मुंबई के एक फुटपाथ पर रेखा और दीपा नाम की दो बच्चियां रहती हैं। रेखा सात साल की है और उसकी छोटी बहन छह साल की। मैं उनको जानती हूं, इसलिए कि उनकी मां मंगला को मैं तबसे जानती हूं जब वह उनकी उम्र की थी। मंगला ने अपना सारा जीवन मुंबई के फुटपाथों पर बिताया है कठिनाइयों, दुत्कार और गंदगी में। वह नहीं चाहती कि उसकी बेटियों को भी ऐसे हाल में अपना बचपन गुजारना पड़े। सो, मेरे पास आई, उनको एक प्राइवेट बाल भवन में दाखिल कराने के लिए। मैंने ऐसा दो और लड़कियों के लिए किया था पांच साल पहले और अब वे शिक्षित और काबिल युवतियां बन गई हैं।

मंगला की मदद करने की जब कोशिश की तो ऐसा अनुभव हुआ, जिसने मुझे यकीन दिलाया कि जिस प्रशासनिक परिवर्तन का वादा करके नरेंद्र मोदी 2014 में जीते थे, वह अभी थोड़ा-सा भी पूरा नहीं हुआ है। रेखा और दीपा को बीजे होम में डालने के लिए मुझे इजाजत लेनी है सीडब्ल्यूसी (चिल्ड्रेंस वेल्फेयर कमेटी) की, सो पिछले दस दिनों से मैं इस कोशिश में लगी हुई हूं। दस दिनों बाद ऐसा लगने लगा है मुझे कि मैं पत्थर की दीवार पर अपना सिर फोड़ रही हूं। जिन अफसरों से मिलने जाती हूं वे मुझे दूसरे अफसरों के पास भेजते हैं। कोई कहता है एक किस्म की दरख्वास्त लिखने के लिए, तो दूसरा कहता है कि दरख्वास्त की कोई जरूरत नहीं है। कोई इधर भेजता है, कोई उधर और जब हर जगह नाकाम होने के बाद मैं इन अफसरों को फोन करने की कोशिश करती हूं तो मेरा फोन कोई उठता नहीं है।

ऐसा नहीं है कि महाराष्ट्र में भाजपा सरकार बन जाने से पहले इस तरह की अकड़ दिखाते नहीं थे सरकारी अफसर, लेकिन मंगला जैसे लाचार, गरीब लोगों ने 2014 में मोदी के नाम पर भारतीय जनता पार्टी को वोट दिया था, इस उम्मीद से कि परिवर्तन उनके जीवन में भी आएगा। अफसोस कि कोई परिवर्तन अभी तक आया नहीं है। बिलकुल उसी तरह जैसे पुलिस उनके बच्चों को पहले पीटा करती थी वैसे आज भी होता है और बिलकुल उसी तरह जैसे फुटपाथों पर रहने का हफ्ता देना पड़ता था, आज भी देना पड़ता है।

हर क्षेत्र में परिवर्तन का अभाव दिखता है। महाराष्ट्र में पिछले दो वर्षों से बारिश ने धोखा दिया है, सो वर्तमान हाल यह है कि इस राज्य के कई इलाके बुरी तरह सूखे की चपेट में हैं। प्रशासनिक तरीकों में परिवर्तन आया होता, तो जिन जगहों पर सूखे के कारण पानी की गंभीर किल्लत है, वहां टैंकरों या किसी और तरीके से पानी पहुंचाने का इंतजाम हो गया होता। पशुओं को बचाने के लिए कदम उठाए गए होते और जिन गावों में लोगों को दो वक्त की रोटी भी नहीं मिल रही है वहां अक्षयपात्र जैसी संस्थाओं द्वारा लंगर खोल दिए होते। ऐसा कुछ नहीं हुआ है और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उन्हीं पुराने राहत साधनों का उपयोग कर रहे हैं, जो कांग्रेस सरकार की विरासत हैं।

कांग्रेस की प्रशासनिक सभ्यता बनी थी अंगरेज राज की नकल करके। यानी जो नियम-सुविधाएं शासकों के लिए थीं वे आम लोगों के लिए नहीं थीं। सो, आज भी भारत में जिन सरकारी स्कूलों में आम लोगों के बच्चे जाने पर मजबूर हैं, उनमें सरकारी अफसर या राजनेता कभी अपने बच्चों को नहीं भेजते हैं। जिन सरकारी अस्पतालों में गरीब जनता इलाज कराने पर मजबूर है वहां कभी इलाज कराने नहीं आते हैं नेताजी या बाबू साहब।

यह परंपरा तब आराम से चलती थी, जब इस देश के ज्यादातर लोग गरीब और अशिक्षित थे। ऐसा अब नहीं है। भारत में अब मध्यवर्ग की श्रेणी में पहुंच चुके हैं कम से कम तीस करोड़ लोग और उनको बिलकुल बर्दाश्त नहीं हैं ऐसी परंपराएं, जिनके द्वारा उनके जीवन में वे सुविधाएं न हों, जो नेताजी और अफसर साहब के जीवन में उपलब्ध हैं। वर्तमान भारत का हाल यह है कि गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोग भी चाहते हैं कि उनका जीवन बेहतर हो। उम्मीदों की इस लहर ने मोदी को पूर्ण बहुमत से प्रधानमंत्री बनाया था 2014 में, लेकिन ऐसा लगता है कि भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री इस बात को पूरी तरह से भूल चुके हैं।

प्रधानमंत्री को भुगतना पड़ेगा इसका खमियाजा, सो विनम्रता से मेरा सुझाव यह है कि विदेश से लौटने के बाद प्रधानमंत्री अपने मुख्यमंत्रियों को दिल्ली बुला कर उनसे कुछ कड़े सवाल पूछने का काम करें। मिसाल के तौर पर कितने सरकारी स्कूल ऐसे हैं, जहां वास्तव में शिक्षा दी जाती है? बच्चों में कुपोषण कितना कम हुआ है? सरकारी अस्पतालों में इलाज कितना बेहतर हुआ है? देहातों में कितने गांव ऐसे हैं अब, जिनमें शहरी सुविधाएं उपलब्ध कराने के बाद उनको मॉडल गांव की श्रेणी में गिना जा सकता है? और सबसे अहम सवाल यह होना चाहिए कि प्रशासनिक तरीकों में कितना परिवर्तन आया है, क्योंकि उसके आने के बिना कुछ और होना असंभव है।

चर्चा करने में बहुत चुस्त हो गए हैं आज के राजनेता। दुनिया घूम कर ढिंढोरा पीटते हैं इ-गर्वनेंस जैसी सुविधाओं की। आॅनलाइन की बातें करते हैं और निवेशकों को आकर्षित करने के लिए लालफीताशाही समाप्त करने की भी बातें बहुत होती हैं, लेकिन सच तो यह है कि ये सिर्फ बातें हैं। सोचिए जरा कि अगर दो छोटी बच्चियों के जीवन सुधारने में मुझे इतने दरवाजे खटखटाने पड़े हैं, इतनी मिन्नतें करनी पड़ी हैं, तो किस तरह कह दूं के प्रशासनिक तरीकों में मोदी के आने के बाद परिवर्तन आया है। यह भी कहना जरूरी है कि प्रशासनिक परिवर्तन के बिना आगे नहीं चलेगी भारत की गाड़ी।