आधी नौकरी इसी उधेड़बुन में गुजर गई कि मकान कैसे बनवाया जाए और उसके लिए किस शहर का चुनाव किया जाए। मकान बनवाने के लिए पर्याप्त पैसे अपने पास नहीं थे। प्रॉविडेंट फंड में कुछ कतर-ब्योंत करके जमा किए गए थे। मकानों की लागत धीरे-धीरे बढ़ रही थी। वेतन आयोग के बाद महंगाई रफ्तार पर थी। रोजमर्रा की चीजों के भाव बढ़ गए थे। मगर इस समाज में कुछ ऐसे लोग थे, जिनके पास पैसे की कमी नहीं, वे उदारता से खर्च करते थे। यहां हमारे लिए दीवाली दीवाले की तरह थी। जब त्योहार का बजट बनता तो आंखें निकल आती थीं।

मेरे सामने सवाल था कि मकान कहां बनवाया जाए। बड़े शहर मुझे रास नहीं आते थे, वे मुझे कांक्रीट के जंगल दिखते थे। शहर का आदमी भागता हुआ दिखता था। उसे कहीं न कहीं जाने की जल्दी होती थी। घर वह ऐसे वक्त पहुंचता था जब बच्चे सो जाते थे। बस, पत्नी जागती रहती थी। लोगों से मिलना-जुलना कम होता था। यह अजनबीपन मुझे पसंद नहीं था। मगर बच्चों की राय मेरी राय से उलट थी। मैं मूलत: देहाती आदमी। गांव की बहुत-सी स्मृतियां मेरे कंधे पर लदी थीं। उन्हें मैं उतार कर फेंक नहीं सकता था। जब उदास होता, इन्हीं स्मृतियों के बीच पहुंच जाता था। इसका मतलब नहीं कि मैं अतीतजीवी था।

मैंने जिस छोटे शहर का चुनाव किया वह गांव से ज्यादा दूर नहीं था। शहर से उसकी दूरी चार-पांच घंटे में तय की जा सकती थी। वैसे भी गांव मुतवातिर जाना संभव नहीं था। मैं किसी न किसी समस्या से घिरा रहता था। यह राहत जरूर थी कि जब भी जाना चाहूं, आसानी से जा सकता था।

पचास के पार पहुंचने के बाद मकान की चिंता दिल पर हावी हो गई थी। अगर इस योजना पर काम नहीं शुरू किया तो देर हो जाएगी, अभी तो विभाग से लोन लिया जा सकता है। कुछ लोगों से मदद मिल सकती थी। जमीन लेकर मकान बनवाना मेरे बस की बात नहीं थी। दोस्तों से इस मामले में राय ली। सबने बताया कि आवास-विकास या विकास प्राधिकरण से मकान अलाट कराया जा सकता है। इससे किश्त की सुविधा और विभाग से कर्ज मिल सकता है। हालांकि ऐसे मकान ज्यादातर अधबने होते हैं, लेकिन कब्जा लेने के बाद उसे अपने हिसाब से व्यवस्थित किया जा सकता है। दोस्तों की यह राय मुझे अच्छी लगी।

मैंने मकान का चुनाव ऐसे इलाके में किया, जहां से शहर जाने की सुविधा हो। इस जगह से बस-स्टेशन और रेलवे दोनों नजदीक थे। रात-बिरात रिक्शे मिल जाते थे। मकान को लेकर मेरे मन में कई कल्पनाएं थीं। जैसे कि उसमें एक आंगन और लॉन हो। लेकिन जो मकान मुझे मिलने वाला था, उसमें यथोचित जगह नहीं थी। मगर मैं इस बात से खुश था कि मकान मिल रहा है। किराए के मकान में जो जिल्लत मैंने उठाई थी उसे याद कर रूह कांप जाती थी। आप कितने बड़े ओहदे पर क्यों न हों, मकान मालिक के सामने आपकी हैसियत दूसरे दर्जे की होती है।
मैं चाहता था कि खूब भरा-पूरा आंगन हो, उसमें परिंदे चहचाहाएं। बच्चे खेल सकें। मेरी यह इच्छा आंशिक रूप से ही पूरी हो पाई थी। जो मकान मुझे कब्जे में मिला वह अधबना था। उस मकान में एक चपरासी रहता था। उसने मकान की दीवारों में कीलें ठोंक रखी थी। जगह-जगह दीवारों के पलस्तर उखड़े हुए थे। जब मैं मकान के कब्जे के लिए आया तो वह मुझे देख कर उदास था। वह बेघर हो रहा था। मेरा दिल ही जानता था, इस मकान के लिए मैंने कितने गम उठाए थे। बीस-पच्चीस साल किराए के मकान में रहते हुए मैं बेघर था। किराए के मकान घर नहीं बन पाते। वे अस्तबल की तरह होते हैं, जिसमें आदमी घोड़े की तरह हिनहिनाते हुए अपने दिन गुजारता है, मुझे इस अनुभव से मुक्ति मिल गई थी। मैं राहत की सांस ले रहा था।

