बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद से मुक्त हुए अधिकांश देशों ने शासन के लिए लोकतंत्र को अपनाया और उसके सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप से व्यवस्था में लागू करने का प्रयास भी किया। मगर इसमें सभी सफल नहीं हो सके, तानाशाही, सैनिक शासन तथा चयनित व्यक्तियों का स्वार्थ इसमें आड़े आया। भारत ने जिस ढंग से लोकतंत्र का संचालन किया, उसकी विश्व में हर स्तर पर प्रशंसा हुई, और हो रही है। निश्चित रूप से इसका श्रेय भारत के प्रारंभिक वर्षों के नेतृत्व को दिया जाना चाहिए। स्वतंत्रता के बाद सत्ता उन लोगों के हाथों में आई थी, जो गांधीजी के नेतृत्व में उभरे थे, उनके दर्शन और सिद्धांतों से परिचित थे, अपने त्याग-तपस्या तथा देश-प्रेम के लिए जाने जाते थे।

लोकतंत्र की रक्षा के लिए मतदाताओं का सदैव सतर्क और सजग बने रहना आवश्यक है। लोकतंत्र का व्यावहारिक स्वरूप उसके नेतृत्व की क्षमताओं से ही नहीं, उसकी अपनी आकांक्षाओं के आधार पर भी सफल या विफल साबित होता है, कई बार नए-नए अवतार लेता रहता है। भारत अनेक देशों के लिए सामान्य परिस्थितियों में अनुकरणीय उदाहरण नहीं बन सका, क्योंकि यहां लोकतंत्र की स्थापना अत्यंत कठिन परिस्थितियों में हुई थी। विभाजन की जो विभीषिका भारत ने झेली, वैसा विश्व में कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। इसके अलावा यहां गरीबी, निरक्षरता, विविधिताएं, मान्यताएं और पांथिक मतभेद अनेक प्रकार के व्यवधान उत्पन्न करते रहे। यह सही है कि भारत के पास एक अत्यंत परिपक्व सामूहिक नेतृत्व उपलब्ध था, जिसने गांधीजी के साथ रहकर त्याग और तपस्या के महत्त्व को न केवल समझा और स्वीकार किया था, बल्कि उसे अपने जीवन में पूरी तरह उतार भी लिया था। उस समय के महत्त्वपूर्ण लोगों के पास संपत्ति या उसे संचय करने के किसी प्रयास की चर्चा शायद ही कभी हुई हो।

समाज में समानता, समता और सामाजिक समरसता स्थापित करने में भारतीय संविधान ने अभूतपूर्व योगदान किया है। यह अपनी गतिशीलता के लिए भी सराहा जाता रहेगा। इसमें सवा सौ से अधिक संशोधन हो चुके हैं, लेकिन उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि इसमे संसद भी ऐसे परिवर्तन नहीं कर सकती, जो इसकी मूल भावना के विपरीत हो। यह राष्ट्र की शिक्षा व्यवस्था का ही नहीं, चयनित प्रतिनिधियों का भी उत्तरदायित्व है कि वे संविधान की मूल भावना को नई पीढ़ी तक पहुंचाएं, ताकि सब इसके संरक्षण का उत्तरदायित्व निभाएं। ऐसा कर सकने में वे तभी सफल हो सकेंगे, जब उनका अपना आचरण भी संविधान-सम्मत और अनुकरणीय हो।

हर स्तर पर वैचारिक स्पष्टता, वस्तुनिष्ठता और निर्मलता बनी रहे, इसके लिए भारत में प्राचीन समय से ही अनेक व्यवस्थाएं बनाई गई थीं, जिनमें विद्वत-परिषद, सभा, संगोष्ठी, पंचायत आदि अपने सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक दायित्वों का निर्वाह करती रहीं। ढाई हजार साल से भी पहले वैशाली और वहां के लिच्छवी गणराज्य में जन प्रतिनिधियों द्वारा शासन चलाने की व्यवस्था थी। ऋग्वेद में ‘गण’ शब्द का उपयोग हुआ है, जिसका अर्थ ‘संख्या द्वारा शासन’ यानी गणराज्य, संघ या जनतंत्र से भी है। संविधान निर्माताओं ने भारतीय संस्कृति, उसकी आख्याओं तथा अनुभवों के आधार पर संविधान का अद्भुत आमुख बनाया, जो मनुष्यमात्र की समानता और समता को पूर्णरूपेण स्थापित करता है।

लोकतंत्र के निष्पादन में कोई व्यवधान न आए तथा उच्च वैचारिक और विश्लेषणात्मक स्तर बने रहें, इसकी विशेष व्यवस्थाएं भी की गईं थीं। संसद में राज्यसभा का गठन इस महत्त्वपूर्ण पक्ष को उजागर करता है कि राष्ट्रीय आवश्यकताओं और समस्याओं पर संवाद का स्तर किस प्रकार ऊंचा और अनुकरणीय बना रहे। संविधान के अनुच्छेद 80 में राष्ट्रपति द्वारा बारह सदस्यों के नामांकन की जो व्यवस्था की गई है, वह विशेषज्ञता, अनुभव की महत्ता तथा आवश्यकता की ओर ध्यान दिलाता है। ये सदस्य अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ, गहन अध्ययनशील तथा अपने सदाचरण से सदन की चर्चा का स्तर ऊंचा रखेंगे। जब देशहित के प्रश्न उभरेंगे, तब किसी भी दलगत लाभ की कोई अपेक्षा न रखते हुए ही सदस्य गण निर्णय ले सकेंगे। लोकहित ही लोकतंत्र में सर्वोपरि है। यह सिद्धांत किसी भी स्थिति में एक भी जन-प्रतिनिधि के ध्यान से नहीं उतरना चाहिए।

हर वर्तमान पीढ़ी का सबसे पहला उत्तरदायित्व होता है कि वह भावी पीढ़ी को उसके संपूर्ण व्यक्तित्व विकास के अवसर प्रदान करे। उनके सामने अपना अनुकरणीय उदाहरण रखे। आज प्रचार माध्यमों ने विधानसभा तथा संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही के सीधा प्रसारण की व्यवस्था कर दी है। इसलिए किसी भी सभा में जन-प्रतिनिधियों की भागीदारी अपना विस्तृत प्रभाव अनगिनत लोगों पर डालती है। वहां प्रयुक्त भाषा, दूसरे के विचारों के प्रति सम्मान रखते हुए अपना पक्ष रखना, शालीनता का स्तर बनाए रखना, सदन के समय के सदुपयोग का सदा ध्यान रखना तथा ऐसे ही अन्य पक्ष देशव्यापी प्रभाव डालने की क्षमता रखते हैं। हर स्तर पर जन-प्रतिनिधि अपने व्यक्तित्व तथा आचरण से भावी पीढ़ी को सजग और सतर्क बना सकते हैं। भारत के हर नागरिक को भी समझना होगा कि लोकतंत्र ही उनके मौलिक अधिकार दिला सकता है। मगर अधिकारों को पाने के पहले कर्तव्य निभाने होते हैं।