पिछले सप्ताह चुपके से सीबीआइ ने स्वीकार किया कि सुशांत सिंह राजपूत की मौत आत्महत्या थी, हत्या नहीं। मेरे लिए इस बात को सुनकर उन दिनों की यादें ताजा हुईं जब रोज हमारे निजी समाचार चैनलों पर अदालत चलती थी, जिसमें जाने-माने एंकर न्यायाधीश बन जाते थे। खासतौर पर याद आया मुझे किस जोश से एक प्रसिद्ध महिला एंकर ने अपने कार्यक्रम को अदालत में परिवर्तित करके रिया चक्रबर्ती को दोषी ठहराया था कई ‘गवाहों’ को अपने कार्यक्रम में बुलाकर। कभी गवाही देते थे फिल्मी दुनिया के अनजान सितारे, कभी न्याय प्रणाली के तथाकथित विशेषिज्ञ। याद आया मुझे कि हैरान रह गई थी एक दिन जब मैंने एक पत्रकार के मुंह से इस कार्यक्रम में सुना कि ‘अब तो तय हो गया है कि सुशांत की हत्या की थी उसकी प्रेमिका ने उसके बैंक से पंद्रह करोड़ रुपए चुराने के लिए’।
ताकत का गलत इस्तेमाल करके जीवन को खराब करने वाली बात
कई सालों से मैंने पत्रकारिता की है, लेकिन पहली बार देखा मैंने कि पत्रकार किस तरह अपनी ताकत का गलत इस्तेमाल करके किसी के जीवन को पूरी तरह बर्बाद कर सकते हैं। एक स्पर्धा चल पड़ी थी टीवी एंकरों के बीच रिया को दोषी ठहराने के लिए। रोज कोई नया ‘एंगल’ निकाला जाता था, रोज कोई नया आरोप। कभी रिया पर आरोप लगता था कि उसने सुशांत को मादक पदार्थ देकर उनकी दिमागी हालत इतनी बिगाड़ दी थी कि वे आत्महत्या करने पर मजबूर हो गए ऐ। रोज नई अटकलें लगाई जातीं। रोज कोई नई साजिश के बारे में जानकारी दी जाती इन टीवी अदालतों में। रोज हमारी भेंट होती थी सुशांत के किसी परिजन या दोस्त से, जो उनके गुण गाते आश्वासन देते थे कि आत्महत्या की कोई संभावना ही नहीं थी इसलिए कि सुशांत सिंह राजपूत में उन्होंने कभी न मायूसी देखी और न ही किसी मानसिक बीमारी के आसार।
देश के जानेमाने टीवी पत्रकारों ने इतना तगड़ा मुकदमा पेश किया कि हम सब मान चुके थे कि सुशांत की मृत्यु आत्महत्या नहीं, हत्या थी। साबित हो गया है अब जब सीबीआइ की जांच समाप्त हो गई है कि टीवी समाचार चैनलों ने गैर-जिम्मेदाराना पत्रकारिता की थी। लेकिन इनसे भी कम जिम्मेदारी दिखाई सरकारी जांच संस्थाओं ने। केंद्रीय नारकोटिक्स ब्यूरो और प्रवर्तन निदेशालय ने मिलकर मीडिया को निराधार किस्से लीक करने का काम किया, ताकि मीडिया का मुकदमा और ताकतवर हो। इन संस्थाओं के तार केंद्रीय गृह मंत्रालय के हाथ में होती हैं। केंद्र सरकार को क्यों इतनी रुचि थी रिया को दोषी ठहराने में? इसका जवाब यह है कि ये वे दिन थे, जब बालीवुड को बदनाम करने के लिए एक मुहिम चली थी।