बहरहाल, तमाम औपचारिकताओं के बाद मकान मिल गया। लेकिन इसे अभी घर होना था, जो यथोचित तब्दीली थी उसे अंजाम दिया गया। रंगाई-पुताई के बाद मकान खिल उठा। लॉन के पास की खाली जगह में एक छोटे कमरे की गुंजाइश निकल आई। मकान की खिड़कियों और दरवाजों पर परदे टंग चुके थे। पत्नी और बच्चों ने ड्राइंग रूम को सलीके से सजा दिया था। ड्राइंग रूम मकान की ऐसी जगह है, जहां से हम मकान की शख्सियत का पता लगा सकते हैं, इससे हमारी कल्पनाओं का पता चलता है।

आंगन और लॉन की खाली जगहों पर हमने पेड़-पौधे लगा दिए थे। गेट पर लतरें लगा दी थी। बस दो-चार महीने में घर हरा-भरा हो जाएगा। रसोई में बर्तनों की खनक होने लगी थी। टीवी की आवाज घर के बाहर जा रही थी। जिस मकान में कुछ दिन पहले वीरानगी थी, उसमें कोलाहल शुरू हो गया था।

मेरी बेटी इच्छा को क्रिसमस ट्री पसंद था, इसलिए उसने लॉन में उसे लगा दिया था। मैंने एक दिन उससे पूछा कि उसे क्रिसमस ट्री क्यों पसंद है? उसने मुझे बड़े दिन और सांटाक्लाज का अफसाना सुना दिया। किराए के मकान में यह सहूलियत नहीं थी। सो, इच्छा नकली क्रिसमस ट्री ले आती और उसे बिजली की झालर से सजाती थी। उसके आसपास मोमबत्तियां जलाती। मुझे भी ईसा मसीह पसंद हैं। खासकर कू्रस पर उनकी तस्वीर देख कर उनका प्रसिद्ध वाक्य याद आता है- परमेश्वर इन्हें क्षमा कर देना, ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं।

बारिश शुरू हो गई थी। जमीन में सोए हुए बीज जाग चुके थे। खाली जगहों पर वनस्पतियां उग आई थीं। पेड़-पौधे तेजी से बढ़ रहे थे। चारों ओर हरापन था। बारिश की फुहारों से मन भीग रहा था। मुझे बचपन के बारिश की याद आ रही थी। अब ऐसी बारिश देखने को नहीं मिलती। उन दिनों पंद्रह दिन तक आसमान नहीं खुलता था। लोग अपने घरों में कैद रहते थे। रस्सी बटते, चारपाई बुनते। बतकही का रस बहता रहता था।
इच्छा का लगाया क्रिसमस ट्री बड़ा हो गया था। उसमें शाखाएं फूट चुकी थीं। वह इच्छा के कंधे तक पहुंच चुका था। एक दिन इच्छा ने बताया कि क्रिसमस ट्री के अंदर कुछ हिल रहा है। कहीं कोई सांप तो नहीं है… डर कर उसने कहा।

