असीम सत्यदेव

अरुण माहेश्वरी के लेख ‘अवाम से क्यों दूर हुआ वाम’ (26 नवंबर) में रोग से ज्यादा दवा की आलोचना कर शायद मौजूदा व्यवस्था को विकल्पहीन घोषित करने की कोशिश की गई है। लेखक मान कर चल रहे हैं कि ‘आज इतना तो साफ है कि पूंजीवादी और समाजवादी शिविरों में दुनिया के विभाजन और प्रतिद्वंद्विता के जरिए समाजवाद की अनिवार्य विजय के सारे अनुमान आधारहीन साबित हुए हैं।’ इस तरह का दावा तो पूंजीवाद के बड़े से बड़े पैरोकार भी नहीं कर सकते थे और न ही वे ‘समाजवाद’ को अंतिम रूप से पराजित मान कर निश्चिंत हो सकते हैं। लेखक पूंजीवाद के मिथ्याचार का उल्लेख करते हैं, लेकिन कहीं भी यह स्पष्ट नहीं करते कि ‘अति-उत्पादन’ और ‘अति-पूंजी’ की खपत न हो पाने के कारण पूंजीवाद आज जिस लाइलाज बीमारी से जकड़ा हुआ है और संपूर्ण मानव जीवन को बीमार कर रहा है, उसका विकल्प ‘समाजवाद’ नहीं, तो फिर कौन-सी व्यवस्था होगी।

पूंजीवादी गलाकाट प्रतियोगिता जिस अराजकता को जन्म देती है उसका इलाज मशीनी उत्पादन को जनता की आवश्यकता से जोड़ कर बाकायदा योजना बना कर उत्पादन और वितरण की व्यवस्था समाजवाद के अलावा कौन-सी व्यवस्था दे सकती है। जहां तक सोवियत समाजवाद सहित समाजवादी देशों में पूंजीवाद की फिर से स्थापना होने की बात है, तो इससे यह नतीजा निकाल लेना कहां तक ठीक होगा कि अब हमेशा के लिए समाजवाद पराजित हो गया।

दास प्रथा के युग में कई बार दास विद्रोह सफल हुआ और दासों को मुक्ति मिली। लेकिन दास बनाने वालों ने विद्रोह को कुचल कर फिर से उन्हें दास बना दिया। दासों ने इसे अपनी अंतिम पराजय नहीं माना, बल्कि बार-बार लड़े और उनकी लड़ाई तब तक चली, जब तक मानव समाज से दास प्रथा हमेशा के लिए खत्म नहीं हो गई। दास प्रथा में कई बार घात-प्रतिघात की लड़ाई चली। इसके बाद सामंतों और राजा-महाराजाओं के खिलाफ जनतंत्र के पैरोकारों ने बार-बार संघर्ष किया। कभी राजाओं को उन्होंने हटाया तो फिर से राजतंत्र भी कायम हुआ। राजा-महाराजाओं और सामंतों के खिलाफ निर्णायक जीत से पहले जय-पराजय के कई दौर से गुजरने के बाद ‘समानता’, ‘भाईचारा’ और ‘आजादी’ के मूल्य के साथ जनवादी व्यवस्था स्थापित हुई, जिस पर पूंजीपतियों का कब्जा हो जाने के कारण ‘विषमता’, ‘गलाकाट प्रतियोगिता’ और ‘पूंजी की गुलामी’ की व्यवस्था कायम हो गई।

