एक कथा बहुत पुरानी है। एक व्यक्ति हर वक्त कंबल ओढ़े रहता था। उसे लगता था कि कंबल ने उसे पकड़ रखा है। कंबल के बिना उसका जीवन अधूरा है। कभी-कभी तो उसे भय भी सताता कि अगर उसने कंबल को उतार फेंका तो उसका जीवन संकट में पड़ सकता है। इसलिए वह सोते-जागते, हर समय कंबल को अपने शरीर पर लपेटे रहता। इस तरह समय के साथ-साथ कंबल मैला-कुचैला होता गया।

उसमें से दुर्गंध आने लगी। जगह-जगह से फटना शुरू हो गया। अब उसमें गरम रखने की शक्ति भी नहीं रही। ठंडी हवा चलती, तो छेदों में घुस कर शरीरको सताती। ऐसे में उस व्यक्ति की कंबल को लेकर उलझन बढ़ती गई।

वह पुराने कंबल को फेंक कर नया कंबल ओढ़ना चाहता था। मगर जब उसने पुराने कंबल को उतारने की कोशिश की तो वह उसके शरीर से अलग ही नहीं हो रहा था। बहुत कोशिश की, पर कंबल उसके बदन से अलग ही नहीं हुआ। अब उस व्यक्ति की परेशानी और बढ़ गई। जब वह बहुत परेशान हो गया, तो एक महात्मा के पास गया। उसने अपनी समस्या बताई कि कंबल तो उसे छोड़ ही नहीं रहा।

महात्मा ने उस व्यक्ति की समस्या को गंभीरता से सुना और फिर जोर से हंसे। उन्होंने कंबल पकड़ कर उसके शरीर से उतार कर फेंक दिया। कहा कि दरअसल, कंबल ने तुम्हें नहीं, तुमने कंबल को पकड़ रखा था। अब देखो, जब तुमने इसे उतार फेंकना चाहा, तो उतर गया। ऐसे ही कोई न कोई विचार, कोई न कोई धारणा हम बचपन से ही कंबल की तरह ओढ़े घूमते रहते हैं।

बदलते वक्त के मुताबिक उस विचार, उस धारणा का कोई बहुत अर्थ नहीं रह जाता, उसमें बदलाव की जरूरत महसूस की जाने लगती है, मगर हम उसे बदलना ही नहीं चाहते। इसके चलते बहुत सारे झगड़े पैदा होते हैं, मनमुटाव पनपते हैं।