अगर हमारे पास ‘एक्स’ न होता, एलन मस्क न होता तो हम नहीं जीतते, हम जेलों में होते! एक चैनल पर ट्रंप की जीत पर अमेरिका से एक रिपब्लिकन समर्थक के आते ऐसे बोल अपने यहां की राजनीति की याद दिलाने लगते हैं। इधर भी ऐसी ही धमकियां गूंजती हैं कि हम आए तो ये अंदर जाएंगे। और हम हर चुनाव का इंतजार करते हैं, लेकिन ऐसी शुभ घड़ी आते आते रह जाती है। तिस पर योगी जी के ‘बंटेंगे तो कंटेंगे’ वाले व्यंजनात्मक मुहावरे पर विपक्ष के कई नेता तरह-तरह से चोट करते दिखते हैं, लेकिन यह मुहावरा अपना असर और भी गहराता दिखता है! यह मुहावरा जैसे ही आया, वैसे ही इसे पुष्ट करता दूसरा आया कि अगर बटेंगे तो ये महफिल सजाएंगे… फिर आया कि हिंदुओं को एक होना होगा… फिर इसकी तुक बदली कि ‘एक रहेंगे तो सेफ रहेंगे’।

कौन बांटेगा कौन काटेगा

इसके जवाब में पहले एक पोस्टर कहता दिखा कि ‘जुड़ेंगे तो जीतेंगे’। बहसों में पूछा जाता रहा कि ‘कौन बांटेगा, कौन काटेगा’, लेकिन किसी ने साफ-साफ न कहा कि कौन बांटेगा कौन काटेगा। एक विपक्षी चर्चक ने इसे ‘रिवर्स स्विंग’ डालकर एंकर से ही जवाब पाया कि ‘कटेंगे तो बटेंगे’। यह घमासानी मुहावरा कइयों को रुलाता दिखा और कइयों को हंसाता दिखा! अब तो यह हर चैनल की बहस का हिस्सा बन चला है और अपनी भावी राजनीति का भी मूलमंत्र बनता दिखता है। सारी राजनीति इस मुहावरे से तय होती दिखती है। पक्षधर इतिहास से भूगोल तक दौड़ लगाते हैं। मुहावरे के जनक जनसभाओं में कहते कि जब-जब बंटे, तब-तब कटे।

‘गजवा ए हिंद’ का जवाब ‘भगवा ए हिंद’

इस जालिम मुहावरे की प्रतिकिया में बहसें धीरे-धीरे इसकी खबरों से भी अधिक कटखनी होती दिखीं। अब कटना नहीं है, एक रहना है, नेक रहना है, सेफ रहना है। एक ने तो ‘गजवा ए हिंद’ का जवाब ‘भगवा ए हिंद’ कहकर दिया! इसके बाद एक नेताजी ने इसे ‘वोट जिहाद’ के बरक्स ‘धर्म युद्ध’ में बदल दिया। कई विपक्षी नेताजन इस मुहावरे का कटखनापन निकालने के लिए ताल ठोंकते आते हैं, लेकिन गुस्से में कुछ का कुछ बोल जाते हैं और इस तरह अपनी ही आफत बुला बैठते हैं। जैसे कि विपक्ष के एक बड़े नेताजी ने इस मुहावरे के रचयिता के कपड़ों के रंग पर ही निजी कटाक्ष कर डाला कि वे गेरुआ ही क्यों पहनते हैं, कि उनके सिर पर बाल नहीं हैं… जो अंतत: उल्टा पड़ा।

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बहसों को देखते सुनते कई बार लगता है कि इन दिनों हम चुनाव की जगह ‘वोट जिहाद’ बरक्स ‘धर्म युद्ध’ में खींच लिए जा रहे हैं! मानो इतना ही काफी न हो तो इस खबर ने कि कुछ बड़े मुसलिम संगठनों के मुसलमानों से कहा है कि वे महाराष्ट्र के गंठबंधन का समर्थन करें। एक मुसलिम उलेमा ने एक गठबंधन से मांग तक कर डाली कि हर निविदा में मुसलिमों का चार फीसद का कोटा हो। इस पर फिर तीखा विवाद उठा। एक कहिन कि धर्म के आधार पर आरक्षण गैरकानूनी है, दूसरा कहिन कि कुछ दल वोट के लिए कुछ भी कर सकते हैं।

इसी बीच इस मुहावरे के रचयिता को एक मुसलिम संगठन के नेता ने चुनौती दे डाली कि तुम सब मिल कर मेरा मुकाबला नहीं कर पाओगे। मानो इतना काफी न था तो एक अन्य बड़े नेता ने इसके रचयिता को ही ‘आतंकवादी भाषा बोलने वाला’ कह दिया। रचयिता ने याद दिलाया कि इनके परिवार को ‘रजाकारों’ ने जलाया था, लेकिन ये वोट की खातिर इस बाबत कुछ नहीं बोलेंगे। इन दिनों सारी राजनीति ‘बाइटों’ के लिए होती है। इधर एक ‘बाइट’ आती है, जवाब में तुरंत ‘दूसरी बाइट’ आ जाती है। फिर तीसरी, चौथी ‘बाइट’ आती है। अधिकांश चैनल इन्हीं बयानों पर बहस कराते रहते हैं। चैनलों में ‘बाइट टू बाइट’ युद्ध जारी है। हवाएं गरम हैं।

इस सारे परिदृश्य को देख एक चैनल ने साफ लिखा कि झारखंड और महाराष्ट्र में होने वाले चुनाव अब सीधे ‘हिंदू बरक्स मुसलिम’ हो चले हैं। एक एंकर ने तो इस वातावरण को भारत विभाजन के वातावरण से जोड़ दिया कि जो तब बना, वैसा ही वातावरण अब बन रहा है। लेकिन फिर एक दिन ‘संविधान बचाओ’ वाले नारे की पोल खुली। कई चैनल उस वीडियो को दिखाते रहे, जिसमें वितरित संविधान की कापी में संविधान की ‘टेक्स्ट’ छपी ही नहीं थी, जितने कागज थे, कोरे कागज थे।

फिर एक दिन उत्तर प्रदेश की ‘बुलडोजर संस्कृति’ को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने ‘बुलडोजर संस्कृति’ की प्रकट ‘मनमानी’ पर रोक लगा दी, लेकिन कानून के तहत बुलडोजर के उपयोग को बरकरार रखा और कहा कि गलत कार्रवाई पर अधिकारियों को भुगतान करना होगा। यानी गलत इस्तेमाल तो खैर नहीं।