मैंने देखा कि पेड़ के भीतर एक घोंसला बना हुआ है। उसमें तीन अंडे चमक रहे हैं। मेरी इस सूचना से इच्छा किलक उठी। जैसे उसे कोई खजाना मिल गया हो। ये किस चिड़िया के अंडे हो सकते हैं, इसका पता लगाना जरूरी है। हम लोग छिप कर बैठ गए और चिड़िया के आने का इंतजार करने लगे। थोड़ी देर के बाद बुलबुल का जोड़ा वहां मंडराने लगा। इच्छा ने शायद पहली बार बुलबुल को देखा था। उनके सिर पर कलंगी थी। वे खूब फुदकते थे। उनके बोलने की आवाज मधुर थी।

दिन में कई बार इच्छा इस पेड़ के पास घूमती रहती थी। मैंने उसे ताकीद की कि वह घोंसले के पास ज्यादा न जाए, अन्यथा बुलबुल घोंसला छोड़ कर उड़ जाएगी। परिंदे एकांत चाहते हैं। उन्हें हमसे डर लगता है। इच्छा ने यह सूचना अपनी सहेलियों तक पहुंचा दी। फेसबुक पर उनके होने की घोषणा पहुंच गई। जिनके पास नेट की सुविधा नहीं थी, उन्हें मोबाइल से बताया गया। इच्छा के पास बुलबुल की देखभाल और उनकी चर्चा के अलावा कोई काम नहीं रह गया था। वह मुझसे चिड़ियों के बारे में बहुत-से सवाल पूछती, जैसे मैं कोई पक्षी-विज्ञानी हूं।

जबसे बुलबुल घर में आई थी, इच्छा का पढ़ना-लिखना कम हो गया था। लाख डांटो, उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता। कहती- ‘पापा मैं बुलबुल के बच्चे को पालूंगी।’ मैं कहता- ‘बच्चे चाहे चिड़िया के हों या आदमी के, मां-बाप के बगैर नहीं रह सकते।’ लेकिन इच्छा जिरह करती- ‘लोग क्यों तोते पालते हैं। जीव-जंतु घर में रखते हैं।’

सुबह-सुबह ही इच्छा यह समाचार लेकर आई कि अंडे से बच्चे बाहर आ चुके हैं, वे चहचहा रहे हैं। उनकी चोंच पीली है। इच्छा इस खबर से नाच रही थी। मां से कहा- क्या मैं उन्हें खाना खिला सकती हूं। मैंने उसे बताया कि चिड़िया अपनी मां का लाया चारा खाती है। हमारे और उनके भोज्य-पदार्थ अलग हैं। इच्छा तो बेचैन थी। बुलबुल के बच्चों की देखभाल करना चाहती थी। अभी वह इतनी समझदार नहीं थी कि इन चीजों को जान सके। यह सब उसके लिए कौतुक थे।

इच्छा अक्सर घोंसले के आसपास रहती थी। मैंने सोचा, क्यों न बुलबुल के बच्चों को देखा जाए। बचपन तो परिंदों के बीच गुजरा था। शाम के वक्त परिंदों का घर लौटना अच्छा लगता था। परिंदे झुंड में घोंसले की ओर लौटते थे।

बुलबुल सुबह से सक्रिय हो जाती थी। वह उड़ती तो उसकी कंलगी कांपती। बुलबुल उड़ कर आई, उसने बच्चों के मुंह में चारा डाल दिया।

बच्चे खुशी से चहचहाने लगे, बुलबुल ने अपने पंख बच्चों के चारों ओर लपेट लिए। मुझे लगा वह बच्चों को उड़ना सिखा रही है। घोंसला छोटा था, उसमें तीन बच्चों के लिए काफी जगह नहीं थी। वे एक-दूसरे के ऊपर लदे हुए थे। मेरा मन हुआ, एक बड़ा घोंसला बना कर उसमें बच्चों को रख दूं। लेकिन चिड़िया अपने बनाए हुए घोंसले में रहती है। यह बात मैंने मां से जानी थी। मैं घोंसले की निगरानी कर रहा था कि इच्छा आ गई और बोली- ‘पापा आप। छिप-छिप कर क्या देख रहे हो?’
‘बेटा मैं अपने बचपन के दिन याद कर रहा हूं।’
‘आपने अपने बचपन में बुलबुल देखी थी।’
‘मैंने बुलबुल के अलावा कई परिंदे देखे हैं।’
‘क्या वे अब भी आपके गांव में होंगे।’
‘नहीं बेटा बहुत से परिंदों की प्रजातियां खत्म हो गई हैं।’
‘ऐसा क्यों है, पापा?’
‘इसका जिम्मेदार आदमी है, वह जंगल नष्ट कर रहा है। पेड़ों को काट रहा है। आखिर परिंदे कहां रहेंगे?’