हर दूसरे दिन केंद्र सरकार के किसी मंत्री का वक्तव्य आता था कि बालीवुड पर मुसलमानों का कब्जा है, इसलिए सिर्फ ‘सेकुलर’ किस्म की फिल्में बनती हैं। राष्ट्रवादी फिल्में नहीं, जिनकी सख्त जरूरत है। बालीवुड का चरित्र बदलने के लिए प्रधानमंत्री ने खुद अपने दफ्तर में फिल्मी दुनिया की जानी-मानी हस्तियों को बुलाया था और जो लोग नहीं गए, उनको निशाना बनाया गया था कुछ महीनों बाद। शाहरुख खान के बेटे को मादक पदार्थों के झूठे मामले में फंसाया था भारतीय जनता पार्टी के कुछ नीचे स्तर के कार्यकर्ताओं ने। आखिरकार आर्यन खान निर्दोष पाए गए थे, लेकिन जेल में एक महीना रहने के बाद। सोचिए कितने गहरे घाव बन जाते हैं जेल जाने से किसी इक्कीस वर्ष के नौजवान के दिल-ओ-दिमाग में? आर्यन खुशकिस्मत थे कि मीडिया की हमदर्दी उनके साथ थी, इसलिए उनको दोषी ठहराने के लिए कोई मीडिया मुकदमा नहीं चला था।
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रिया और उसके भाई को जेल में भेजा गया और जब वहां से छूट कर निकले तो उनको रोज थाने में जाकर पेशी देनी पड़ती थी जहां पहुंच जाती थी टीवी पत्रकारों की टोलियां। माइक उनके सामने रखकर उनसे पूछे जाते थे हर किस्म के बदतमीज सवाल जो कभी असली मुजरिमों से नहीं पूछे जाते हैं। याद है मुझे कि इस तमाशे को देखकर मैं शर्मिंदा हुआ करती थी इतनी कि टीवी बंद कर देती थी। चक्रवर्ती परिवार से मैं अपने मीडिया साथियों की तरफ से माफी मांगना चाहती हूं। शर्मिंदा इस बात को लेकर भी हूं कि जिन जाने-माने एंकरों ने रिया पर मुकदमा चलाकर उसको टीवी पर दोषी ठहराया था, आज चुप हैं।
उम्मीद करती हूं कि इस मीडिया मुकदमे के असफल होने के बाद हम मीडिया वाले सीख गए होंगे कि न्याय दिलाना हमारा काम नहीं है। हमारा काम सिर्फ यह है कि ईमानदारी से हम उन सारे तथ्यों को सामने लाएं, जिनके आधार पर अदालत में मुकदमा चल सके। ऐसा किसी ने नहीं किया था उस समय। एक-दो पत्रकार गए थे सुशांत सिंह के घर उनके नौकरों से बातें करने और उस जगह की तस्वीरें बनाने जहां उनकी लाश मिली थी, लेकिन इसके आगे किसी ने कोशिश नहीं की तथ्यों को खोजने की। हमने सिर्फ वही वीडियो चलाया जो हमको सरकार की तरफ से मिलते थे और सुशांत के परिवार वालों से भी। इसको किसी तरह से असली खोजी पत्रकारिता नहीं माना जा सकता है।
अफसोस के साथ स्वीकार करना पड़ता है मुझे कि इस नए भारत की नई पत्रकारिता को देखकर मुझे ऐसा लगता है जैसे मेरी यहां कोई जगह नहीं है। मेरे जमाने के पत्रकार आज भी ईमानदारी से पत्रकारिता करने की कोशिश करते हैं, लेकिन उनके सभ्य टीवी शो कौन देखेगा जब सनसनीखेज नाटक चल रहे हों अन्य चैनलों पर। अजीब दौर से गुजर रहे हैं हम जब निर्दोष को दोषी ठहराने में लोगों को दुख होने के बदले मजा आता है। हां, दोषी अगर हम मीडिया वाले हैं तो दोषी आप सब भी हैं, जिनको रिया चक्रवर्ती का मीडिया मुकदमा देखने में मजा आया था। सच यह है कि इस किस्म की पत्रकारिता अगर आम लोगों को पसंद होगी तो इस किस्म की पत्रकारिता ही चलेगी। फिल्मों की तरह पत्रकारिता भी बाक्स आफिस पर निर्भर है।