निर्वाचन आयोग द्वारा घोषित राष्ट्रव्यापी विशेष गहन पुनरीक्षण, जिसे पहले बिहार में और फिर देश के बाकी हिस्सों में लागू किया जाएगा, से राजनीतिक विवाद खड़ा हो गया है। आलोचकों और राजनीतिक दलों ने आरोप लगाया है कि वास्तव में यह नोटबंदी और पूर्णबंदी के बाद वोटबंदी की दिशा में एक कदम है। आयोग का यह कठोर नीतिगत बदलाव करोड़ों आम भारतीयों के मताधिकार को छीन सकता है।

गहन पुनरीक्षण नामक एक पुरानी प्रक्रिया की आड़ में, जिसे 2003 में मतदाता सूची के कंप्यूटरीकरण के बाद बंद कर दिया गया था, चुनाव आयोग ने कुछ बिल्कुल नया और विवादित कार्य शुरू कर दिया है। हालांकि आयोग हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के बाद से ही विवादों में है। विपक्षी दल कांग्रेस ने उस पर मतदाताओं की संख्या और मतदान के फीसद में हेराफेरी काआरोप लगाया है। विपक्ष के मुताबिक किसी तरह के सवाल परआयोग ने कोई स्पष्ट जवाब नहीं दिया है।

पहली बार मतदाता सूची में शामिल होने की जिम्मेदारी राज्य से नागरिकों पर डाली गई

यह कदम अभूतपूर्व है। पहली बार, मतदाता सूची में शामिल होने की जिम्मेदारी राज्य से नागरिकों पर डाल दी गई है। जो लोग 25 जुलाई तक नए गणना फार्म जमा करने में विफल होंगे, वे स्वाभाविक रूप से मतदाता सूची से बाहर हो जाएंगे। इससे भी खराब बात यह है कि पहली बार, मतदाता सूची में शामिल होने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपनी नागरिकता का दस्तावेजी प्रमाण देना होगा। यह वास्तव में पिछले दरवाजे से राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) ही है। ऐसा आरोप पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी लगाया है।

आलोचकों का कहना है अगर इस आम धारणा को दरकिनार कर दें कि चुनाव आयोग द्वारा आदेशित विशेष गहन पुनरीक्षण मौजूदा मतदाता सूचियों की एक लंबित और गहन पुनर्परीक्षा मात्र है तो ऐसा ही एक अभ्यास बिहार में छह महीने पहले ही किया गया था। लाखों नाम जोड़े और हटाए गए, किसी भी तरफ से कोई बड़ी शिकायत नहीं आई। चुनाव आयोग ने अभी जो आदेश दिया है, वह मतदाता सूची को नए सिरे से तैयार करने का है। पहले बिहार में, फिर अन्य चुनावी राज्यों में, यह किया जाएगा। इसका अनुसरण देश के बाकी हिस्सों में किया जाएगा।

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चुनाव आयोग का आदेश बिलकुल स्पष्ट है। प्रत्येक मतदाता को अपनी वर्तमान तस्वीर, हस्ताक्षर, कुछ बुनियादी विवरण और नागरिकता के प्रमाण के साथ गणना फार्म भरना होगा। जिन लोगों के नाम 2003 की मतदाता सूची में थे (यह मानते हुए कि सटीक नाम और निवास नहीं बदला है) उनके पास एक आसान रास्ता है। वे ईआर-2003 में अपने नाम वाले पृष्ठ की एक प्रति लगा सकते हैं। इसे उनकी नागरिकता के प्रमाण के रूप में स्वीकार किया जाएगा। चुनाव आयोग ने दावा किया है कि 4.96 करोड़ लोग (वर्तमान में मतदाता सूची पर मौजूद लोगों का 63 फीसद) यह तरीका अपना सकेंगे।

इससे अपनी पात्रता साबित करने के लिए तीन करोड़ से भी कम लोग बचेंगे। लेकिन कुछ जानकार इस विचित्र दावे को खारिज करते हैं, क्योंकि चुनाव आयोग ने 2003 से मृत्यु, पलायन और निवास स्थान बदलने की संख्या को ध्यान में नहीं रखा है। वे बताते हैं कि सही आंकड़ा 3.16 करोड़ के करीब है।

