किसी ने बहुत सही लिखा है कि तरक्की इतनी हुई है कि हजारों किलोमीटर दूर बैठे इंसान को देख और सुन सकते हैं तथा पतन इतना हुआ है कि पास बैठे इंसान की तकलीफ और दर्द दिखाई नहीं देता। हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ‘फ्राम लोनलिनेस टू सोशल कनेक्शन’ विषय पर अपनी वैश्विक रपट जारी की है। इसमें बताया कि वर्ष 2014-23 के बीच दुनिया भर में छह में से एक व्यक्ति अकेलेपन से जूझ रहा था। इसका मानसिक, शारीरिक और सामाजिक स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है। वर्ष 2014-2019 के बीच अकेलेपन के कारण हर घंटे अनुमानित सौ मौतें हुईं।
मजबूत सामाजिक संबंध या जुड़ाव बेहतर स्वास्थ्य और लंबी उम्र का जरिया बन सकते हैं, यानी जो लोग समाज और लोगों से अधिक जुड़ाव अनुभव करते हैं, वे तुलनात्मक रूप से खुशहाल और स्वस्थ रहते हैं। यह माना जाता है कि सामाजिक जुड़ाव लोगों को एक-दूसरे से जुड़ने और बातचीत करने के लिए प्रेरित करता है। वहीं अकेलापन एक दर्दनाक अनुभव है जो वांछित और वास्तविक सामाजिक जुड़ाव के बीच के अंतर से उत्पन्न होता है। जबकि सामाजिक अलगाव पर्याप्त सामाजिक जुड़ावों के अभाव को दर्शाता है।
कई बार सबके बीच रहने वाले व्यक्ति अकेले नजर आते हैं
दरअसल, एकांत में रहने का अर्थ अकेला होना नहीं है, बल्कि इसका अर्थ स्वयं के साथ समय बिताना, खुद को समझना है, लेकिन यह जरूरी नहीं कि ऐसा व्यक्ति अकेलेपन का शिकार है। जबकि अनेक बार सबके बीच रहने वाले व्यक्ति अकेले नजर आते हैं।
उनके पास अपनी बातों को साझा करने वालों का अभाव होता है, जरूरत के समय उन्हें अपने आसपास कोई नजर नहीं आता। जहां एकांत सृजन और कल्पनाशीलता को मूर्त रूप देता है, वहीं अकेलापन निराशा और सामाजिक अलगाव को व्यक्तित्व का हिस्सा बना देता है। लेखिका ग्रेगरी फीस्ट के अनुसंधान के अनुसार, खुद के साथ वक्त बिताने से रचनात्मक शक्ति मिलती है। आत्मविश्वास बढ़ता है। आजाद सोच पैदा होती है, नए विचार आते हैं। इसलिए इन दोनों अवधारणाओं के मध्य अंतर को समझना होगा।
सवाल है कि आज जबकि हम एक ऐसे डिजिटल युग में रह रहे हैं जहां कुछ ही पल में लोग एक-दूसरे से जुड़ सकते हैं, जहां भौगौलिक दूरी मायने नहीं रखती, वहां लोग खुद को अकेला क्यों महसूस कर रहे हैं। देखा जाए तो अकेलापन एक ऐसी मानसिक स्थिति है जिसमें लोग असहाय महसूस करने लगते हैं, निराशा का अनुभव करते हैं। अकेलापन विशेष रूप से युवाओं और किशोरों को अधिक प्रभावित करता है।
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एक सर्वेक्षण के दौरान तेरह से उनतीस वर्ष की आयु के सत्रह से इक्कीस फीसद लोगों ने अकेलापन महसूस करने की बात कही, जिनमें किशोरों में यह दर सबसे अधिक थी। इसी प्रकार निम्न-आय वाले देशों में लगभग चौबीस फीसद लोगों ने अकेलापन महसूस करने की बात कही, जोकि उच्च-आय वाले देशों में ग्यारह फीसद है। यानी निम्न आय वाले देशों में यह दर दोगुनी है। तो क्या आर्थिक संपन्नता और खुशहाली में सकारात्मक सह-संबंध होता है? यह शोध का विषय हो सकता है।
