महेंद्र राजा जैन
शंकर शरण की टिप्पणी ‘पाठक से दूरी का सच’ (26 अक्तूबर) पुस्तकें ‘बिकने’ और ‘न बिकने’ की कड़वी सच्चाई बयान करती है। राजकिशोर ने (2 नवंबर) भी शंकर शरण की तरह सरकारी खरीद की वर्तमान नीति को मुख्य रूप से जिम्मेदार माना है। यह ठीक भी है। जब तक इसमें कुछ बदलाव नहीं होता, इस स्थिति में कोई सुधार नहीं होगा। बिक्री की वर्तमान प्रक्रिया से केवल पाठक नहीं, छोटे पुस्तक विके्रताओं के अस्तित्व पर भी संकट है। क्या ऐसा कुछ किया जा सकता है जिससे प्रकाशक, पुस्तक विक्रेता और फुटकर ग्राहक यानी पाठक के हित भी सुरक्षित रहें।
अवश्य किया जा सकता है। प्रकाशक की अभी थोक सरकारी खरीद से जितनी बिक्री होती है उसमें कोई कमी नहीं होगी, न छोटे स्थानीय पुस्तक विक्रेताओं को पुस्तकें न बिकने की शिकायत रहेगी और न पाठकों-ग्राहकों को पुस्तकें महंगी होने की। पुस्तक व्यवसाय में अभी जो तथाकथित भ्रष्टाचार की बातें सुनने-पढ़ने में आती हैं, वे भी तब नहीं सुनाई देंगी, और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह कि पुस्तकों के मूल्य भी कम से कम एक चौथाई कम हो जाएंगे, क्योंकि अभी जो सरकारी कर्मचारियों-अफसरों को घूस देकर सरकारी खरीद में जैसी-तैसी पुस्तकें खपा दी जाती हैं वह सब बंद हो जाएगा। इसके लिए जरूरत है प्रकाशकों के संगठित होने की।
सबसे पहले तो प्रकाशकों को फुटकर बिक्री पूरी तरह बंद कर देनी चाहिए। अभी स्थिति यह है कि आप सामान्यतया किसी भी प्रकाशक से उसके प्रकाशन पर पैंतीस-चालीस प्रतिशत तक छूट प्राप्त कर सकते हैं, चाहे आप केवल एक प्रति लें। इसलिए लोग स्थानीय पुस्तक विक्रेता से पुस्तक न खरीद कर सीधे प्रकाशक से खरीदना पसंद करते हैं। फुटकर ग्राहकों से कहा जाए कि वे अपने स्थानीय पुस्तक विक्रेता से पुस्तकें खरीदें। इसी प्रकार सरकारी विभागों से भी कहा जाए कि वे अपने आर्डर प्रकाशक के पास न भेज कर स्थानीय पुस्तक विक्रेता को भेजें, या अगर प्रकाशक के पास सरकारी विभाग से कोई आर्डर आता है तो वह उसे स्थानीय पुस्तक विक्रेता के पास भेज दे।
फुटकर बिक्री का काम स्थानीय पुस्तक विक्रेताओं पर छोड़ देने से प्रकाशक को तो अपने कार्य भार से कुछ राहत मिलेगी ही, स्थानीय पुस्तक विक्रेताओं को भी अधिक बाजार मिलेगा। वे अभी जो किसी पुस्तक की कुछ प्रतियों का आर्डर देते हैं, तब अधिक प्रतियों का आर्डर देंगे। इस तरह प्रकाशक को सीधी सरकारी खरीद बंद होने से अगर कुछ हानि होगी तो उसकी कुछ क्षतिपूर्ति स्थानीय पुस्तक विक्रेता द्वारा पुस्तक की अधिक प्रतियों का आर्डर मिलने से हो जाएगी।
अगर प्रकाशक और पुस्तक विक्रेता कुछ इस प्रकार का अनुबंध कर लें कि प्रकाशक किसी भी ग्राहक, संस्था या पुस्तकालय को किसी भी स्थिति में सीधे पुस्तक नहीं बेचेंगे, चाहे वे जितनी प्रतियों का आर्डर दें और पुस्तक विक्रेता भी संस्थाओं और पुस्तकालयों के अलावा किसी भी व्यक्तिगत ग्राहक को छपे हुए मूल्य से कम पर पुस्तक नहीं बेचेंगे और संस्थाओं-पुस्तकालयों को भी एक निश्चित राशि से अधिक कमीशन नहीं देंगे, तो कोई कारण नहीं कि पुस्तकों की सरकारी या थोक खरीद में व्याप्त भ्रष्टाचार अपने आप समाप्त न हो जाए।
संभव है, शुरू में पुस्तकालय अधिक कमीशन न मिलने की स्थिति में अपनी हठधर्मिता से स्थानीय पुस्तक विक्रेताओं को आर्डर न दें, लेकिन देर-सबेर उन्हें झुकना ही होगा, क्योंकि वे देखेंगे कि कोई भी पुस्तक विक्रेता न तो उनके द्वारा विज्ञापित टेंडर पर ध्यान दे रहा है और न एक निश्चित प्रतिशत से अधिक कमीशन देने को तैयार है। ऐसी स्थिति में वे ऐसे पुस्तक विक्रेता को ही आर्डर देंगे, जिससे उनका सीधा संपर्क हो, और जो केवल चर्चित और सहज सुलभ पुस्तकें नहीं, ऐसी पुस्तकें भी सप्लाई करने को तैयार हो, जो आसानी से प्राप्त नहीं होतीं।