इससे बड़ी संख्या में (वर्तमान मतदाता सूची पर 7.9 करोड़ में से लगभग 4.74 करोड़) लोग मतदान के अधिकार से वंचित हो सकते हैं। इनके पास जन्म की तारीख और स्थान के सबूतों की मदद से अपनी नागरिकता साबित करने का भारी बोझ है। ऐसे लोग तीन श्रेणियों में आते हैं। 38 वर्ष से अधिक आयु के (1 जुलाई 1987 से पहले पैदा हुए) जो उस समय बहुत छोटे थे या किसी अन्य कारण से (बेमेल नाम, शादी के कारण निवास स्थान बदलना या अन्य) उनके नाम मतदाता सूची-2003 में नहीं हैं, उन्हें अपनी जन्म तिथि और जन्म स्थान का प्रमाण संलग्न करना होगा।

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20 से 38 वर्ष की आयु के बीच (1 जुलाई 1987 और 2 दिसंबर 2004 के बीच पैदा हुए) लोगों को दो प्रमाण संलग्न करने होंगे- अपना और अपने माता या पिता का। अंत में, 18 से 20 वर्ष की आयु के बीच (2 दिसंबर 2004 के बाद पैदा हुए) यद्यपि मतदाता सूची-2003 पर माता-पिता का नाम उनके लिए प्रमाण के रूप में काम करेगा, फिर भी आवेदक को जन्म तिथि और जन्म स्थान का अपना प्रमाण संलग्न करना होगा।

चुनाव आयोग इस अभ्यास के लिए जिस तरह के प्रमाण की मांग कर रहा है, वह अधिकांश लोगों के पास मौजूद ही नहीं है और यह उनकी गलती नहीं है। राज्य ने उन्हें कभी वे कागजात नहीं दिए, जिनकी मांग आज की जा रही है। अगर आप किसी आम घर से पहचान के कागजात मांगेंगे, तो वे निम्न में से कोई एक पेश करेंगे : आधार, चुनाव आयोग का फोटो पहचान पत्र, राशन कार्ड या मनरेगा जाब कार्ड। इनमें से कोई भी दस्तावेज चुनाव आयोग किसी को मतदाता के रूप में नामांकित करने के लिए स्वीकार नहीं करेगा।

इसके बजाय, आयोग 11 दस्तावेजों की एक सांकेतिक (हालांकि संपूर्ण नहीं) सूची लेकर आया है जो आवश्यक होंगे। जानकारों के मुताबिक स्वतंत्र रूप से बिहार में इनमें से प्रत्येक दस्तावेज की उपलब्धता की जांच की गई है। इनमें से, छह या तो बिहार में लागू नहीं होते हैं या संख्या में नगण्य हैं। शेष में से चार की बहुत कम उपस्थिति है- जन्म प्रमाण पत्र : 2.8 फीसद, पासपोर्ट : 2.4 फीसद ; सरकारी सेवा/पेंशन आइडी : 5 फीसद से कम और जाति प्रमाण पत्र : लगभग 16 फीसद। यह मैट्रिकुलेशन/शिक्षा प्रमाण पत्र (सभी वयस्कों के लिए लगभग 35 फीसद और 20 से 40 वर्ष की आयु के लोगों के प्रासंगिक समूह के लिए लगभग 45 फीसद) को इस सूची में एकमात्र व्यापक रूप से उपलब्ध और स्वीकार्य दस्तावेज के रूप में छोड़ देता है, जो कि अधिकांश अन्य दस्तावेजों के लिए भी एक आवश्यकता है। इसलिए, सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए, मैट्रिकुलेशन एक नागरिक और मतदाता होने के लिए एक अनौपचारिक आवश्यकता बन गई है।

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एक अनुमान है कि लगभग 2.5 करोड़ लोग (बिहार में वर्तमान वयस्क आबादी का लगभग एक तिहाई) जिन्हें नागरिकता साबित करने की आवश्यकता है, उनके पास इनमें से कोई भी दस्तावेज नहीं हो सकता है। वास्तव में, यदि आप नियमित परिचालन विफलताओं (अस्थायी अनुपस्थिति, कागजी कार्रवाई करने में असमर्थता, प्रमाण पत्र खोजने में विफलता, आधिकारिक गड़बड़ियां आदि) को ध्यान में रखते हैं, तो यह संख्या और भी बड़ी हो सकती है। भले ही ये अनुमान अधिक हों, और यदि वास्तविक रूप से छंटनी एक करोड़ है, जो कि मजबूत अनुभवजन्य अनुमानों के आधे से भी कम है, तो भी यह मतदान के अधिकार से वंचित करने की सबसे बड़ी कवायद है।

