हिंदी में आलोचना की गिरती साख और सोशल साइट पर तेजी से फैलते आत्मप्रचार की आत्ममुग्ध कोशिशों के बीच कोई संबंध है क्या? हालांकि दोनों अलग चीजें हैं। मगर संबंध है तभी तो आलोचना सिकुड़ रही है और आत्मप्रचार को पंख लग गए हैं। हिंदी सोशल साइट पर नजर डालें तो आत्मप्रचार और आत्ममुग्धता का जो नजारा वहां दिखाई देता है वह हिंदी साहित्य समाज में घटती आलोचनात्मक प्रवृत्ति की दयनीय परिणति का मुखर उदाहरण है।
जब भी कोई नया माध्यम आता है, वह अपने साथ नया मिजाज और नई जमात लेकर आता है। वह पुराने सामाजिक-साहित्यिक संबंधों की जगह नए संबंधों को नया स्पेस देता है। हिंदी सोशल साइट पर अब ऐसे लोगों की बड़ी जमात है, जिसे इसी माध्यम के जरिए रचनात्मकता के पंख नसीब हुए हैं। इस माध्यम ने रचनात्मक स्पेस का विस्तार किया है और उसमें ऐसे लोग दाखिल हुए हैं, जिनके पास कोई मंच नहीं था। प्रकाशन के मंच से वंचित लोगों को इस माध्यम ने अभिव्यक्ति-सुख का अनंत आकाश दिया है। यह इस माध्यम का शुभंकर पक्ष है, पर सवाल है कि इसका हासिल क्या है?
इस माध्यम ने सबसे अधिक आलोचनात्मक माहौल को विकृत किया है। इसका परिणाम यह है कि अच्छे-बुरे का फर्क गायब है, अच्छी रचना और कमजोर रचना में अंतर करने का काम बंद है। रामचंद्र शुक्ल, नंददुलारे वाजपेयी, रामविलास शर्मा और नामवर सिंह ने अपनी आलोचना के जरिए जहां परंपरा के मूल्यांकन का ऐतिहासिक दायित्व निभाया, वहीं अपने समय की रचनाशीलता की शक्ति और सीमा का रेखांकन भी किया, लेकिन लिखी जा रही रचनाओं में से अच्छे-बुरे का फर्क करने वाला कोई सहृदय आलोचक आज शायद ही मिले। शुक्लजी के बाद रचना की नई संवेदना को पहचानने वाले आलोचक हैं नामवरजी।
1950 के बाद के लगभग तीन दशक तक कविता-कहानी की श्रेष्ठ रचनात्मक उपलब्धि के रेखांकन पर स्पष्ट नामवरीय छाप मिलेगी। जिस तरह शुक्लजी ने जिसे कवि नहीं माना था, उसे कवि मनवाने में कवि-समर्थकों को दशकों लग गए, उसी तरह नामवर की कलम ने जिस रचना को श्रेष्ठता का तमगा दे दिया, उससे वह तमगा वापस लेना आज भी मुश्किल बना हुआ है। वही नामवर सिंह बाद के वर्षों में मौखिक रूप से आशीर्वाद देने लगे। फिर क्या था, लेखकों से लेकर कुलेखकों तक में उनसे लोकार्पण कराने की होड़ लग गई। उनके वक्तव्यों से अच्छी रचना और खराब रचना का फर्क गायब होता गया और एक बार जब वह फर्क गायब हो गया तो उसकी वापसी नहीं हुई।
रचनाओं की कटाई-छंटाई में नामवर सिंह अकेले नहीं थे। कवि-आलोचकों की भी इसमें बड़ी भूमिका थी। अज्ञेय, नलिन विलोचन शर्मा, मुक्तिबोध, विजयदेव नारायण साही आदि ने आलोचना की उसी खरी कसौटी पर असली और नकली रचनाशीलता को परखने की कोशिश की। असली-नकली रचनाओं को पहचानने का काम पहले संपादक भी किया करते थे। किस नए प्रतिभाशाली लेखक की पहचान किस संपादक ने की, यह भी पहचान का एक आधार था। कौन-सी रचना ‘प्रतीक’, ‘कल्पना’, ‘आलोचना’ आदि में प्रकाशित हुई, यह चर्चा का विषय हुआ करता था। लेकिन यह तो इतिहास की बातें हैं। अब हजारों पत्र-पत्रिकाएं हैं, इ. पत्रिकाएं हैं, लेखकों की अलग-अलग जमात है, अपनी-अपनी वाटिकाएं हैं, जहां हर तरह के साहित्यिक पक्षी चहकते हुए सुने जा सकते हैं, जो एक-दूसरे के पंख खुजा रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि इस बीच हिंदी आलोचना परिसर के विस्तारित होने का काम नहीं हुआ है। हिंदी नवजागरण संबंधी बहस को शंभुनाथ, वीर भारत तलवार, कर्मेंदु शिशिर आदि ने आगे बढ़ाया है। कथालोचना को स्त्री-दृष्टि के स्पर्श से नई चमक देने में रोहिणी अग्रवाल के प्रयास प्रशंसा के लायक हैं। दलित-दृष्टि भी साहित्य को देखने का आधार हो सकती है, हिंदी आलोचना में इसकी जरूरत कंवल भारती के आलोचनात्मक लेखन के जरिए महसूस होने लगी है। लेकिन ये प्रयास सोशल साइट के अराजक आत्मप्रचार के तुमुल कोलाहल में दबे-दबे से लगते हैं! कोई किताब या लेख लिखने में मेहनत है, संदर्भ खोजने का झंझट है, अपनी स्थापनाओं को लेकर जवाबदेही का झंझट है! आसान रास्ता है सोशल साइट के जरिए अपनी आलोचनात्मक जवाबदेही का निर्वाह करना। इसके सर्वोत्तम उदाहरण हैं चौथीराम यादव।
