स्कूली बच्चों में तेजी से बढ़ती असहिष्णुता और हिंसक प्रवृत्ति अब केवल चिंता का विषय नहीं रही, बल्कि एक गंभीर सामाजिक चुनौती बन गई है। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि अभाव, असफलता, संवेदनात्मक संवाद की कमी और सामाजिक दबाव बच्चों के भीतर कुंठा पैदा कर रहे हैं, जो कई बार हिंसा और आपराधिक मानसिकता का रूप ले लेती है।
जिन बच्चों को भविष्य की उम्मीद माना जाता है, उनके भीतर अगर असहिष्णुता की प्रवृत्ति में तेज बढ़ोतरी हो रही है या उसकी अभिव्यक्ति कई बार विकृत व्यवहार या हिंसा में हो रही है, तो इसके पीछे मुख्य कारण उनके मनोविज्ञान में तेजी से आता बदलाव है। इस बदलाव के पीछे भी सामाजिक और वातावरण से जुड़े अन्य कारक काम करते हैं। स्कूली बच्चों के भीतर हिंसक प्रवृत्ति को लेकर अब केवल चिंता जताने से आगे बढ़ कर इस जटिल होती समस्या का समाधान निकालने के लिए इसकी जड़ों की पहचान और उसके मुताबिक नई राह निकालने की जरूरत है।
मनोवैज्ञानिकों और शिक्षाविदों का मानना है कि परिवार और समाज में संवेदनात्मक सहयोग या संवाद की कम होती गुंजाइश की वजह से कई स्कूली छात्रों के मन में कुंठा और असहिष्णुता यानी मामूली बातों को भी सहन न कर पाने की प्रवृत्ति का तेजी से विकास हुआ है। खासतौर पर किसी अभाव, पढ़ाई में कमजोर होने या असफलता पर जिस तरह की सामाजिक प्रतिक्रिया देखी जाती है, उससे बच्चों में कुंठा पनपती है, जो विकृत होने पर कई बार दुखद परिणाम तक पहुंचती है।
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सफलता के प्रचलित पैमाने और असफल लोगों को कोसने या उनका मजाक उड़ाने की प्रवृत्ति पहले से ही कई तरह के दबाव का सामना कर रहे किसी कोमल-मस्तिष्क वाले बच्चे को बुरी तरह प्रभावित कर सकते हैं।
इसी वजह से बच्चे सामान्य घटनाओं या छोटी-छोटी बातों पर भी उग्र प्रतिक्रिया देते हैं या यहां तक कि हिंसक हो जाते हैं। यह मनोस्थिति कई बार उनके संग-साथ को भी प्रभावित करती है और वे कई बार आपराधिक मानसिकता के दुश्चक्र में भी पड़ जाते हैं और अपने साथ किसी छोटी बात का समाधान भी हिंसक प्रतिक्रिया या बदला में खोजने लगते हैं। बच्चों के भीतर पनपती हिंसक प्रवृत्ति और उसके मनोविज्ञान को केंद्र में रखते हुए किए गए हावर्ड विश्वविद्यालय के एक शोध के मुताबिक, जीवन के शुरुआती दौर में कई बार विपरीत हालात का सामना करने और दबाव या तनाव का अनुभव करने की वजह से व्यक्ति के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव पड़ता है।
अगर कम उम्र में बच्चों को कुछ खास तरह के आघात का सामना करना पड़े तो यह उनकी आयु बढ़ने की गति पर असर डाल सकते हैं। मगर हमारे देश में यह एक जगजाहिर हकीकत है कि गरीबी, अनदेखी और अलग-अलग तरह के हिंसक वातावरण जैसे अनुभव बहुत सारे बच्चों को अपने जीवन के शुरुआती दौर में ही देखने और झेलने पड़ जाते हैं। यही स्थितियां उनके भीतर चिंता, अवसाद और तनाव के जोखिम का कारक बनती हैं। इससे उनके भीतर मानसिक और शारीरिक स्तर पर कुछ बीमारियां भी घर कर जा सकती हैं। शोध में बचपन की प्रतिकूल परिस्थितियों के दो अलग-अलग रूप और जैविक आयु में बढ़ोतरी की रफ्तार में होने वाले बदलाव की वजह से बच्चों के भीतर भावनात्मक प्रतिक्रियाओं में अंतर्निहित सोचने-समझने की परिपक्वता के स्तर का भी विश्लेषण किया गया।
एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि हिंसक या बेहद तकलीफदेह अनुभवों की वजह से युवावस्था और मस्तिष्क में विकास के साथ-साथ कोशिकाओं के स्वरूप में बदलाव की वजह से वृद्धावस्था आने की रफ्तार में तेजी आ जाती है। जबकि अभाव से लगातार जूझने वाले बच्चों में अक्सर संज्ञानात्मक विकास में देरी और सीखने के साथ-साथ स्मरणशक्ति संबंधी कठिनाइयां होती हैं, जो स्कूल में पढ़ाई-लिखाई से लेकर उनके व्यवहार तक को प्रभावित कर सकती हैं।