जानकारों का कहना है कि धन और शिक्षा के मामले में भेदभावपूर्ण, यद्यपि परोक्ष, अवरोध पैदा करना ठीक वैसा ही है, जैसे दक्षिणी अमेरिका में अफ्रीकी अमेरिकियों को वंचित किया गया था। बिहार में, देश के बाकी हिस्सों की तरह, शैक्षिक योग्यता के आधार पर अलग कर दिए जाने का बोझ महिलाओं, गरीबों और दलित-आदिवासी और बहुजन समुदायों पर पड़ेगा। यह भारतीय संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है। वैसे भी 25 जून से 25 जुलाई के बीच 30 दिन में बिहार सरकार को एक लाख बूथ-स्तरीय अधिकारियों (20,000 से अधिक की नियुक्ति अभी बाकी है) से संपर्क करना है, उन्हें एसआइआर के लिए प्रशिक्षित करना है, उन्हें सभी राजनीतिक दलों के लाखों बूथ-स्तरीय एजंटों से जोड़ना है, इस अभ्यास के बारे में जनता को शिक्षित करना है, प्रत्येक घर में गणना प्रपत्र वितरित करना है और उन्हें ईआर-2003 की एक प्रति प्रदान करना है। इतना ही नहीं, उन्हें प्रत्येक घर से भरा हुआ प्रपत्र भी एकत्र करना है (यदि आवश्यक हो तो तीन बार जाना है), उन्हें इंटरनेट पर अपलोड करना है, प्रमाणपत्रों को सत्यापित करना है और अपनी संस्तुतियां देनी हैं।

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जानकारों का कहना है कि यह सब उस महीने के भीतर (जिसमें से एक सप्ताह से अधिक बीत चुका है) होना है जब बिहार मानसून और बाढ़ के बीच में है। इसलिए, जब तक आयोग के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है, हमें इस आदेश को वापस लेने, जरूरी दस्तावेजों की सूची में भारी बदलाव (जैसा कि 30 जून को घोषित किया गया था) या बिहार विधानसभा चुनावों को स्थगित करने की उम्मीद करनी चाहिए। यदि इतने बड़े बदलाव की आवश्यकता थी, तो नए मुख्य चुनाव आयुक्त द्वारा पिछले महीने सूचीबद्ध 21 मुद्दों में विशेष गहन पुनरीक्षण को शामिल क्यों नहीं किया गया और 30 मई को मीडिया में इसकी रपट क्यों नहीं आई? चुनाव आयोग ने पिछले महीने विभिन्न दलों के साथ बैठक और उससे ठीक पहले पूरे देश में हुए 4,000 से अधिक परामर्श में इस प्रस्ताव का उल्लेख क्यों नहीं किया?

विपक्ष का विरोध, अडिग आयोग

निर्वाचन आयोग ने बिहार में मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण पर कई राजनीतिक दलों द्वारा अपनी चिंता जताए जाने के बाद कहा है कि उसने विपक्षी दलों के प्रतिनिधियों को उनकी आशंकाओं को दूर करने के मकसद से पूरी कवायद के बारे में ब्योरा दे दिया है। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले) लिबरेशन समेत 11 दलों के नेताओं ने मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार और अन्य चुनाव आयुक्तों से मुलाकात की थी और राज्य में विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले किए जा रहे विशेष पुनरीक्षण को लेकर आपत्ति जताई थी। आयोग ने राजनीतिक दलों से कहा कि सभी पात्र नागरिकों को मतदाता सूची में शामिल करने के लिए यह प्रक्रिया योजनाबद्ध और चरणबद्ध तरीके से की जा रही है। पहले चरण में, 25 जून से 3 जुलाई तक, बिहार में लगभग 7.90 करोड़ मतदाताओं को गणना प्रपत्र मुद्रित करके वितरित किए जा रहे हैं।

बुधवार को विपक्षी दलों के नेताओं ने चुनाव आयोग संग बैठक कर इस कवायद पर गहरी चिंता जताई थी। विपक्ष ने कहा था कि समय बहुत कम रह गया है और ऐसे में दस्तावेजों को जुटाने में लोगों को संघर्ष करना होगा। लोगों को भागदौड़ में महीनों लग जाएंगे। यह प्रक्रिया लोकतंत्र में समान अवसरों के खिलाफ है। विपक्ष ने दावा किया कि इस कवायद के कारण बिहार के 20 फीसद मतदाताओं को मतदान से वंचित होना पड़ सकता है। निर्वाचन पंजीकरण अधिकारी लगभग 78,000 बूथ स्तरीय अधिकारियों (बीएलओ) के माध्यम से मौजूदा रिकार्ड के आधार पर आंशिक रूप से पहले से भरे हुए फार्म उपलब्ध करा रहे हैं।