संचार क्रांति के बाद संवाद करने के अनेक माध्यम सामने आए हैं। फिर भी कई युवा अकेलापन महसूस करते हैं, तो ऐसा क्यों है? नवीन तकनीक हमारे जीवन को नया रूप दे रही है, लेकिन साथ ही यह भी सच है कि यह मानवीय संबंधों को मजबूत करने की जगह कमजोर कर रही है। आजकल लोग संवाद करने के स्थान पर प्रतीकात्मक भाषा (इमोजी) या संदेश भेज कर औपचारिकता पूरी करने में विश्वास करते हैं।
विडंबना यह है कि हम एक जैसे संदेश सबको कैसे भेज सकते हैं, जबकि सबके लिए एक जैसी भावनाएं या एक समान जुड़ाव महसूस नहीं करते। वास्तविक जीवन में भावनाओं को ‘कापी-पेस्ट’ नहीं किया जा सकता। वे तो स्वाभाविक होती हैं। संभवत: यह भी एक कारण है कि लोग अब एक-दूसरे से जुड़ाव महसूस नहीं करते या कम करने लगे हैं। अकेलापन और सामाजिक अलगाव के कई कारणों में से खराब स्वास्थ्य, कम आय और उचित शिक्षा तक पहुंच का अभाव, लंबे समय तक अकेले रहना, लाइलाज बीमारी, गरीबी, बेरोजगारी और असफलता मुख्य हैं।
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अनेक समाजशास्त्री अकेलेपन को आधुनिकता का एक नकारात्मक परिणाम मानते हैं। उनका तर्क है कि आधुनिकता में दिखावा करने की प्रवृत्ति, खुद को दूसरों से अलग और श्रेष्ठ दिखाने की प्रवृत्ति ने व्यक्ति को समूह से, समाज से और एक स्तर पर खुद से भी पृथक कर दिया। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि अकेलेपन को आकार देने में राज्य और बाजार की शक्तियां भी बड़ी भूमिका निभाती हैं। हम संचार तकनीकों और सोशल मीडिया से घिरे हुए हैं, फिर भी अकेलापन भारी पड़ रहा है। यहां कुछ और सवाल भी महत्त्वपूर्ण हैं कि क्या अकेले लोग सोशल मीडिया का अधिक इस्तेमाल करते हैं या फिर क्या सोशल मीडिया का ज्यादा उपयोग अकेलापन पैदा करता है?
आज के समय में अधिकांश लोग अपनी जरूरत की लगभग हर चीज आनलाइन मंगवाते हैं जिससे उनका मानवीय संपर्क भी कम हो गया है। जिस तरह से आज हम अपना जीवन जी रहे हैं, उसमें बिखराव नजर आने लगा है। पहले के समय में जो संबंध बहुत सहज और गहरे होते थे, आज वे गायब हो गए हैं। व्यक्ति को पता ही नहीं चलता कि कब अकेलापन एक स्थायी तनाव बढ़ाने लगा है। यह स्थिति प्रतिरक्षा प्रणाली को कमजोर करती है।
सामाजिक जुड़ाव हमारे स्वास्थ्य और कल्याण के लिए बेहद जरूरी है, लेकिन दुनिया भर में अकेलापन बढ़ रहा है, खासकर कोविड-19 के बाद लोगों ने व्यापक बदलाव का अनुभव किया है। आज व्यक्ति के लिए सफलता इतनी महत्त्वपूर्ण हो गई कि सामाजिक और नैतिक जीवन के पक्ष पीछे छूटने लगे हैं। जब व्यक्ति सफलता के पीछे भागने लगे, तो समझना चाहिए कि वह केवल अपने बारे में सोचने लगा है और सिर्फ अपने लिए सोचने का भाव ही अकेलापन पैदा करता है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि संबंधों के व्यावसायीकरण के स्थान पर स्वार्थरहित, सामूहिकता केंद्रित और भावनात्मक संबंधों की पुनर्स्थापना की जाए, ताकि वर्तमान तथा भावी पीढ़ी को एक खुशहाल जीवन मिले और अकेलापन महसूस न करें।