मानव इतिहास बताता है कि जर्जर से जर्जर व्यवस्था भी खत्म होने से पहले नई व्यवस्था को आने से रोकने में पूरी ताकत लगा देती है। पूंजीवादी व्यवस्था भी यही कर रही है। समाजवादी व्यवस्था पर सीधे हमला बोलना, उसमें कामयाब न होने पर अंदर तोड़फोड़ करना, कम्युनिस्ट पार्टी में असली चेहरे को छिपाते हुए घुस जाना और मौका मिलने पर पार्टी पर कब्जा करना, कम्युनिस्ट पार्टी की नेम-प्लेट लगाते हुए पूंजीवादी व्यवस्था को फिर से स्थापित करना आदि क्रियाकलाप पूंजीवादी व्यवस्था के पैरोकारों ने किए हैं और उनकी षड्यंत्रकारी कार्रवाइयां ज्यादा सचेत ढंग से अंजाम तक पहुंची हैं। लेकिन उनके सफल षड्यंत्रों और पार्टी तथा सरकारों पर कब्जा जमा लेने के कारण ‘समाजवाद’ को पराजित मान लेना गलत निष्कर्ष होगा।

इसी तरह कम्युनिस्ट पार्टी पर भी लेखक ने जल्दबाजी में निष्कर्ष दिया और यह साबित करने की कोशिश की है कि अब आर्थिक-सामाजिक अधिकारों से लेकर पर्यावरण और मानवाधिकारों की लड़ाइयों में कम्युनिस्ट पार्टियां गायब हैं। इस विषय पर विस्तार में जाने के बजाय यहां इतना ही कहना है कि विश्व के विभिन्न भागों में इंसानियत के हक में चल रहे संघर्षों में अगर कम्युनिस्ट पार्टियों और कम्युनिस्ट विचारधारा की उपस्थिति नहीं रहती, तो दुनिया के हुक्मरान चैन की नींद सो रहे होते। मगर सच यही है कि उन्हें तो हर संघर्ष के पीछे इन्हीं विचारों और खुले या गुप्त रूप से काम कर रही कम्युनिस्ट पार्टियों का हाथ होने का अंदेशा रहता है।

रही बात जनवादी केंद्रीयता की, तो यहां देखने की जरूरत थी कि क्या पार्टी के भीतर जनवादी केंद्रीयता का सिद्धांत लागू हुआ है या नहीं। जनवादी केंद्रीयता के सिद्धांत में तो तानाशाही नहीं आ सकती। इस सिद्धांत के मुताबिक किसी विषय पर अधिक से अधिक विचार-विमर्श करके सर्वसम्मति से पहुंचा जाना चाहिए। अगर सर्वसम्मति तक पहुंचना संभव नहीं हो तब फैसला मतों के आधार पर होता है। इसमें बहुमत की राय को अल्पमत मानता है, पर इसके साथ ही उसे विरोध दर्ज कराने का पूरा अधिकार होता है। इस प्रक्रिया का पालन करने पर पार्टी में जनवाद कायम रहता है और तानाशाही के लिए इसका पालन नहीं, बल्कि इसका उल्लंघन जरूरी होता है।

पूंजी के वर्चस्व के खिलाफ पेरिस कम्यून का शासन सत्तर दिनों तक चला। यह पहला शासन था और बिना कम्युनिस्ट पार्टी के स्थापित हुआ था। फिर 1917 में बाकायदा पार्टी के नेतृत्व में रूस में क्रांति हुई। यह शासन 1956 तक चला, जिसे ख्रुश्चेव के नेतृत्व में पूंजीवादी ताकतों ने पलट कर फिर से पूंजीवाद की स्थापना की। दुनिया की सबसे बड़ी आबादी चीन में कम्युनिस्ट पार्टी को 1949 में सत्ता स्थापित करने में कामयाबी मिली। समाजवादी चीन को 1978 में देंग शियाओ पेंग के नेतृत्व में पूंजीवादी चीन में तब्दील किया गया। इन दोनों देशों में और इनके अलावा भी जहां-जहां समाजवादी सत्ता को उखाड़ कर फिर से पूंजीवाद कायम हुआ, वहां का समाज कैसा बना! महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार का आगमन भी पूंजीवाद के साथ आया और फलता-फूलता रहा। समाजवादी समाज की वर्तमान दुर्दशा समाजवादी प्रयोग पर नहीं, बल्कि उन साजिशों और प्रतिगामी कदमों पर सवाल उठाती है, जिनकी वजह से पूंजीवाद फिर से स्थापित हुआ।

 

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