बुरे दिन हर राजनीतिक दल के आते हैं, लेकिन कांग्रेस पार्टी का वर्तमान हाल देख कर यकीन करना मुश्किल है कि यह वही राजनीतिक दल है, जिसने आजादी दिलाई थी इस देश को। वही राजनीतिक दल, जिसमें हुआ करते थे गांधी, पटेल और आंबेडकर जैसे महान नेता। जिस दिन असम और केरल में कांग्रेस की दुर्गति की खबरें आर्इं, ऐसा लगा कि हमारी यह सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी दिशाहीन और नेतृत्वहीन हो गई है। टीवी पंडितों ने जब कांग्रेस प्रवक्ताओं से पूछा कि क्या अब प्रियंका गांधी ही बचा सकती हैं कांग्रेस को, तो कइयों ने कहा कि प्रियंका का स्वागत है।

ऐसी बातें चुनाव नतीजों के पहले से होने लगी थीं। दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में खबर थी कि प्रशांत किशोर ने उत्तर प्रदेश के आने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर सुझाव दिया कांग्रेस आला कमान को कि प्रियंका का नाम मुख्यमंत्री के तौर पर घोषित किया जाता है तो कांग्रेस शायद जीत सकती है उत्तर प्रदेश में। ये वही प्रशांत किशोर हैं, जिनके बारे में माना जाता है कि चुनावी रणनीति बनाने में इतने महान जादूगर हैं कि उनके बिना नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री न बनते और न नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनते।

प्रियंकाजी पर इतना भरोसा करके शायद किशोर साहब ने यह नहीं सोचा होगा कि इस तरह का सुझाव पेश करते हुए वे स्वीकार कर रहे थे कि इतना बुरा हाल है कांग्रेस पार्टी का कि अपने राजपरिवार के अलावा कुछ नहीं रहा उसके पास। चुनाव परिणाम जिस दिन आए और टीवी की चर्चाओं में प्रियंका का नाम आने लगा, तो याद आया मुझे कि इसी तरह की बातें मैंने 2014 के आम चुनाव के दौरान बनारस में भी सुनी थी। इस प्राचीन शहर के बुद्धिजीवी और राजनीतिज्ञ मिला करते थे रोज शाम पप्पू की चाय की दुकान पर, जो अस्सी घाट के एक नुक्कड़ पर है। एक शाम वहां मैं भी थी, जब चर्चा हो रही थी इस बात को लेकर कि नरेंद्र मोदी को बनारस में कांग्रेस का कौन-सा नेता हरा सकता है। आम सहमति हुई कि यह काम सिर्फ प्रियंका कर सकती हैं, लेकिन फिर कुछ क्षणों के लिए सन्नाटा छा गया, जिसके बाद किसी ने कहा, ‘लेकिन प्रियंका को तभी लाया जाएगा, जब राहुल गांधी पूरी तरह फ्लॉप साबित हो जाएं।’ इस पर भी आम सहमति हुई।

तो क्या राहुल गांधी पूरी तरह फ्लॉप हो गए हैं? कहना मुश्किल है, लेकिन इतना तो जरूर कह सकते हैं कि 2014 के बाद कांग्रेस ने सरकारें गंवाई हैं महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली, असम और केरल में। रही बात बिहार की, तो यहां भी महागठबंधन में कांग्रेस की बहुत छोटी भूमिका रही है। चुनावों के अलावा भी राहुल गांधी ने बतौर विपक्ष के सबसे बड़े नेता, कुछ खास करके नहीं दिखाया है। लंबी छुट्टियों के बाद जब नई ऊर्जा लेकर वापस वतन आए, तो सक्रिय जरूर हुए संसद के अंदर भी और बाहर भी, लेकिन उनकी बातों में बचपना दिखता है, गंभीरता नहीं।

सो, लोकसभा में जब भी दिखते हैं, उनके आसपास होते हैं ऐसे सांसद, जो उनकी तरह किसी राजनीतिक परिवार के वारिस हैं। हेमंत विश्व शर्मा के शब्दों में, ‘राहुल गांधी को ये ब्लू-ब्लड किस्म के लोग ही पसंद हैं, हम जैसे आम आदमी नहीं।’ संसद के अंदर राहुल के ये साथी हल्ला मचाने में माहिर हैं, लेकिन अक्सर जब बहस शुरू होती है, तो हार जाते हैं भारतीय जनता पार्टी के सांसदों के सामने। यही हाल राहुल का होता है बावजूद इसके कि मेरे कई पत्रकार बंधु मानते हैं कि उनका ‘सूट-बूट की सरकार’ वाला ताना ब्रह्मास्त्र साबित हुआ।

संसद के बाहर जहां भी राहुलजी गए, उन्होंने अपने आपको गरीबों के मसीहा के रूप में पेश करने की कोशिश की, बिना यह देखे कि गरीबी हटाओ का नारा बहुत पुराना है। उनकी दादी ने इस नारे के बल पर 1971 का चुनाव जीता था, लेकिन उस समय के भारत और वर्तमान भारत में रात-दिन का अंतर है। उस समय गरीबी ही गरीबी थी भारत में, इस हद तक कि माना जाता था कि भारत की अधिकतर आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन व्यतीत करती है। मैंने अपनी आंखों से देखे हैं ऐसे गांव, जहां एक भी पक्का मकान नहीं था। कच्ची बस्तियों का देश था सत्तर के दशक में भारत, जहां ऐसे लोग मिलते थे, जिन्होंने कभी पैसा नहीं देखा था। बंधुआ मजदूरी करके पेट भरा करते थे। ऐसी गरीबी आज भी बिहार और ओड़िशा में देखने को मिलती है, लेकिन अब दूर-दराज देहातों में टीवी और सेलफोन पहुंच गए हैं, सो गरीब से गरीब लोग भी जानते हैं कि गरीबी उनकी नियति नहीं है।

गरीबी की बातें जब नहीं करते हैं राहुल तो सेक्युलरिज्म की बातें करते हैं, लेकिन यहां भी उनकी समझ कम दिखती है, वरना कैसे कह दिया उन्होंने अमेरिका के एक राजदूत से कि भारत को हिंदू आतंकवाद से ज्यादा खतरा है, जिहादी आतंकवाद से कम? जिहादी आतंकवाद का खतरा दुनिया के हर देश को है और भारत जैसे बुतपरस्त देश को और ज्यादा, सो अगर इसका अहसास कांग्रेस पार्टी के भावी अध्यक्ष को नहीं है, तो समस्या गंभीर है। सवाल है कि इसका इलाज क्या वास्तव में राहुल की बहन प्रियंका हैं?

सच तो यह है कि कांग्रेस की राजनीति पुरानी हो गई है और यह बात उसकी चुनावी रणनीति में दिखने लगी है। विडंबना यह है कि कांग्रेस की समस्या की जड़ है उसका राजपरिवार। राजपरिवार के बिना उसका काम चलना मुश्किल है। सो, प्रियंका लाओ कांग्रेस बचाओ का नारा खूब सुनने को मिलेगा आने वाले दिनों में।