बीएलओ उन सभी मतदाताओं के घर-घर जाकर गणना प्रपत्र पहुंचा रहे हैं, जिनके नाम 24 जून तक मतदाता सूची में हैं। दूसरे चरण में, गणना प्रपत्र भरे जाएंगे और 25 जुलाई से पहले जमा किए जाने हैं। इस प्रक्रिया में सहयोग के लिए बीएलओ के साथ-साथ लगभग चार लाख स्वयंसेवक उपलब्ध हैं। जिन मतदाताओं के नाम एक जनवरी, 2003 तक मतदाता सूची में मौजूद हैं, उन्हें केवल गणना प्रपत्र और सूची का एक अंश जमा करना होगा। जिन नामों के लिए 25 जुलाई से पहले कोई गणना प्रपत्र जमा नहीं किया गया है, वे मसविदा सूची में नहीं दिखाई देंगे। उचित जांच और संबंधित व्यक्ति को निष्पक्ष सुनवाई प्रदान किए बिना कोई विलोपन नहीं किया जाएगा। अंतिम मतदाता सूची 30 सितंबर को प्रकाशित की जाएगी।

क्या है विशेष गहन पुनरीक्षण, किस तरह तैयार हो रही सूची

जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 की धारा 21(3) के अनुसार, चुनाव आयोग किसी भी समय किसी भी निर्वाचन क्षेत्र या निर्वाचन क्षेत्र के किसी भाग के लिए मतदाता सूची के विशेष पुनरीक्षण का निर्देश उस तरीके से दे सकता है, जैसा वह उचित समझे। मतदाता पंजीकरण नियम, 1960 के अनुसार आयोग निर्देश दे सकता है। गहन पुनरीक्षण में, मतदाता सूची को नए सिरे से तैयार किया जाता है और सारांश पुनरीक्षण में, सूची में संशोधन किया जाता है।

24 जून को जारी अपने ‘एसआइआर’ आदेश में चुनाव आयोग ने कहा कि मतदाता सूचियों का संक्षिप्त पुनरीक्षण हर साल होता है और प्रत्येक लोकसभा और विधानसभा चुनाव से पहले एक विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण किया जाता है। चुनाव आयोग ने बताया कि 1952-56, 1957, 1961, 1965, 1966, 1983-84, 1987-89, 1992, 1993, 1995, 2002, 2003 और 2004 में गहन संशोधन किए गए थे।

सभी मतदाताओं को गणना प्रपत्र प्रस्तुत करना होगा तथा 2003 के बाद पंजीकृत मतदाताओं को आयोग द्वारा निर्दिष्ट दिशा-निर्देशों और अनुसूची के अनुसार अपनी नागरिकता सिद्ध करने वाले दस्तावेज भी प्रस्तुत करने होंगे। चुनाव आयोग ने कहा कि गहन पुनरीक्षण का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सभी पात्र नागरिकों के नाम मतदाता सूची में शामिल किए जाएं ताकि वे अपने मताधिकार का प्रयोग कर सकें, कोई भी अपात्र मतदाता मतदाता सूची में शामिल न हो तथा मतदाता सूची में मतदाताओं के नाम जोड़ने या हटाने की प्रक्रिया में पूर्ण पारदर्शिता लाई जा सके।

चुनाव आयोग ने कहा, तेजी से हो रहे शहरीकरण, लगातार हो रहे पलायन, युवा नागरिकों के वोट देने के योग्य होने, मौत की सूचना न देने और विदेशी अवैध प्रवासियों के नाम सूची में शामिल होने जैसे विभिन्न कारणों से गहन पुनरीक्षण की आवश्यकता पड़ी है, ताकि मतदाता सूचियों की सत्यनिष्ठा और त्रुटिरहित तैयारी सुनिश्चित की जा सके।

गहन पुनरीक्षण प्रक्रिया के दौरान सत्यापन के लिए बूथ स्तर केअधिकारी घर-घर जाकर सर्वेक्षण कर रहे हैं। पिछले विशेष गहन संशोधनों में, बीएलओ एक गणना पैड के साथ घर-घर जाते थे, जिसे परिवार के मुखिया द्वारा भरा जाता था। हालांकि, इस बार हर घर के मतदाता को एक अलग गणना फार्म जमा करना होगा। 1 जनवरी, 2003 के बाद मतदाता सूची में शामिल हुए मतदाताओं को नागरिकता का प्रमाण देना होगा – जो कि अंतिम गहन संशोधन का वर्ष है।