अधिकतर शिक्षण संस्थाओं में पुस्तकें खरीदने के लिए अभी टेंडर प्रथा है। होता यह है कि कॉलेज और विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में खरीदी जाने वाली पुस्तकों की सूची केवल स्थानीय नहीं, अपने चहेते कुछ बाहरी पुस्तक विक्रेताओं के पास टेंडर के लिए भेजते हैं। फिर जो पुस्तक विक्रेता सबसे अधिक कमीशन देने को तैयार होता है उसे आर्डर दे दिया जाता है। यह भी एक गलत और संस्था के लिए हानिकर प्रणाली है। प्राय: देखा गया है कि जिस पुस्तक विक्रेता को आर्डर दिया जाता है वह इसके लिए संस्था के अधिकारियों को भी कुछ थमाता है। नतीजतन होता यह है कि पुस्तक विक्रेता के पास अपने स्टाक में जो पुस्तकें हैं, उनकी सप्लाई तो हो जाती है, बाकी पुस्तकों में से भी कुछ देर-सबेर मिल जाती हैं, पर पूरी पुस्तकें शायद ही कभी मिलती हैं। कुछ पुस्तकें समय पर सप्लाई न करने या बिल्कुल सप्लाई न कर पाने के लिए पुस्तक विक्रेता तरह-तरह के बहाने निकालता है।
अगर टेंडर प्रथा पूरी तरह समाप्त कर दी जाए तो पुस्तकालय को पुस्तकें तो समय पर मिलेंगी ही, स्थानीय पुस्तक विक्रेता को भी अपना व्यापार बढ़ाने में सहायता मिलेगी। अगर किसी शहर में एक से अधिक पुस्तक विक्रेता हैं तो सभी को न सही, कुछ चुने हुए पुस्तक विक्रेताओं को (क्योंकि सभी पुस्तक विक्रेता सभी प्रकार की पुस्तकें, खासकर पाठ्यपुस्तकों के अलावा अन्य विषयों की पुस्तकें, सप्लाई नहीं कर सकते) समान रूप से आर्डर दिए जा सकते हैं। थोड़े से अनुभव से पुस्तकालय को पता चल जाएगा कि कौन-सा पुस्तक विक्रेता किस विषय की पुस्तकें सप्लाई करने में या जल्द सप्लाई करने में सक्षम है।
इसका एक बड़ा लाभ यह भी होगा कि स्थानीय पुस्तक विक्रेताओं से सीधा संपर्क रहने के कारण उन्हें नई से नई पुस्तकों की सूचना तो मिलेगी ही, आधिकारिक रूप से पुस्तक प्रकाशित होने से पहले उन्हें कुछ पुस्तकें देखने को भी मिल जाया करेंगी, जिन्हें देख कर उन्हें यह निर्णय करने में सुविधा होगी कि कोई पुस्तक पुस्तकालय के उपयुक्त है या नहीं या किसी पुस्तक की कितनी प्रतियों का आर्डर दिया जाए।
जहां तक व्यक्तिगत ग्राहकों की बात है, पुस्तक भी एक प्रकार की उपभोक्ता वस्तु है, जिसका रचयिता भले लेखक हो, पर उसका निर्माता प्रकाशक होता है। अगर ग्राहक-पाठक द्वारा खरीदी गई पुस्तक विषय-वस्तु की दृष्टि से खरी नहीं उतरती तो वह भले उसके लेखक को दोष दे, पर वह उससे पुस्तक का मूल्य वापस लेने की अपेक्षा नहीं कर सकता। पर अगर पुस्तक की जिल्द खराब है, उसकी छपाई में किसी प्रकार का दोष है, उसमें प्रूफ की अशुद्धियां हैं, उसमें घटिया दर्जे का कागज लगाया गया है या और कोई शिकायत है, तो पाठक एक उपभोक्ता के नाते उसके प्रकाशक से पुस्तक की दूसरी प्रति या उसका मूल्य वापस लेने का अधिकारी होता है। जहां तक मुझे पता है, शायद ही कोई ग्राहक होगा, जो ऐसी बात सोचता हो या कभी कोई ऐसा अनुभव होने पर उसने प्रकाशक का ध्यान उस पर दिलाया हो।
हिंदी पुस्तकों की बिक्री कम होने का एक कारण यह भी है कि लोगों को प्रकाशनों की सूचना जल्दी नहीं मिलती। इसके लिए कुछ सीमा तक प्रकाशक भी जिम्मेदार हैं। पाठक नए प्रकाशनों की सूचना के लिए मुख्य रूप से पत्र-पत्रिकाओं में छपी समीक्षा पर निर्भर रहते हैं, पर प्रकाशकों की इसमें कोई रुचि नहीं जान पड़ती। इसका एक कारण मुझे तो यही जान पड़ता है कि वे व्यक्तिगत ग्राहकों की अपेक्षा पुस्तकालयों को ही पुस्तकें बेचने की ओर अधिक ध्यान देते हैं और अधिकतर पुस्तकालयों में समीक्षा पढ़ कर नहीं, बल्कि प्रकाशकों के सूचीपत्र देख कर पुस्तकों का आर्डर दिया जाता है।
आजकल कुछ प्रकाशक जिस तरीके से पुस्तकों के मूल्य बढ़ा-चढ़ा कर रखते हैं, वह देख कर सामान्य व्यक्ति की स्थिति ऐसी नहीं होती कि वह अपनी पसंद की हर पुस्तक खरीद सके। वह पुस्तकें खरीदना चाहता है, पर पढ़ने के लिए, न कि अलमारी में सजाने के लिए। साथ ही वह मेहनत और ईमानदारी से कमाए अपने धन का उचित मूल्य भी चाहता है। क्या सभी प्रकाशक इस कसौटी पर खरे उतरते हैं?
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