मैं लगभग एक साल का था, जब पहली बार मेरी मुलाकात देश के किसी प्रधानमंत्री से हुई थी। मेरे माता-पिता नैनीताल की मॉल रोड पर टहलते हुए मुझे ऊंगली पकड़ कर चलाने की कोशिश कर रहे थे। उसी समय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की गाड़ी राजभवन से निकल कर मॉल रोड पर आई और पंडित नेहरू ने मेरे चलने के बेढब प्रयासों को शायद दूर से ही देख लिया था। उन्होंने गाड़ी रुकवाई और उतर कर अपनी शेरवानी में लगा गुलाब का फूल मुझे दे दिया था। उन्होंने कुछ सेकंड मुझे दुलारा और फिर मेरे माता-पिता से शिष्टाचार निभा कर चले गए थे। पंडित नेहरू का यह बहुत मासूम-सा नैसर्गिक भाव था, जो उन्होंने सड़क चलते एक बच्चे पर न्योछावर किया था। उनका दिया हुआ फूल मेरी मां कई दशक तक संभाल के रखे रही और हर साल मेरे जन्मदिन पर कहती थी कि याद रखो, नेहरूजी ने तुम्हें गुलाब का फूल दिया था, इसलिए उनका कोई एक गुण अपने जीवन में जरूर उतारना।
1965 की लड़ाई के कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री आगरा आए थे। हम कुछ बच्चे रिक्शा में स्कूल से लौट रहे थे कि अचानक रिक्शा वाले ने पुकार लगाई थी- देखो, उस तरफ से शास्त्रीजी आ रहे हैं। हम बच्चे रिक्शा से कूद पड़े और उनकी जीप की तरफ दौड़े थे। शास्त्रीजी ने जीप से उतर कर हर बच्चे से बात की और जय जवान, जय किसान का नारा लगवाया था। मुझे अभी तक याद है कि उन्होंने कहा था की बच्चो, खूब मन लगा कर पढ़ो, क्योंकि कल देश तुम्ही बनाओगे। वैसे शास्त्रीजी को देख कर मुझे अचंभा हुआ था। मन में उनकी छवि विराट रूप की थी- घर में सभी उनका जिक्र ऐसे करते थे जैसे वे बड़े कद वाले हों- पर जब आमना-सामना हुआ तो पता चला की वे छोटी काठी वाले थे। वास्तव में व्यक्ति का कद उसकी शारीरिक बनावट का मोहताज नहीं होता है।
हम लोग बच्चे थे, पर फिर भी शास्त्री जी के कहे अनुसार अनाज बचाने के लिए हर मंगलवार पूरा उपवास रखते थे। इसके साथ घर में उपलब्ध हर डालडा घी के डिब्बे में और लकड़ी की पेटियों में सब्जी बोते थे, जिससे कि देश में पैदावार की कमी को पूरा करने में हम अपना योगदान दे पाएं। शास्त्रीजी ने हमारे जीवन में देशप्रेम और देश के लिए समर्पण का भाव जगाया था। ताशकंद में जब उनकी मौत हुई, तो सारा मोहल्ला बहुत रोया था।
इंदिरा गांधी से पहली मुलाकात उनके घर पर हुई थी। मैं उनके पास एक अर्जी लेकर गया था। वे सुबह आम लोगों से मिलती थीं। इंदिरा गांधी ने अर्जी को गौर से पढ़ा और मेरा कंधा थपथपा कर कहा था, तीन दिन के अंदर काम हो जाएगा। तुम परेशान मत हो।
इंदिरा गांधी राय बरेली से चुनाव लड़ती थीं और इस मुलाकात के बाद मैं उनसे वहीं मिला था। मैं अब अखबारनवीस बन चुका था और उनका दौरा कवर करने लखनऊ से गया था। 1980 से 1984 के बीच उनसे कई मुलाकातें हुर्इं, दो-तीन बार तो उन्होंने रात्रि विश्राम भी राय बरेली में ही किया और हर बार सुबह के नाश्ते के समय हम लोग उनके पास पहुंच जाते थे। पहली बार मैंने नाश्ते में अपने लिए आॅमलेट मंगवाया था। कुछ महीने बाद वे फिर आर्इं और जब टेबल पर वेटर ने मुझसे पूछा कि क्या खाएंगे, तो उन्होंने तपाक से उत्तर दिया था- इनके लिए आमलेट ले आओ।