आयोग का फार्म 6, जो नए मतदाताओं को पंजीकृत करता है, में आवेदकों को एक घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर करने की आवश्यकता होती है कि वे नागरिक हैं और इस तथ्य को साबित करने के लिए कोई दस्तावेज प्रस्तुत नहीं करना पड़ता है। आयोग ने अब बिहार में विशेष मतदाता सूची पुनरीक्षण के लिए नागरिकता के प्रमाण की आवश्यकता वाला एक नया घोषणा पत्र जोड़ा है।

पासपोर्ट, जन्म प्रमाण पत्र, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति प्रमाण पत्र, 1 जनवरी, 2003 तक बिहार की मतदाता सूची में माता-पिता के नाम का उद्धरण जैसे दस्तावेजों को नागरिकता साबित करने के लिए पर्याप्त दस्तावेज माना जाएगा। अन्य दस्तावेजों में पेंशन भुगतान आदेश, स्थायी निवास प्रमाण पत्र, नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर, स्थानीय प्राधिकारियों द्वारा परिवार रजिस्टर, भूमि आबंटन प्रमाण पत्र हैं।

महाराष्ट्र चुनाव : राहुल के आरोपों से साख पर सवाल

कांग्रेस नेता और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने 2024 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में धांधली का आरोप लगाया है। उनका कहना है कि धांधली इतने निचले स्तर पर पहुंच गई कि इसका अनुमान लगाना मुश्किल है।

राहुल गांधी ने आंकड़ों के साथ पांच आरोप लगाए हैं।

पहला आरोप: पहली आपत्ति चुनाव आयुक्त की चयन प्रक्रिया को लेकर है। चुनाव आयक्त नियुक्ति अधिनियम, 2023 में प्रावधान है कि केवल प्रधानमंत्री और केंद्रीय गृह मंत्री ही 2-1 बहुमत के आधार पर चुनाव आयुक्त चुन सकते हैं। इसमें तीसरा वोट हमेशा विपक्षी पार्टी के वोट को रद्द करने के लिए संभव था। इस प्रक्रिया में प्रधान न्यायाधीश का पद एक कैबिनेट मंत्री को देने का निर्णय संदिग्ध है।

दूसरा आरोप:
-2019 विधानसभा चुनाव के दौरान मतदान 8 करोड़ 98 लाख।
-2024 के लोकसभा चुनाव में मतदान 9 करोड़ 29 लाख।
-2024 के विधानसभा चुनाव में मतदान 9 करोड़ 70 लाख।

राहुल गांधी ने कहा, 2019 से 2024 तक यानी पांच साल में 31 लाख मतदाता बढ़े, तो 2024 में दो चुनावों, लोकसभा और विधानसभा के बीच के पांच महीने में 41 लाख कैसे बढ़ गए?

तीसरा आरोप: मतदान के दिन शाम पांच बजे महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में मतदान फीसद 58.22 था। जब अगली सुबह अंतिम मतदान के आंकड़े आए, तो यह 66.05 फीसद था।

चौथा आरोप: राहुल का आरोप है कि महाराष्ट्र में एक लाख मतदान केंद्र हैं। इनमें से सिर्फ 85 निर्वाचन क्षेत्रों के करीब 12 हजार केंद्रों पर ही मतदाताओं की संख्या ज्यादा है, जहां लोकसभा चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन निराशाजनक रहा था। 85 सीटों में से अधिकतर सीटें भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन ने जीती हैं।

पांचवां आरोप: राहुल ने आयोग पर विपक्ष के सवालों पर चुप रहने का आरोप लगाया है। राहुल ने कहा, आयोग ने 2024 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों की मतदाता सूची देने के अनुरोध को सिरे से खारिज कर दिया है। उन्होंने कहा, हाई कोर्ट ने मतदान केंद्रों पर मतदान की वीडियोग्राफी और सीसीटीवी फुटेज साझा करने का आदेश दिया था। हालांकि, केंद्र सरकार ने चुनाव आयोग से परामर्श के बाद चुनाव आचार संहिता की धारा 93 (2) (ए) में संशोधन करके सीसीटीवी जैसे रिकार्ड के प्रावधान पर रोक लगा दी है। राहुल केंद्र द्वारा कानून में संशोधन के समय पर संदेह जताया।