एक दिन ‘देश की बेटी’ ‘राज्य की बेटी’ बता दी गई, तो राष्ट्रवादी चिढ़े कि ‘देश की बेटी’ एक ‘राज्य की बेटी’ कैसे हो गई? अरे भई, जब बेटी को आपत्ति नहीं, तो आप कौन? फिर एक पड़ोसी प्रशासक कह उठे कि हिंदुओं पर हमले सांप्रदायिक नहीं, राजनीतिक हैं। अपने चैनलों ने जवाब दिया कि तब तो इधर होने वाली ‘लिंचिंगें’ भी सांप्रदायिक नहीं, राजनीतिक हैं। हत्याओं का ऐसा ‘औचित्यीकरण’ कब देखा-सुना?
कितनी बुरी बात कि हर गोली पर लिखा है ‘जाति’ का नाम!
खबर आई कि जिस ‘याचक’ ने ‘याचिका’ दी थी कि ‘इंडिया’ के अपने ‘हथियार’ मानवाधिकारों का हनन करने वाले देशों को बेचने पर रोक लगे, उसे बड़ी अदालत ने नहीं माना। बताइए, इसके बाद कोई क्यों न रोए कि न्यायपालिका दबाव में है! इसके बाद आया खांटी ‘जाति विमर्श’। एक ‘अपराधी’ का ‘एनकाउंटर’ हुआ, तो ‘विमर्शकार’ बोले कि जाति देखकर ‘एनकांउटर’ किए जा रहे हैं! कितनी बुरी बात कि हर गोली पर लिखा है ‘जाति’ का नाम!
विदेशों में बयान से भारत में हाय-हाय मचा रहा
एक दिन अमेरिका से उवाचे एक नेता कि उनकी सोच आसानी से समझ नहीं आती।… देखा तो बात सही ठहरी, क्योंकि जो बोला वह हमारे जैसे उच्च बुद्धि वालों को ही समझ नहीं आया कि चुनाव के बाद ‘डर’ निकल गया है… कि न्यायपालिका और मीडिया भारत में खत्म है… कि अपनी भूमिका देश को तानाशाही से बचाना है… कि भारत में फर्नीचर, कपड़े सब चीन के हैं! जरा देखिए, तो एक लाइन में ‘डर’ निकल गया, दूसरी में वापस आ गया… ऐसी ‘उलटबांसियों’ पर भी कुछ जलोकड़े जल उठे कि विदेश में क्यों बोले, कि देशद्रोह का मुकदमा चले। तो जवाब आया कि उन्होंने तो सच का आईना दिखाया! जवाब में पक्षधर फिर भी देते रहे ‘आंकड़े’ पर ‘आंकड़े’, लेकिन जो उनने चिपकाया वह तो चिपका रह गया न!
भाई जी! ये ‘चिपक राजनीति’ के दिन हैं। वे चिपकाएं तो तुम भी चिपकाओ। कोरी हाय हाय से कुछ नहीं होने का।
फिर बरसा विदेश से कुछ अनमोल ‘आध्यात्म’ कि देवता ‘भगवान’ नहीं होते, ‘भगवान’ पारदर्शी होते हैं। ये हुई न ऊंची सोच, जो बड़े-बड़े विद्वानों को समझ आती नहीं दिखी! फिर भी एक ‘वैदिक विद्वान’ समझाए कि देवता का मतलब ‘लीला करने वाला’, चमत्कारी, यही ‘भगवान’ बन जाते हैं! गनीमत कि यह ‘सोच’ सचमुच किसी को समझ न आई और सब ‘बोर’ होने से बच गए।
फिर आए कुछ ‘आदर्श विचार’ कि जब ‘आदर्श स्थिति’ होगी, तो आरक्षण हटा देंगे। लेकिन यहीं सर जी ‘फंसे’। एक आरक्षणवादी नेता बोलीं कि ये रही इनकी असिलयत! मगर आरक्षण कभी नहीं हटेगा। लेकिन फिर जैसे ही दूर की हांकी कि ‘इंडिया’ में सिख पगड़ी, कड़ा नहीं पहन सकते, गुरुद्वारे नहीं जा सकते, वैसे ही बहुत से सिख नेता बरस पड़े कि यह सच नहीं… कि, हम कुछ भी पहन सकते हैं, कहीं भी जा सकते हैं… कि वे एक खतरनाक नैरेटिव गढ़ रहे हैं। दो एंकर, एक प्रवक्ता ने अपने हाथ में पहने कड़े भी दिखाए! पहला सबक: जब ‘ऊंचा ज्ञान’ बघरता है, तो ऊपर से निकल जाता है।
दूसरा सबक: इन दिनों आंकड़े नहीं चिपकते, चिपकती हैं दो-तीन लाइन की ‘सूक्तियां’! ये ‘मिनीमलिज्म’ का जमाना है आदरणीय! बहरहाल, इस ‘बेदर्द जमाने’ में, एक दिन दीदी जी ने कह दिया कि जनहित में इस्तीफा दे दूंगी। लेकिन किसी भी मुए ने यकीन नहीं किया, बल्कि कटाक्ष ही किए कि ये एक ‘चतुर चाल’ है!
अब देखिए न कि मुख्य न्यायाधीश ने एक दिन अपने घर ‘गणेश पूजा’ की, तो वीडियो में प्रधानमंत्री भी दिख गए। जैसे ही दिखे, वैसे ही शुरू हो गई ‘हाय हाय’ कि यह तस्वीर बहुत कुछ कहती है… कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर संदेह है… लेकिन अगले दिन जैसे ही सुप्रीम कोर्ट के दो जजों ने दिल्ली के मुख्यमंत्री को ‘बेल’ दे दी, तो फिर होने लगी ‘वाह वाह’! ‘अपनी सी’ हो तो ‘वाह’ नहीं तो ‘हाय’! इन दिनों की राजनीति भी चाकलेट की तरह है। मिले तो ‘वाह वाह’, न मिले तो ‘हाय हाय’!
इसके बाद एक अंग्रेजी चैनल में आई ‘प्राइम टाइम’ की एक नायाब बहस, जिसमें दिखी कुछ ‘ज्ञानियों’ के बीच ‘डब्लूडब्लूएफ’ छाप ‘ज्ञान की कुश्ती’, ‘सोशल मीडिया’ वाले नित्य के ‘दंगली सीन’, कि जैसे ही ‘एक’ ज्ञानी ने दूसरे की ‘पोल’ खोली, वैसे ही ‘दूसरे’ ने पहले की ‘पोल’ खोल दी। उसके बाद सारी बहस ‘मिनी महाभारत’ का आनंद देने लगी। फिर ‘दूसरे’ के जले पर, ‘तीसरे’ के जले पर नमक छिड़क दिया, तो तुरंत आस्तीनें चढ़ीं, भुजाएं फड़कीं और ‘देख लूंगा’ कि ‘देख लूंगा’ कि ‘आ जा’ कि ‘आ जा’ होने लगा। शेष ज्ञानी आनंदित भए और ‘बिचौलिए’ बनकर ‘ज्ञान फाइटरों’ को रोक कर पुण्य कमाए। एक का तो ‘पोडियम’ तक बदल दिया गया।
शुरू में चकित, फिर थकित, फिर हंसित एंकर जी आखिर में कहने लगीं कि ‘जूस’ पीके जाना जी! बहरहाल, जिसने भी ‘कुश्ती बहस’ देखी, वही मस्त हुआ। जिसने न देखी, वह ‘यूट्यूब’ पर देखे! सिद्ध हुआ कि हमारी पत्रकारिता में आज भी बड़ी जान है!