीखते रहे। दवा खाने गए, तो उन्होंने कहा कि पहले पुलिस को बताओ फिर इलाज करेंगे। रेशमा कहती हैं कि ‘छपाक’ के ट्रेलर के बाद भी हमले हुए। यह अच्छी बात है कि मामले को इतने बड़े पर्दे पर दिखाया जा रहा है। लेकिन इससे भी कुछ होने वाला नहीं है। सरकार भी तेजाब बेचना बंद नहीं करवा रही है। सरकार इलाज के लिए तीन लाख रुपए देती है, उससे क्या होगा। पूरा चेहरा आंख सब खत्म हो गई थी। चेहरा बहुत मायने रखता है और वही खराब हो गया। आत्मविश्वास खो चुका था। खुद को खत्म करना चाहती थी, लेकिन बाद में समझ आया कि मेरी जैसी और भी लड़कियां हैं, जो ऐसी परेशानी से जूझ रही हैं। फिर मैंने ठाना कि अब जीना है। आरोपी को सजा दिलानी है।

रेशमा बताती हैं कि मेरी बहन को उसके ससुराल वालों ने जलाने की कोशिश की। उसको मेरे घर वाले इलाहबाद से मुंबई ले आए। बहन के लड़के को स्कूल से जीजा उठा कर ले गया। फिर हमने मुकदमा कर दिया। जिस दिन कोर्ट से बच्चा हमें मिलने वाला था, उस दिन मैं और मेरी बहन वहां जा रहे थे। तभी रास्ते में उसने हम पर तेजाब डाल दिया। मैं घर में सबसे छोटी थी। सब मुझसे ज्यादा प्यार करते थे। इसलिए उसने मेरे ऊपर तेजाब डाला। ताकि बाकी सबको सबक सिखा सके। मैं उस समय सत्रह की थी। और आज वही आदमी आज कोर्ट में मुझसे शादी करने की बात कहता है। रेशमा गुस्से में तमतमा कर कहती है कि मेरा बस चले तो उसे जिंदा ही न छोड़ूं। लेकिन रेशमा अपने साथ हुए हादसे को याद करते ही कांप जाती और कहती है कि मैं उस भयानक समय को भूल नहीं पाती। आज भी उसे देख कर मेरे हाथ-पैर कांपने लगते हैं।