कांवड़ियों के मार्ग पर हर दुकानदार की ‘नामपट्टी’ लगाने के ‘आदेश’ के कई दिन बाद कांवड़ियों के लिए ‘पवित्रता’ के अर्थ ही बदल गए। कई चैनलों में कई विपक्षी नेताओं के विवादी सुर गूंजते रहे कि यह छुआछूत है, भेदभाव है, धार्मिक ‘प्रोफाइलिंग’ है और संविधान विरुद्ध है। एक ओर आपत्ति करने वाले रहे, दूसरी ओर आदेश के पक्षधर रहे। सरकार समर्थक कई नेताओं ने भी एतराज दर्ज कराया, फिर भी आदेश लागू रहा। चैनल दिखाते कि किसी होटल का नाम किसी हिंदू देवता के नाम पर है, लेकिन उसका स्वामी कोई मुसलिम है। जब पूछते हैं कि आदेश से क्या व्यवसाय पर असर हुआ है तो कई कहते हैं, कोई असर नहीं हुआ, लेकिन जैसे ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा फैसला दिया गया कि ‘नाम लिखने की कोई जरूरत नहीं’, वैसे ही बयान बदल गए। कुछ कहने लगे कि कोर्ट का फैसला भी सही है। इस पर विपक्ष के एक नेता ने जमकर मजा लिया कि ‘डबल इंजन आपस में टकरा रहे हैं!’

इसी बीच केंद्र सरकार के एक आदेश ने बड़ी खबर बनाई कि 1966 का ‘प्रतिबंध’ हटा, अब सरकारी कर्मचारी ‘संघ’ में हिस्सा ले सकेंगे। संघ का नाम आते ही कई बहसों में पक्षधर कहें कि संघ ‘देशभक्त’ है, ‘राष्ट्रसेवा’ करता है, दुनिया का सबसे बडा ‘स्वयंसेवी’ संगठन है। उस पर जब-जब प्रतिबंध लगाया गया, तब-तब हटाना पड़ा। नेहरू ने तो उसे गणतंत्र परेड तक में शामिल किया था। एक विपक्षी कहिन कि संघ ‘फासिस्ट’ संगठन है।

फिर एक दिन ‘आर्थिक सर्वे’ आया और अगले दिन ‘बजट’ आया। और तबसे लेकर अब तक बजट पर ‘चखचख’ जारी है। बजट आया तो बजट की फैलावट पर विशेषज्ञ बोलते रहे। कुछ कहे कि ये ‘सबका साथ सबका विकास’ वाला बजट है। कुछ ने कहा कि ये संतुलित बजट है। लेकिन बहसों में एक तो ‘इंटर्नशिप योजना’ ने बजट की जान ली, दूसरे, बिहार और आंध्र को अतिरिक्त आबंटन ने भी जान ली। अगले रोज विपक्ष विरोध में ‘खड्गहस्त’ दिखा कि यह ‘बजट’ ‘भेदभाव’ करता है। जहां हारे उनको कुछ नहीं दिया। पक्षधर जुटे रहे कि उत्तर प्रदेश को इतना दिया, तमिलनाडु को इतना दिया, इसको इतना, उसको उतना दिया! भेदभाव कहां है?

विपक्षी कहिन कि यह ‘सरकार बचाओ’ बजट है। ‘बैसाखियोंवाला’ बजट है। बिहार को ‘पकौड़े’ और ‘जलेबी’ दिया है। झुनझना दिया है! विशेष दर्जा क्यों नहीं दिया? पक्ष प्रवक्ता कहिन कि यूपीए सरकार ने भी नहीं दिया था, क्योंकि ये राज्य ‘विशेष दर्जा’ मानक पर खरे नहीं उतरते। अब वही विपक्षी ‘विशेष दर्जा’ की मांग कर रहे हैं। इतना ही नहीं, ‘पांच सौ बड़ी कंपनियों’ में ‘चार करोड़ प्रशिक्षुता’ देने की बजटीय व्यवस्था ने विपक्ष को ही नहीं, एकाध एंकर तक को बजट को ठोंकने का बहाना दे दिया।

विपक्ष के एक नेता ने कहा कि यह योजना हमारे ‘घोषणा पत्र’ से ली गई है, लेकिन उसी दल के कुछ नेता कहते रहे कि यह बेरोजगारों की आंखों में धूल झोंकना है। एक कथित ‘राष्ट्रवादी’ एंकर ने भी साफ कहा कि बजट में गठबंधन की मजबूरियां साफ झलकती हैं और यह ‘इंटर्नशिप’ सिर्फ ‘सजावटी’ है। यह व्यावहारिक नहीं है। एक चर्चक ने तो यहां तक कह दिया कि जब कंपनियों को कर्मचारियों की जरूरत ही नहीं, तब कोई इनको प्रशिक्षुता कैसे देगा?

लीजिए, एक बार फिर ‘कूल’ बाबू भी ‘अन-कूल’ हो गए। बिहार विधानसभा में बजट पर बोलते हुए एक विपक्षी महिला विधायक से गुस्से में बोल गए कि अरे महिला हो… कुछ जानती नहीं हो। विधायक ने भी कहा कि नीतीश भूल गए हैं कि महिला से कैसे बात की जाती है। लगता है, इन दिनों सब नेताओं का ‘रक्तचाप’ बढ़ा दिखता है। वे कुछ का कुछ बोल जाते हैं, फिर ‘ माफी मांगें, माफी मांगें’ होने लगता है। फिर ‘पहले वे माफी मांगें, तब मैं माफी मांगूगा’ वाली कबड्डी होने लगती है… लेकिन माफी के बाद भी क्या गारंटी कि ‘बदतमीजी’ फिर नहीं होगी।

फिर एक दिन संसद में एक विपक्षी सांसद ने ‘आतंकवाद’ के आरोप में जेल में बंद, चुनाव में जीतकर आए, एक ‘खालिस्तानपरस्त’ सांसद के पक्ष में बोल दिया और एक ‘निर्लज्ज’ सी बहस चैनलों में आ बैठी। विपक्षी प्रवक्ता कहें कि इसमें जेल में बंद ‘खालिस्तानवादी’ के पक्ष बोलने वाले की क्या गलती? या तो सरकार जल्दी से खालिस्तानी को चार्जशीट करे, सजा दिलाए, नहीं तो उसे ऐसे ही बंद रखने के क्या मतलब?

फिर एक दिन मंत्री रिजीजू ने विपक्ष को प्रबोध कि सत्र को गाली-गलौज का सत्र न बनाएं। इसे देख कर एक चैनल ने संसद में बोले गए और रिकार्ड से हटाए ‘गाली-गलौज’ मूलक शब्दों का एक पूरा शब्दकोश ही खोल डाला। फिर भी, अपने नेता, अपने तईं ‘कभी छुई-मुई, कभी तोप’! काश ऐसों के बीच गालिब होते तो कहते ‘गालियां खा के बेमजा न हुआ…’, तब शायद अपनी संसद इतनी ‘बेमजा’ न होती!