इच्छा के अंदर अनंत जिज्ञासाएं थीं। वह विकट सवाल पूछती और मैं चकरा जाता। मैं जानता था, जिन बच्चों के पास सवाल नहीं होते वे ठीक से विकसित नहीं हो पाते। हम लोग जिस पीढ़ी से हैं, उसमें पिता से हमें सवाल पूछने की हिम्मत नहीं होती थी। यह आदर्श स्थिति नहीं थी। पीढ़ी के बीच के इस अंतर ने हमें कम कुंठित नहीं किया है। हम उसका खमियाजा उठा रहे हैं।

मैं सुबह जल्दी उठ जाता और पौधों में पानी देता था। अचानक मैंने देखा, बुलबुल का एक बच्चा निस्पंद पड़ा हुआ है। मैंने उसे हिलाया, लेकिन उसमें कोई हरकत नहीं हुई। मुझे तो काठ मार गया था। मैं इच्छा को क्या जवाब दूंगा? इसके पहले कि इच्छा उठती, मैंने मरी हुई चिड़िया को अखबार में लपेटा और दूर फेंक आया। लौटते समय मेरे पांव भारी थे। दिमाग में उलझन थी।

इच्छा के उठने का वक्त हो गया था। उठ कर वह सीधा घोंसले के पास जाती और हमें आंखों देखा हाल सुनाती थी। आज जब वह घोंसले के पास जाएगी तो बुलबुल के एक बच्चे को न पाकर तूफान उठा देगी। मैंने सोच रखा था कि उससे क्या कहूंगा? मैं यह भी जानता था उस पर हमारे तर्क काम नहीं कर पाएंगे। हमारे पास कोई विकल्प नहीं था।

मैं दीवानखाने में अखबार पढ़ रहा था। इच्छा मेरे पास दौड़ती हुई आई- ‘पापा घोंसले में एक बुलबुल का बच्चा नहीं है? कहां गया?’
‘उड़ गया होगा बेटा।’
‘अभी तो उड़ने लायक नहीं हुआ था। अगर ऐसा है तो ये दो बच्चे भी उड़ जाने चाहिए’ उसके तर्क में दम था।
‘बेटा, जो बच्चा उड़ा है, उसके पंख पहले विकसित हो गए थे।’
‘कहीं उसे बिल्ली तो नहीं खा गई?’
‘ऐसा नहीं है इच्छा। घर में बिल्ली कहां आती है।’
इच्छा उदास हो गई, जैसे उसका कोई अपना बिछुड़ गया हो। इसके आगे कुछ बोलने की इच्छा नहीं थी, ज्यादा बोलता तो फंस जाता, मैं उसे समझाने में लग गया। मैं भी अंदर से उदास था, लेकिन अपना यह भाव उसके सामने नहीं जाहिर करना चाहता था।
दिन बीतते गए। इच्छा बुलबुल के बच्चों के लिए सतर्क हो गई। उसने अपनी चारपाई लॉन के पास लगा ली। वह उन बच्चों को किसी भी कीमत पर बचाना चाहती थी। उसके इस अभियान में हम उसके मददगार थे।
‘पापा क्या हम इन बच्चों को घर के भीतर रख सकते हैं।’
‘नहीं बेटा, इससे बच्चों की मां परेशान हो जाएगी। उसे घोंसले के भीतर न पाकर दुखी होगी।’
एक हफ्ते के भीतर दोनों बच्चों के पंख उग आए थे। वे घोंसले से उतर कर जमीन पर फुदक रहे थे। इच्छा उन्हें फुदकते देख रही थी। कभी वह उन्हें हथेली पर उठा लेती। बच्चे फुदकते हुए उसके कंधे पर बैठ जाते थे और अपने पंख फड़फड़ाने लगते थे। वे उड़ कर स्कूटर या इच्छा की साइकिल पर बैठ जाते, इच्छा ने उनके कई फोटो लिए। उसे फेसबुक पर लोड कर दिया। उसे खूब लाइक मिले। दोस्तों ने मोबाइल से बात की। मैं सोचता, बच्चे बड़े होकर उड़ जाएंगे, तो इच्छा का क्या होगा। मैं उसे इस स्थिति के लिए मानसिक रूप से तैयार कर रहा था।

