सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले सप्ताह याद दिलाया कि लोकतंत्र में प्रशासनिक फैसले जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों को लेने चाहिए, अफसरों को नहीं। याद दिलाया कि महाराष्ट्र में राज्यपाल ने सीमाएं लांघ कर उद्धव ठाकरे की सरकार गिराने में शिव सेना के बागी विधायकों की मदद की थी। न्यायालय ने दिल्ली सरकार का साथ दिया यह निर्णय सुना कर कि अफसरों का चयन और उनके तबादले उप-राज्यपाल का नहीं, दिल्ली के मुख्यमंत्री का अधिकार है।
महत्त्वपूर्ण फैसले हैं ये, जो यह भी याद दिलाते हैं कि अंग्रेजों के जाने के बाद स्वतंत्र भारत के शासकों ने शासन के तौर-तरीकों में बहुत कम परिवर्तन किया है। और तो और, आज के भारत में अब भी ऐसे पद मौजूद हैं, जो ब्रिटेन में बिल्कुल नहीं हैं। इनमें से एक पद है राज्यपाल का और दूसरा है कलेक्टर का। कलेक्टर नाम का कोई पद न तब था जब ब्रिटिश साम्राज्य के ताज का कोहिनूर भारत माना जाता था। ब्रिटिश राज के दौर में कलेक्टर अक्सर अंग्रेज होते थे, जो पूरे जिले को संभालते थे, ताकि हम गुलाम लोग समय पर उन्हें कर अदा करते और विदेशी मालिकों के कानून का पालन करते रहें।
स्वतंत्र भारत में भी कलेक्टर साहब का वही काम है और वही शान। आलीशान बंगलों से हुकुम चलाते हैं कलेक्टर साहब, जैसे कि लोकतंत्र आया ही न हो। केंद्र सरकार से जो योजनाएं आती हैं, जो पैसा आता है, उसको कलेक्टर साहब संभालते हैं। यहां तक कि जिस समंदर किनारे के गांव में मैं अक्सर जाया करती हूं, वहां पंचायत कलेक्टर साहब की इजाजत के बिना टूटी सड़कों की मरम्मत नहीं कर सकती है। न कोई दुकान खोलने की इजाजत दे सकती है।
राज्य सरकारों पर रोब जमाने का काम करते हैं राज्यपाल, जिनके आवास मुख्यमंत्रियों के घरों से कहीं ज्यादा बड़े और शानदार होते हैं। शायद ही कोई इंसान होगा, जो इतने बड़े महल में रह कर राजा होने के सपने न देखता हो। सो, प्रशासनिक और राजनीतिक मामलों में राज्यपाल जरूरत से ज्यादा दखल देते हैं। खासकर तब जब दिल्ली से किसी राज्य सरकार को गिराने की प्रक्रिया शुरू होती है। महाराष्ट्र में पिछले साल जब उद्धव ठाकरे की सरकार गिराई गई थी भारतीय जनता पार्टी के कहने पर, तो राज्यपाल महोदय की पूरी सहायता न मिलती तो शायद सरकार गिरती नहीं।
राज्यपाल की आंखों के सामने विधायकों को मुंबई से दूर ले जाया गया, ताकि वे बगावत करने का फैसला बदल न डालें। उनको कई हफ्तों तक गुजरात, असम और गोवा के पांच सितारा होटलों में रखा गया और इस बीच अफवाहें गरम थीं मुंबई में कि इनको कितने पैसों में खरीदा जा रहा है। ऐसे सौदों का सबूत कभी मिलता तो है नहीं, लेकिन महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री, देवेंद्र फडणवीस ने स्वीकार किया है कि उन्होंने अपना बदला लेने के लिए ठाकरे सरकार को गिराया। बदला इस बात का कि शिव सेना ने पिछले विधानसभा चुनावों के बाद भारतीय जनता पार्टी से रिश्ता तोड़ कर कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ मिल कर सरकार बनाई थी।
जब इस चाल को रोकने की कोशिश की थी फडणवीस ने, तब भी राज्यपाल की सहायता ली थी। देर रात को प्रधानमंत्री से इजाजत लेकर सुबह होने से पहले मुख्यमंत्री बन गए थे फडणवीस। और अजीत पवार को उप-मुख्यमंत्री बनाया इस उम्मीद से कि वे राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को तोड़ कर अपने साथ कई विधायक खींच लाएंगे। यह चाल उस समय चली नहीं, लेकिन कुछ दिनों पहले फिर से इस किस्म की कोशिश हुई थी। इस बार एकनाथ शिंदे की सरकार गिराने के लिए। राज्यपाल की मदद के बिना ऐसी हरकतें नहीं हो सकती हैं।
ऐसा नहीं कि इस देश में कभी ऐसे राज्यपाल नहीं रहे हैं, जिन्होंने देश की भलाई के लिए काम किया है। जरूर रहे हैं और इनमें से सुनहरे अक्षरों में चमकता है ब्रजकुमार नेहरू का नाम। वे उस समय राज्यपाल थे जम्मू कश्मीर के, जब इंदिरा गांधी ने फारूक अब्दुल्ला की सरकार गिराने का फैसला किया था बावजूद इसके कि फारूक की पहली सरकार का बमुश्किल एक साल पूरा हुआ था। बावजूद इसके कि उस 1983 वाले चुनाव में कोई धांधली नहीं हुई थी और आम कश्मीरियों ने पहली बार असली लोकतंत्र का मजा चखा था।
इंदिरा गांधी के चचेरे भाई थे नेहरू, तो उन्होंने पहले उनको समझाने की कोशिश खूब की यह कह कर कि ऐसा करके आम कश्मीरी का लोकतंत्र पर भरोसा टूट जाएगा। जब इंदिरा गांधी ने उनकी बात नहीं मानी तो नेहरू ने इस्तीफा दे दिया था। कई लोग मानते हैं, और इनमें मैं भी हूं, कि कश्मीर की वर्तमान समस्या की शुरुआत फारूक की पहली सरकार गिराए जाने के बाद शुरू हुई थी।
इतिहास में उलझना नहीं चाहती हूं, इसलिए कि इस लेख में एक ही मुद्दे पर ध्यान देना चाहती हूं और वह यह है कि कई पद ऐसे हैं, जिनको समाप्त करने का समय आ गया है। जिस तरह अंग्रेजी राज में बने कई कानून हटाए हैं केंद्र सरकार ने, उसी तरह कुछ फिजूल के पद भी समाप्त करने का काम अगर करते हैं प्रधानमंत्री, तो यकीन के साथ कहा जा सकता है कि विधायकों की खरीद-फरोख्त की गलत परंपरा अपने आप बंद हो जाएगी।
इस सौदेबाजी के सबूत ढूंढ़ना कठिन है, लेकिन जाहिर-सी बात है कि जब कोई विधायक किसी पार्टी के नाम पर चुनाव जीतने के बाद किसी दूसरी पार्टी में चला जाता है तो अचानक विचारधारा बदलने की वजह से नहीं। कभी मंत्री बनने के सपने दिखा कर उसको तोड़ा जाता है तो कभी पैसे बनाने के। हर बार जनता के साथ धोखा होता है और लोकतंत्र थोड़ा कमजोर हो जाता है।