इंदिरा गांधी का भी कद बहुत बड़ा था, पर काठी छोटी थी। उनका व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि कोई भी उनसे नजरें नहीं मिला सकता था। मेरे कई वरिष्ठ साथी उनसे सहमे हुए से रहते थे, जबकि बाकी सब उनसे खूब बातचीत करते थे। कार्यक्रमों के बाद हम लोग उनको पुकार लिया करते थे और सवाल पूछ लेते थे। फोटो के लिए वे पोज करने में हिचकिचाती नहीं थीं, चाहे आग्रह कितना भी बेढब क्यों न हो। प्रधानमंत्री राजीव गांधी से पहली मुलाकात 1981 में अमेठी में हुई थी। वे एक कांग्रेस कार्यकर्ता शिविर में पार्टी के महासचिव के रूप में आए थे और हमसे मिलने से झिझक रहे थे। कार्यक्रम के बाद किसी तरह वे पांच मिनट मिलने को राजी हुए थे और उनके आते ही मैंने और एक सहकर्मी ने सवालों की झड़ी लगा दी थी। हर सवाल का उनका एक ही जवाब था- मैं आपको क्यों बताऊं? आखिर में मैंने उनसे पंजाब समस्या और उस समय उठ रहे सिख उग्रवाद के बारे में पूछा। उन्होंने तपाक से कहा- मुझसे क्यों पूछ रहे हैं, मम्मी से पूछिए। जवाब देते ही वे समझ गए की उन्हें मम्मी शब्द नहीं इस्तेमाल करना चाहिए था और उन्होंने अपने वाक्य को तुरंत ठीक किया- प्रधानमंत्री से पूछिए।
राजीव गांधी से मेरी आखिरी मुलाकात उनकी हत्या से दो दिन पहले हुई थी। वे चुनावी रैली में लखनऊ आए थे। रैली में उनके पास बात करने का समय नहीं था, सो उन्होंने मुझे और मेरे सहकर्मी को एयरपोर्ट पहुंचने के लिए कहा था। रैली अच्छी नहीं हुई थी और वे गुस्से में थे। कई कांग्रेसी नेताओं पर उनका नजला गिरा था और फिर वे ताबड़तोड़ जहाज की तरफ चल दिए थे। सीढ़ी चढ़ रहे थे कि मैंने उन्हें आवाज लगाई थी। वे फौरन वापस आ गए और सवालों का जवाब दिया। उनका आखिरी वाक्य था- हम जीत कर वापस आ रहे हैं। दस दिन बाद प्रधानमंत्री कार्यालय में हम मिलते हैं।
प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यामंत्री रहे थे, इसलिए उनसे अच्छी जान-पहचान थी। कुर्सी पर बैठते ही वे मिलने से कतराने लगे थे और जब मिलते भी थे तो परेशान-हैरान-सी मुद्रा में रहते थे। इसके विपरीत नरसिंह राव से पहचान प्रधानमंत्री बनने के कुछ महीने पहले दिल्ली में हुई थी, जब वे अपना सामान बांध कर हैदराबाद जाने की तैयारी में थे। उनके कार्यकाल में लगभग हर महीने प्रधानमंत्री आवास में अलग से रात में मिलना होता था और उस दौरान वे अपनी आर्थिक नीति पर बेबाक चर्चा करते थे। मुझे आर्थिक आंकड़े नहीं चाहिए, मुझे बाजार का सेंटीमेंट क्या है बताइए, वे अक्सर कहते थे।
अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बनने से पहले लखनऊ से सांसद थे। अक्सर मिलना होता था। बेहद विनोदप्रिय और मिलनसार थे। कभी-कभी दार्शनिक भी हो जाते थे। 2002 में उनके साथ जापान जाने का मौका मिला था। उड़ान भरने के कुछ देर बाद ही वे विमान के पत्रकारों वाले हिस्से में आए और मुझे और एक अन्य पत्रकार को देख कर अपने स्टाफ से बोले, ये दोनों लखनऊ वाले हैं, इनका विशेष खयाल रखना। जापान के पूरे दौरे में उन्होंने खुद हमारे लिए अपनी लखनवी तहजीब खूब पेश की थी। उनके बाद के प्रधानमंत्रियों से कोई साबका नहीं पड़ा है।