बुलबुल के बच्चे अब घर के भीतर फुदक रहे थे। इसी बीच एक हादसा हो गया। बुलबुल का एक बच्चा लापता हो गया। इच्छा ने पूरा घर खंगाल डाला, लेकिन बच्चा नहीं मिला। दरअसल, वह दीवानखाने से उड़ कर खिड़की के पास पहुंच गया था। बुलबुल का जोड़ा उसके साथ किलोल कर रहा था। दूसरा बच्चा वहां उड़ कर पहुंच चुका था। बच्चे उड़ने का अभ्यास कर रहे थे। यह तय था कि वह अगले हफ्ते में उड़ जाएंगे।
‘इच्छा, अब ये बच्चे उड़ने लायक हो गए हैं, उड़ जाएंगे तो उदास न होना।’
‘पापा क्या ये फिर हमारे घर आते-जाते रहेंगे?’
‘नहीं, अब ये जंगल पहुंच जाएंगे। वहां पेड़ों पर रहेंगे, नदी के पास जाएंगे। वहां उनकी बड़ी-सी दुनिया है। तमाम तरह के परिंदे है। जंगल उनका घर है। यहां उन्होंने अस्थायी निवास बना रखा था।’
एक हफ्ते विमर्श के बाद इच्छा को मैंने मानसिक रूप से तैयार कर लिया था। यह भी जानता था कि परिंदों के जाने के बाद घर सूना हो जाएगा। परिंदों की फितरत में उड़ना होता है। परिंदे क्या, एक दिन आदमी भी उड़ जाता है, फिर नहीं लौटता। इच्छा की बात छोड़िए, मुझे परिंदों के बिना नहीं अच्छा लगेगा। इच्छा के साथ मैं अपना बचपन जीने लगा था।

जैसे-जैसे दिन गुजरते, इच्छा के चेहरे पर बिछोह की परछार्इं लंबी होती रहती थी। वह दिन आ पहुंचा, दोनों बुलबुल के बच्चे उड़ चुके थे। अलसुबह उड़ चुके थे। हम उन्हें अपने सामने उड़ना नहीं देख पाए थे। उनके उड़ने के साथ इच्छा की खुशी उड़ चुकी थी। मैंने जीवन में उड़ने की कई क्रियाएं देखी हैं, लेकिन यह क्रिया काफी तकलीफदेह थी।

बुलबुल के घोंसले के पास हम और इच्छा बैठे थे। इच्छा को उम्मीद थी। बच्चे फिर आएंगे। थोड़ी देर के लिए बाहर गए होंगे। काश, ऐसा होता! मुझे जान कीट्स की कविता- ओह टू नाइटिंगेल… याद आई, जो मैंने कॉलेज के दिनों में पढ़ी थी। इसी नाम की एक लड़की मेरे क्लास में थी। उसे मेरे जीवन से जाना था, सो चली गई। सपने देखने की उम्र में सपने ज्यादा टूटते हैं। उसके बाद मैंने जाना… उड़ना क्या होता है। मेरे साथ इस मर्म को इच्छा भी महसूस कर रही थी।
क्रिसमस ट्री पर टंगा हुआ घोंसला धीरे-धीरे हवा में हिल रहा था। वह उदास और बेजान था। हम दोनों उसे करुण होकर देख रहे थे।

(स्वप्निल श्रीवास्तव)