विद्वान और दृष्टि-संपन्न व्यक्ति हैं। जिस उम्र में हिंदी आलोचना को उनके अनुभव और अध्ययन का लाभ मिलना चाहिए, उस उम्र में वे आसेतु हिमालय अपनी अथक भाषण-भ्रमण-यात्रा में व्यस्त रहते हैं। प्रतिदिन अपना फेसबुक अकाउंट अपडेट कर अपनी यात्राओं और गोष्ठियों में शिरकत संबंधी सूचना देते रहते हैं। आत्मप्रचार, मुख-सुख, मित्र-लाभ, पिकनिक-पर्यटन, जयकार, आचार्य-बोध, क्या नहीं प्राप्त है इस तरह के प्रयास से! सब कुछ बल्ले-बल्ले है, लेकिन जो सुख नहीं हासिल है, वह है पुस्तक-सुख, जो छपने के बाद लेखक और साहित्य समाज को प्राप्त होता है। ऐसे में कौन नहीं स्वीकार करेगा कि सोशल साइट ने वास्तविक आलोचना का अवसर कम कर दिया है और आत्मप्रचारवादी प्रवृत्ति की पीठ ठोंकी है।
हममें से कौन इस प्रवृत्ति का शिकार नहीं है? पुरुषोत्तम अग्रवाल ने वर्षों की मेहनत से कबीर पर ‘अकथ कहानी प्रेम की’ नाम से एक अच्छी आलोचनात्मक पुस्तक लिखी, लेकिन उसकी आत्ममुग्ध बनावट और आत्मप्रचारवादी प्रस्तुति-रवैए ने उसकी प्रभाव-गति को मंद कर दिया। भगवानदास मोरवाल अपने उपन्यास कितनी दफा लोकार्पित करा लेते हैं, इसकी बानगी से सोशल साइट भरा रहता है। अपने उपन्यास के अलावा हिंदी में और कुछ भी है, इसकी चिंता मोरवाल को नहीं है। प्रभात रंजन अपने उपन्यास के प्रचार का कोई अवसर नहीं छोड़ते।
जब सोशल साइट का स्पेस अपने हाथ में है तो किसी आलोचक या अन्य की राय की क्या परवाह! एक टीवी पत्रकार की फेसबुकिया टिप्पणियों की कितबिया को फेसबुक के तीन तिलंगों ने लघु प्रेम-कथा (लप्रेक) के नाम से ऐसा प्रचारित किया, मानो हिंदी कथा साहित्य में युगांतर उपस्थित हो गया और कोई नया ‘मैला आंचल’ आ गया। लेकिन दो-तीन महीने के फेसबुकिया शोरगुल के बावजूद उसका कोई नामलेवा न रहा। सोशल साइट ने पुराने बहुत से मूल्य हमसे झटक लिए हैं। वे दिन अतीत के लगते हैं, जब अपने बारे में बोलना अच्छा नहीं माना जाता था। जब लेखक ही अपने बारे में मुखर हैं तब आलोचना में मौन का पसरना स्वाभाविक है।
यों तो आलोचना की नई किताबों के प्रकाशन की सूचना फेसबुक पर प्राय: आती रहती है, लेकिन उस प्रचुर उत्पादन के बीच सचमुच की आलोचना की किताब खोजना मुश्किल है। जो बढ़िया लिख सकते हैं वे लिखना छोड़ कर फेसबुक पर सामाजिक-राजनीतिक-साहित्यिक लड़ाइयां लड़ रहे हैं। वे सब जितनी सक्रियता से फेसबुक पर डटे हुए हैं, उसका कुछ प्रतिशत वे आलोचना को देते तो आलोचना का कुछ भला होता! सोशल साइट जहां अभिव्यक्ति का एक तुरंता माध्यम है, वहीं वह अभिव्यक्ति की भूख को मार भी देता है। भाषण भी यही काम करता है। भाषण देने की लत जिस आलोचक को पड़ जाती है, उसका लिखना छूट जाता है।
लेकिन भाषण का अवसर और मंच रोज और हर क्षण उपलब्ध नहीं होते। सोशल साइट की उपलब्धता तो हर क्षण है। जब चाहें, जितना चाहें, जैसा चाहें लिख देते हैं और क्षण भर बाद रिस्पांस की वर्षा होने लगती है। तुरंता लेखन और तुरंता रिस्पांस का अपना नशा होता है। इस नशे में हम सब लोग गर्क हैं। इस नशे का मारक असर आलोचना की साधना और उसकी रचना-प्रक्रिया पर पड़ा है। वर्षों के अध्ययन और लेखन के जरिए आलोचना की सुचिंतित किताब लिखने का धीरज सोशल साइट ने समाप्त कर दिया है। अच्छी आलोचना का उत्पादन हो तो कैसे हो!