भारत की राजनीति में विपक्ष के खेमे में कुछ-कुछ हो रहा है। बहुत दिनों बाद एक हरारत दिख रही है विपक्ष में, जिससे सत्तापक्ष में तकलीफ भी दिखने लगी है। बात मैं नीतीश कुमार के विपक्ष को इकट्ठा करने वाले प्रयासों की नहीं कर रही हूं। बात कर रही हूं कांग्रेस पार्टी के सबसे बड़े नेता राहुल गांधी की। कांग्रेस अकेली पार्टी है विपक्ष में जो राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती दे सकती है नरेंद्र मोदी की अति-शक्तिशाली भारतीय जनता पार्टी को अगले लोकसभा चुनाव में।
मोदी का नाम पार्टी के नाम के आगे लगाना जरूरी है क्योंकि मोदी को अलग कर दिया जाए तो भारतीय जनता पार्टी किसी हाल में तीसरी बार पूर्ण बहुमत से नहीं जीत सकती है। मोदी ने अपनी छाप ऐसे डाल दी है इस राजनीतिक दल पर कि उनके बिना भाजपा विधानसभा चुनावों में भी कमजोर पड़ती है। आम लोगों से पूछा जाए कि वोट किसको देने वाला है तो अक्सर जवाब मिलता है “मोदी को”। भारतीय जनता पार्टी का नाम तक नहीं लेते।
इसलिए अभी तक तकरीबन तय कर चुके थे राजनीतिक पंडित कि अगले साल होने वाले आम चुनावों में मोदी का मुकाबला कोई नहीं कर सकेगा। लेकिन जबसे राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा पर निकले और उनके स्वागत में लाखों लोग दिखे, तब से ऐसा लग रहा है कि भारतीय जनता पार्टी के आला अधिकारियों में एक परेशानी सी होने लगी है। ऐसा न होता तो राहुल गांधी के हर बयान के बाद वरिष्ठ मंत्रियों को नहीं सामने आना पड़ता उनके हर वक्तव्य को गलत साबित करने के लिए। पिछले सप्ताह उन्होंने अमेरिका में छात्रों के साथ बात करते वक्त मोदी का मजाक क्या किया कि मोदी के मंत्री टीवी पर दिखे उन पर भारत का अपमान करने का दोष लगाने के लिए।
पहली बात तो यह है कि प्रधानमंत्री की आलोचना करना जायज राजनीतिक चाल मानी जाती है। इसको राजद्रोह कहना गलत है। राहुल गांधी ने अपने इस विदेशी दौरे पर सोच-समझ कर अपनी बातें रखी हैं। कुछ महीने पहले उन्होंने अपने लंदन के दौरे में कहा था कि भारत में लोकतंत्र समाप्त हो गया है और इसकी चिंता हर पश्चिमी लोकतांत्रिक देश को होनी चाहिए, सिर्फ भारतीयों को नहीं। इसका गलत मतलब निकाल कर मोदी के समर्थकों ने कहना शुरू कर दिया कि राहुल भारत के अंदरूनी मामलों में विदेश को दखल देने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं।
इस बीच आया मानहानि का वह मुकदमा जिसकी सख्त सजा उनको ऐसी सुनाई गई कि बहाना बनी उनको लोकसभा से निष्कासित करने की। निष्कासित होने के फौरन बाद उनका सरकारी मकान भी वापस ले लिया गया। यों तो ये फैसले कानून के तहत लिए गए हैं, लेकिन इनसे बदले की बू आती है।
कर्नाटक हारने के बाद भारतीय जनता पार्टी में घबराहट और दिखने लगी है। इसलिए पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री ने जब अजमेर में एक आम सभा को संबोधित किया, उन्होंने तकरीबन अपना पूरा भाषण कांग्रेस की कमजोरियों को गिनाने में लगाया। अपनी सरकार की उपलब्धियां भी गिनाईं, लेकिन बार-बार याद दिलाया कि 2014 से पहले कांग्रेस ने सिर्फ देश को लूटने का काम किया है। क्या वास्तव में कांग्रेस के लंबे शासनकाल में देश के विकास के लिए कोई काम नहीं हुआ? ये सच होता तो मोदी ने क्यों मनरेगा जैसी योजनाओं को खत्म करने के बदले उनमें निवेश बढ़ाया है? सोनिया गांधी के खाद्य सुरक्षा अधिनियम को भी समाप्त करने के बदले उसमें निवेश बढ़ाया गया था कोविड के दौर में।
प्रधानमंत्री बनने से पहले मोदी कई बार इस तरह की समाजवादी योजनाओं की आलोचना करते थे, लेकिन उसी समाजवादी रास्ते पर देश की अर्थव्यवस्था को रखा। इसका मतलब यही निकाला जा सकता है कि 2014 से पहले जो शासक थे इस देश के, उन्होंने काफी कुछ किया देश के लिए। राहुल गांधी की बदलती छवि से परेशान न होती भाजपा तो कोई जरूरत नहीं होती इतना समय कांग्रेस की गलतियां गिनाने में बर्बाद करने का। खासतौर पर जब हर सर्वेक्षण के मुताबिक नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है और जब कोई नहीं मानता है कि अगले आम चुनावों के बाद वे तीसरी बार प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे।
बदलाव आया है अगर तो सिर्फ ये कि राहुल गांधी की बातों में अब समझदारी दिखने लगी है और उनकी रणनीति में होशियारी। अपने आपको वे मोदी के बिल्कुल विपरीत किस्म के राजनेता साबित करना चाहते हैं, इसलिए पहला वार था उनका कहना कि “नफरत के बाजार में मैंने मोहब्बत की दुकान खोली है।”
पिछले सप्ताह उन्होंने छात्रों को संबोधित करते हुए याद दिलाया कि उनको कोई परेशानी नहीं है उनके सवालों के जवाब देने में और उधर मोदी हैं, जिन्होंने आज तक एक भी संवाददाता सम्मेलन नहीं बुलाया है। याद यह भी दिलाया कि संसद के अंदर प्रधानमंत्री किसी भी सवाल का जवाब नहीं देते हैं बावजूद इसके कि ये बुनियादी लोकतांत्रिक परंपरा है। ऐसा नहीं है कि छवि बदलने के बाद राहुल गांधी अब कांग्रेस को सत्ता वापस दिला सकेंगे अगले साल। लेकिन ऐसा जरूर है कि उनकी बातें और उनके भाषणों से भारतीय जनता पार्टी को दिखने लगा है कि अगला लोकसभा चुनाव अभी से वह जीत चुकी है।
चुनावों में मुकाबला अच्छी बात है, क्योंकि इससे ताकत मिलती है लोकतंत्र कि जड़ों को। इसलिए राहुल गांधी को दाद देनी चाहिए कि वे अब मुकाबला करने लायक दिखने लगे हैं। लेकिन अगर उनमें दोबारा वही घमंड दिखने लगेगा जो कांग्रेस के इस “शाही परिवार” में था, तो फायदा होगा नरेंद्र मोदी का, जिन्होंने परिवारवाद को बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया है।