मुझे उस समाजवादी दौर की सारी बातें अच्छी तरह याद हैं, जब इस विचारधारा के नाम पर देश को गुरबत की बेड़ियों में जकड़ कर रखा था हमारे शासकों ने। शासक नहीं, मालिक थे ये लोग, इसलिए कि अर्थव्यवस्था पूरी तरह इनके हाथों में थी। डबल रोटी और डालडा से लेकर खिलौने, घरेलू सामान, गाड़ियां, बिजली का सामान सब बनते थे सरकारी कारखानों में, जिनको चलाते थे सरकारी अधिकारी। गुणवत्ता की परवाह कम थी इन अफसरों को और अपनी सरकारी नौकरियों की ज्यादा, सो उस दौर की पहचान थी घटिया ‘मेड इन इंडिया’ चीजें। मजाक-सा बन गया था ‘मेड इन इंडिया’, क्योंकि सब जानते थे कि अगर किसी वस्तु के ऊपर ये तीन शब्द दिखें तो घर लाते ही टूट सकती है। जिनके पास थोड़े-बहुत पैसे थे, विदेशी चीजों के पीछे भागते थे, जिनको तस्कर लाया करते थे दुबई और हांग कांग से और चोरी-छिपे बेचते थे।

जहां तक सार्वजनिक सुविधाओं की बात है, तो ये भी रद्दी हुआ करती थीं, क्योंकि इनको बनाया गया था हम आपके लिए नहीं, बल्कि सरकारी नौकरियां उपलब्ध कराने के मकसद से। याद है मुझे कि एक समय था जब एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस में ग्राहकों से ज्यादा मुलाजिम हुआ करते थे। एयपोर्ट इतने बेकार थे हमारे कि विदेशों से जब लोग आते थे तो एयपोर्ट को देखते ही जांच लेते थे कि किसी गरीब, पिछड़े देश में आ गए हैं। विदेशी निवेशक न होने के बराबर थे और देसी निवेशक पूरी तरह अधिकारियों और राजनेताओं के नियंत्रण में हुआ करते थे। लाइसेंस राज का जमाना था। लाइसेंस देना या न देना राजनेताओं और आला अधिकारियों की मर्जी पर निर्भर था। यह हाल रहा भारत देश का 1991 तक, जब कंगाली की कागार पर पहुंच गया था देश। सो, प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने मजबूरी में लाइसेंस राज समाप्त किया और निजी निवेशकों के लिए रास्ता खोला अर्थव्यवस्था में निवेश करने के लिए। नतीजा यह कि आज भारत में दुनिया के बेहतरीन एयरपोर्ट, अस्पताल, स्कूल, होटल और अन्य सुविधाएं उपलब्ध हैं। आज गर्व से कह सकते हैं हम ‘मेड इन इंडिया’, इसलिए कि दुनिया की बेहतरीन चीजें अपने देश में बनती हैं और सस्ते दामों पर बिकती हैं। मेरे विदेशी दोस्त दिल्ली और मुंबई आते हैं खरीदारी करने। इस परिवर्तन के पीछे हैं हमारे देसी उद्योगपति और व्यापारी। ये न होते तो शायद आज भी भारत का बुरा हाल होता। इसलिए जब मुंबई में मुझे निराशा का माहौल दिखता है, तो चिंता होने लगती है।

आज चिंताजनक निराशा दिखती है मुंबई में। पिछले साल से निराशा के आसार दिखने लगे थे। एक विदेशी संस्था ग्लोबल वेल्थ माइग्रेशन रिव्यू के मुताबिक 2018 में पांच हजार भारतीय करोड़पति देश छोड़ कर चले गए थे। पिछले दिनों मुंबई में निराशा दोगुनी इसलिए हो गई है, क्योंकि बजट से जो नई आर्थिक दिशा की उम्मीद थी, उस पर पानी फिर गया है। अब चाहे बड़े उद्योगपति हों या छोटे व्यापारी, सब निराश दिखते हैं। उनकी निराशा का कारण है कि नरेंद्र मोदी की आर्थिक नीतियों में समाजवादी सोच की बू आने लगी है। सबूत है कि कारपोरेट टैक्स इस बजट के बाद चालीस फीसद से ऊपर चला गया है। वित्तमंत्री से जब इसके बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि यह कर सिर्फ उन पांच हजार लोगों को देना होगा, जिनकी वार्षिक आमदनी दो करोड़ रुपए से ज्यादा है। शायद जानती नहीं हैं निर्मलाजी कि इन्ही पांच हजार लोगों की बदौलत भारत में इतना परिवर्तन आया है कि हम आर्थिक महाशक्ति बनने के सपने देख रहे हैं।इस पांच हजार की गिनती में आते हैं ऐसे लोग, जो इतनी बेहतरीन चीजें बना रहे हैं कि कई देशों में निर्यात होती हैं उनकी ‘मेड इन इंडिया’ चीजें। इस गिनती में आते हैं वे लोग, जिन्होंने दुनिया को दिखा दिया है कि भारत में विश्व स्तर के उद्योग हैं, विश्व स्तर की कारीगरी और विश्व स्तर की आम सेवाएं। इनमें निराशा आज दिखने लगी है इतनी कि प्रधानमंत्री को स्वयं चिंता होनी चाहिए। बजट के बाद नरेंद्र मोदी ने वाराणसी में भाषण दिया था, जिसमें उन्होंने पेशेवर निराशा फैलाने वालों से सावधान रहने को कहा भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए। स्पष्ट करना चाहती हूं कि मुंबई में जिन लोगों में मैंने मायूसी देखी है पिछले दिनों, वे पेशेवर निराशा फैलाने वाले नहीं हैं।

मायूस हैं आज तो सिर्फ इसलिए कि जिन आर्थिक सुधारों की उनको इस बजट से उम्मीद थी वह पूरी नहीं हुई है। लोकसभा चुनावों में इतनी शानदार जीत के बाद उनको विश्वास था कि मोदी अब अर्थव्यवस्था को उस दिशा में लेकर जाएंगे जरूर, जिससे संपन्नता आ सकती है। मोदी ने कई बार खुद कहा है कि उनका मकसद सिर्फ गरीबी हटाना नहीं है, देश को संपन्न बनाना है। यह संपन्नता कैसे आएगी, जब उन लोगों को दंडित किया जाएगा, जिनके बिना देश में न धन पैदा हो सकता है और न संपन्नता आ सकती है? दशकों लंबे समाजवादी दौर ने साबित कर दिया है कि न राजनेता व्यवसाय करने में सफल रहे हैं, न सरकारी अधिकारी। उस दौर ने यह भी साबित करके दिखाया है कि सरकारी कारखाने कभी मुनाफा नहीं कमा सकते हैं और सरकारी आम सेवाएं कभी विश्व स्तर की नहीं बन सकती हैं। इसलिए समझ में नहीं आता है कि इतना शानदार जनमत हासिल करने के बाद मोदी क्यों नहीं देश की आर्थिक दिशा बदलने की हिम्मत दिखा पा रहे हैं। क्या भूल गए हैं कि समाजवादी आर्थिक सोच ने कई देशों को इतना बर्बाद किया है कि चीन और रूस जैसे मार्क्सवादी देश भी अपनी आर्थिक दिशा बदलने पर मजबूर हुए हैं।